दस्तक-विशेषसाहित्य

कृषकों की व्यथा-कथा कहता उपन्यास ‘कालीचाट’

ज्ञानेंद्र प्रताप सिंह

उपन्यास ‘कालीचाट’ से गुजरते हुए किसान जीवन की त्रासदी की बड़ी तीखी अनुभूति से हमारा सामना होता है। यह अनुभूति न तो तात्कालिक है और न ही काल्पनिक। यह तीखी अनुभूति मालवा के एक गाँव के लोगों की वास्तविक अनुभूतियों की औपन्यासिक परिणति है। हिन्दी साहित्य में ग्रामीण जीवन की सच्चाइयों को आधार बनाकर उपन्यास लिखने की एक लंबी और समृद्घ परंपरा है। यह परंपरा प्रेमचंद से आरंभ होकर फणीश्वर नाथ रेणु, अमरकांत आदि से होते हुए वर्तमान तक आती है। सुनील चतुर्वेदी का उपन्यास कालीचाट इस परंपरा में एक बेहद सार्थक और सशक्त हस्तक्षेप है।
जैसा कि इसका नाम ही है ‘कालीचाट’ यानि कि काली चट्टान, जैसा कि एक मेहनतकश किसान का जीवन होता है और उसकी नियति भी। वैसे तो इस उपन्यास की कथा मालवा के सिन्द्रानी नामक गांव के ही इर्द-गिर्द बुनी गई है, लेकिन जब हम इस उपन्यास की मूल चेतना और चिंता पर विचार करते हैं तब ज्ञात होता है कि इसका रचनाफलक इतना व्यापक और विशाल है कि समग्र मैदानी और रेगिस्तानी भारत के किसानों के जीवन की चिंताएं भी बड़े स्वाभाविक ढंग से इसकी जद में आ जाती हैं। जहां एक ओर इस उपन्यास में अपनी विकट परिस्थितियों से जूझते हुए किसान जिजीविषा दिखाई देती है, तो वहीं दूसरी ओर भूमंडलीकरण और उदारीकरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न वैश्विक बाजार और शोषण के नए और घातक उपकरण हैं। सामंतशाही भी इस उपन्यास में अपने नए रूप में यहां मौजूद है, जिसका प्रतिनिधि पात्र है भीमा। गोदान उपन्यास पर विचार करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं कि ‘गोदान की मुख्य समस्या ऋण की समस्या है’ कहा जा सकता है कि ऋण की समस्या ‘कालीचाट’ उपन्यास की भी एक बहुत बड़ी समस्या है। लेखक बड़ी ईमानदारी से इस बात को स्वीकार करता है कि ऋण की चिंता किसान को न तो चैन से जीने देती है और न ही चैन से मरने, बस उन्हें हर कदम पर शोषित, अपमानित और गुलाम बनने पर मजबूर करती है। पहले किसान महाजन से ऋण लेता था लेकिन अब वह बैंक से ऋण लेता है। महाजनों से ऋण लेने पर सबसे बड़ी दिक्कत ऊँची ब्याज दर और नजराने के पैसे हुआ करते थे तो बैंकों से ऋण लेने की सबसे बड़ी दिक्कत इस व्यवस्था में मौजूद बिचौलिए और मुनाफाखोर हैं।
यह उपन्यास राजनेताओं के उस चरित्र का भी पर्दाफाश करता है, जो कथित रूप से जनता की सेवा करने के लिए निर्मित होता है। जनता के हित में चलाई जाने वाली तकरीबन सभी योजनाएं अन्तत: नेताओं और बिचौलियों के स्वार्थों का ही साधन बनती हैं। यह उपन्यास कार्पोरेट्स और एनजीओज के भी मूल चरित्र का उद्घाटन करता है। कार्पोरेट्स अपने व्यावसायिक हितों के साधन के लिए किसी भी हद तक किसानों के ऊपर शोषण और अत्याचार को गलत नहीं मानते हैं। अगर इसके लिए किसानों की जमीन छीननी पड़े या उन्हें अपने स्थान से बेदखल करके कहीं और विस्थापित करना पड़े तो वे इससे भी पीछे नहीं हटते हैं। दूसरी ओर गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) हैं जिनका मूल उद्देश्य तो जनता की सेवा और उसके उत्थान के लिए कार्य करना है लेकिन लगभग सारे के सारे एनजीओ खुद को किसानों का हितैषी और उनका शुभचिंतक बताने के बावजूद भी अपनी फंडिंग एजेंसियों के ही हित में काम करते हैं और अन्तत: उन्हीं के प्रति वे खुद को जवाबदेह भी मानते हैं। लेखक ने बड़ी ही बारीकी से इस उपन्यास में इन शोषक तत्वों के शोषण की परतों को तो उधेड़ा ही है, साथ ही साथ इन तत्वों के आपसी गठजोड़ का भी पर्दाफाश किया है। स्त्रियों के बहुविध और बहुस्तरीय शोषण को भी उजागर किया गया है, उदाहरण हैं ‘रेशमी और रुक्मिणी’।
इस उपन्यास को पढ़ते हुए ऐसा जान पड़ता है कि सिन्द्रानी गांव की जमीन में एक बहुत बड़ा ‘कालीचाट’ है, जिसके नीचे जल है। यह जल आशाओं-आकाँक्षाओं, सपनों और उम्मीदों का है, यह जल वहाँ के लोगों की जीवटता का है। ऐसा लगता है कि जब भी यह चट्टान टूटेगी, उसके नीचे का जल ऊपर आ जाएगा और आस-पास का जीवन एक बार फिर से हरा-भरा और खुशहाल हो जाएगा। लेकिन यह उम्मीद करना बेमानी है। शोषण और अपमान के इस चक्र में पिसते-पिसते किसान आजिज आकर आत्महत्या कर लेते हैं और व्यवस्था फिर से एक नयी आत्महत्या के लिए जमीन तैयार करने लगती है। आत्महत्याओं का यह सिलसिला चलता रहता है और सारी कोशिशों के बावजूद सामान्य आदमी के जीवन में न तो खुशहाली आती है और न ही वह इस शोषण और अत्याचार के चक्र से मुक्त हो पाता है। होता केवल इतना है कि तमाम तरह से दबा-कुचला व्यक्ति इस व्यवस्था में एडजस्ट होने की असफल कोशिश में अपना सारा जीवन खपा देता है और नतीजा शून्य। यह उपन्यास बहुत ही सशक्त ढंग से यह सवाल उठाता है कि वह कौन सी वजहें हैं जिनके चलते किसानों को आत्महत्या करने के लिए विवश होना पड़ता है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि ‘कालीचाट’ अपनी तरह का तो एक बेहतरीन और विचारोत्तेजक उपन्यास तो है ही, सुनील चतुर्वेदी के अब तक के लेखन में यह एक नया और विशिष्ट आयाम भी जोड़ता है। यह सुनील चतुर्वेदी की तो श्रेष्ठ, परिपक्व और पठनीय औपन्यासिक कृति है। 
(समीक्षक सीयूजी में ‘उत्तर भारत के उपन्यास’ विषय पर शोध कर रहे हैं।)

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