कुपोषण से कराह रहा महाराष्ट्र
देश के विकसित राज्यों में से एक महाराष्ट्र राज्य पिछले कई वर्षों से कुपोषण की चपेट में है। राज्य में बालमृत्यु रोकने के लिए सर्वत्र मेलघाट पैटर्न लागू किया जाना चाहिए, ऐसी चर्चा तो कई बार की जाती है, पर प्रत्यक्षत: मेलघाट पैटर्न लागू न किए जाने के कारण बाल कुपोषण से मौतों का तांडव जारी है। पिछले 22 वर्षों में राज्य में 10 हजार बालमृत्यु होने की जानकारी सामने आयी है। आखिर सरकारी मशीनरी कुपोषण से होने रही मौतों को रोक पाने में सफल नहीं हो पा रही है। क्या सिर्फ रिपोर्ट ही बनायी जा रही है। कुपोषण को रोकने के लिए जो कदम उठाए जाने चाहिए, वे नहीं उठाए गए, इस कारण ये मौतें हो रही हैं। हालांकि राज्य सरकार का यह दावा है अतिदुर्गम आदिवासी क्षेत्रों में हर तरह की चिकित्सा सेवा उपलब्ध करायी जा रही है, फिर भी मौतों का सिलसिला क्यों नहीं थम रहा, यह एक विचारणीय मसला है। ज्ञात हो कि सुस्त सरकार तंत्र के कारण सन् 1993 से 2015 की कालावधि में माता कुपोषण, संक्रामक रोग, चिकित्सा सुविधाओं की कमी ऐसे विभिन्न कारणों की वजह से दस हजार से ज्यादा बच्चों की मौत हुई है। मेलघाट में 30 वर्ष से ज्यादा समय से कार्यरत खोज नामक सामाजिक संस्था द्वारा किए गए सर्वे में भी इस बात का खुलासा किया गया है कि मेलघाट में अभी भी कुपोषण विकराल रूप धारण किया हुआ है। अमरावती जिले के अंतर्गत आने वाली चिखलदरा तथा धारणी तहसीलों में कुपोषण से होने वाली मौतों का आंकड़ा सबसे ज्यादा है। माता तथा बच्चे को पोषण आहार न देने, कम वजन के बच्चे के जन्म लेने, चिकित्सा संबंधित वस्तुओं की कमी होने तथा अज्ञानता के कारण छोटे बच्चों को गलत दवा देने के कारण बाल मृत्यु का आकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है।
1996-97 की कालावधि में सबसे ज्यादा मौतें
वैसे पिछले 22 वर्ष में कुपोषण से हुई बाल मौतों के आकड़े पर दृष्टि डालने पर यह ज्ञात होता है कि सन् 1996-1997 में सबसे ज्यादा 1050 बाल मृत्यु हुई थी। बाद में इस संख्या में कमी आयी और वह सन् 2012-2013 में सिर्फ 409 ही रह गई। बाल मौतों में आई कमी को ज्यादा समय तक बरकरार नहीं रखा जा सका और सन् 2013-2014 वह बढ़कर 426 हो गया। सन् 2015 में यह आकड़ा 456 पर पहुंचा। दुर्गम आदिवासी बहुल क्षेत्रों में कराए गए सर्वेक्षण से इस बात की भी जानकारी मिली है कि अकेले चिखलदरा में 2000 से ज्यादा बाल मृत्यु हुई हैं। मेलघाट में अतितीव्र कुपोषण श्रेणी के 1000 तथा 1400 बालक मध्य कुपोषित श्रेणी के बताए गए हैं। कुछ वर्षों पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष सलाहकार की नियुक्ति करके मेलघाट में होने वाली बाल मौतों का अध्ययन करवाया था। उस समय जे. जोसेफ द्वारा दी गई रिपोर्ट के आधार पर आंगनवाड़ी पोषक आहार, शालाओं का मध्यान्न भोजन, गरीबी की रेखा से नीचे जीवन बसर करने वाले परिवारों को हर माह 35 किलो अनाज देने की विशेष राशनिंग व्यवस्था करने की बात बड़े जोरशोर से कही जा रही थी।
विशेष राशनिंग का लाभ नहीं
आदिवासी क्षेत्रों के लोगों की बनायी गई विशेष राशनिंग योजना का लाभ उन्हें दिया ही नहीं गया। आंगनवाडी के बच्चों तथा माताओं को भी पोषण आहार से वंचित रखा गया। चावल, दाल, गेंहू तथा तेल की किल्लत ही रहती रही। कुछ स्थानों से यह भी शिकायतें आती रहीं कि जो पोषक आहार के तहत आने वाले अनाज का दर्जा बहुत निकृष्ट है। लेकिन इस शिकायत की ओर ध्यान नहीं दिया गया। हालांकि कुछ सामाजिक संस्थाएं मेलघाट में अच्छा काम कर रही हैं, लेकिन कुपोषण की भयावहता को देखते हुए सरकारी यंत्रणा का मजबूत होना बहुत आवश्यक है। कुपोषण को इस श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। अगर बच्चों को पौष्टिक अन्न दिया जाने लगा तो वे उच्च वर्ग में चले जाते हैं। मरने वाले बच्चों की अतिसार या मलेरिया से मौत हुई है, ऐसा बताकर यहां कुपोषण से होने वाली मौतों का आकड़ा कम करने का षड्यंत्र भी रचा जाता रहा है।
ग्राम विकास केंद्रों का लाभ नहीं मिला
पालघर के अदिवासी बहुल क्षेत्रों विक्रमगढ़, वाडा में कुपोषण से बचाव के लिए ग्राम विकास केंद्र की स्थापना की गई है। राज्य सरकार की ओर से स्थापित किए गए इस बाल विकास केंद्रों की मदद से कुपोषण प्रभावित बच्चों तथा माताओं के स्वास्थ्य की जांच करने का दावा तो लगातार किया जा रहा है, पर वस्तुस्थिति इसके ठीक विपरीत है। पालघर में पिछले वर्ष तीव्र कुपोषित बालकों की संख्या 2694 थी, जो इस बार घटकर 1750 पर आ गई है। इसी तरह मध्यम कुपोषित बालकों की संख्या 12, 225 से घटकर 7318 पर आ गई है। लेकिन ये आंकड़े सरकारी दस्तावेजों पर आधारित हैं। जिला स्वास्थ्य विभाग का कहना है कि इस बार ऐसा अभियान चलाया जा रहा है कि पूरे जिले में एक भी बच्चा कुपोषित नहीं रहेगा। पालघर को एक वर्ष में कुपोषण विहीन कर दिया जाएगा, लेकिन वर्तमान हालातों को देखते हुए ऐसा होना संभव नहीं लगता। पालघर की मोखाड़ा तहसील में कुपोषण से लड़ने के लिए 41 ग्राम बालविकास केंद्रों की स्थापना की गई है, जिनमें 51 कुपोषित बालकों की देखरेख की जा रही है।
इतना ही नहीं, जव्हार तहसील में तो 206 ग्राम विकास केंद्रों की स्थापना की गई है, जहां 700 बालकों को निगरानी के लिए रखा गया है। कुपोषित बच्चों के लिए दवाएं तथा आहार की व्यवस्था करके उनके स्वास्थ्य को सुधार जा रहा है। पालघर जिले की वाडा, विक्रमगड़, डहाणु तथा मोखाड़ा के ग्रामीण अस्पतालों के बाल उपचार केंद्रों 21 दिन बाल रोग चिकित्स उपचार के लिए उपलब्ध रहते हैं। ज्ञात हो कि पालघर में तीव्र कुपोषित बच्चों की संख्या 1728, मध्यम कुपोषित बच्चों की संख्या 7318, एक वर्ष से नीचे की आयु के कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या 441, एक से 6 वर्ष की आयु के मरने वाले कुपोषित बच्चों की संख्या 146 तथा प्रसव के दौरान मरने वाली महिलाओं की संख्या 12 है। पालघर में गत दिनों कराए गए सर्वेक्षण से यह ज्ञात हुआ कि जन्म से लेकर 6 वर्ष की आयु सीमा वाले कुल 2,18,676 कुपोषित बच्चों के बारे में जानकारी मिली। इन बच्चों में से 2,21,185 बच्चों का वजन बहुत कम पाया गया। इस सर्वेक्षण से यह भी पता चला कि 1,87,845 बच्चे सर्वसाधारण श्रेणी में हैं।
जागरूकता का अभाव
कुपोषण रोकने के लिए जो- जो बातें ध्यान में रखनी चाहिए थी, उन पर ध्यान न दिए जाने के कारण कुपोषण की स्थिति निरंतर भयावह होती जा रही है। सभी अगर मिलकर काम करें तो कुपोषण जैसी विभीषिका से बचा जा सकता है। आदिवासी तथा दुर्गम क्षेत्रों में आर्थिक तथा सामाजिक परिवर्तन किए बगैर कुपोषित को समाप्त किया जाना संभव नहीं है। 18 वर्ष से पहले किसी भी लड़की का विवाह न किया जाए। दो अथवा तीसरी संतान के बाद परिवार नियोजन करने पर जोर दिया जाए। साथ ही साथ कुमारी माताओं की संख्या में कमी लाने की हरसंभव कोशिश की जाए, अंधश्रद्धा के वशीभूत होकर तांत्रिक-मांत्रिक पद्धति अपनाकर उपचार करने वालों पर शिकंजा कसा जाना बहुत जरूरी हो गया है।
एकात्मिक बाल विकास योजना
बालमृत्यु तथा कुपोषण का प्रभाव कम करने के लिए एकात्मिक बाल विकास योजना के अंतर्गत आंगनबाड़ी कार्य क्षेत्र के सभी बालकों तथा गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं को पूरक पोषण आहार तथा सकस आहार दिया जाता है। इसके अलावा अमृत आहार योजना भी शुरु की गई है, पर वास्तव में यह योजना सिर्फ कागजी बनकर रह गई है। हालांकि यह योजना मुंबई, ठाणे, कल्याण-डोंबिवली, नवी मुंबई, पुणे, पिंपरी-चिंचवड, वसई-विरार, नासिक, मालेगांव, सोलापुर, औरंगाबाद, मीरा-भायंदर, अमरावती, नांदेड, कोल्हापुर, उल्हासनगर, सांगली-मिरज-कुपवाड़ा, जलगांव, अकोला, लातूर, धुलिया, अहमदनगर, चंद्रपुर, परभणी, अंबरनाथ, पनवेल, बदलापुर, बीड, गोंदिया, सातारा, वार्शी, यवतमाल, अचलपुर, उस्मानाबाद, नंदूरबार, वर्धा, उद्गीर, हिंगणघाट में कागजों पर बड़ी कुशलता से चलायी जा रही है, लेकिन हकीकत में अमृत योजना से कुपोषित बच्चों तथा माताओं के स्वास्थ्य पर कोई खास असर नहीं पड़ा है।
मंत्रियों के दौरों से कोई लाभ नहीं
कुपोषण से कराह रहे मेलघाट तथा अन्य प्रभावित क्षेत्रों के दौरे सत्तासीन सरकार के मंत्रियों द्वारा कई बार किए गए, पर मंत्रियों के दौरों से कोई लाभ नहीं हुआ है। मंत्री जब इस क्षेत्र का दौरा करने आते हैं तो उनके साथ-साथ अन्य यंत्रणाएं भी सक्रिय हो जाती है। मंत्रियों के दौरों की खबरें समाचार पत्रों में फोटो के साथ छपती हैं, लेकिन कुछ दिन बाद पता चलता है कि यह सब सिर्फ प्रचार का ही एक हिस्सा था। मंत्री जी के दौरे के चंद दिनों बाद पता चलता है कि सब कुछ पहले जैसा ही है। कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं कि सरकारी उपेक्षा, प्रशासनिक सुस्ती तथा जागरूकता की कमी के कारण राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण नासूर बन चुका है। यदि समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में कुपोषण और विकराल रूप लिया हुआ दिखायी देगा। =