दस्तक-विशेष

क्या चीड़ के अतिक्रमण का जवाब है उन्मूलन?

देहरादून ब्यूरो
पिछले कुछ महीनों से उत्तराखण्ड के जंगल फिर आग से झुलस रहे हैं। अप्रैल में एक बार शांत होने के बाद मई में फिर जंगलों की आग से करोड़ों की संपत्ति तबाह हुई और मवेशियों, जंगली जावरों और सरीसृपों की जान पर बन आयी। जंगलों की भीषण आग का यह सिलसिला उत्तराखण्ड में अब हर वर्ष आम सा हो चला है। इसका मुख्य कारण लगातार कुकरमुत्तों की तादात में उग रहे चीड़ के वनों को माना जा रहा है। 1990 के दशक के मध्य में केन्द्र सरकार के कृषि मंत्रालय ने उत्तराखण्ड में पसर रहे चीड़ के जंगलों के सफाये के लिए एक योजना बनाई थी। योजना महत्वाकांक्षी थी और उसमें पर्यावरण एवं कृषि के साथ-साथ ग्रामीण विकास मंत्रालय को भी शामिल किया गया था। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि पर्यावरणवादी धारणा के अनुसार हिमालय में सिक्किम, अरुणाचल से लेकर जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखण्ड में कुकुरमुत्तों की तादात में पैर पसार रहा चीड़ या वन विज्ञानियों की भाषा में चिर पाइन (बौटनीकल लैंग्वेज में पाइनस रौक्सवर्गी सरग), जल, जमीन, पशु एवं आदमी का शत्रु है। इसके आगे पर्यावरणीय बिरादरी का मत यह है कि उत्तराखण्ड में शिवालिक फुट हिल्स या सी लेवल से तीन हजार चार हजार मीटर उंचाई में चीड़ के विस्तार के चलते प्राकृतिक जल श्रोतों, नालों, चश्मों एवं धारों को सोखने में इस वृक्ष की सबसे बड़ी भूमिका है। यह तथ्य तो जगजाहिर ही है कि केमिकल युक्त इसकी पत्तिया (पिरूल) अपने आसपास किसी दूसरे प्लांट को पनपने नहीं देती। इसलिए इसे समूल नष्ट कर उत्तराखण्ड और पर्यावरण मित्र पादप मसलन बांज (ओक) या चारा प्रजाति के भीमल, तीमल, खड़िक जैसे पेड़ लगाये जायें। इन पेड़ों को उगाने के लिए राज्य आबादी को बोनस भी दे रहा है। 1994 की चीड़ उन्मूलन योजना कहीं जमीन पर नहीं उतरी, यदि उतरी होती तो वर्तमान राज्य सरकार चीड़ को फारेस्ट फायर का एकमात्र कारण मानकर इसके समूल उन्मूलन का प्रस्ताव केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय को नहीं भेजती।
chidबहरहाल, यह सच्चाई है कि उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्राी हरीश रावत चीड़ के अपरिमित विस्तार और खतरों से बेहद चिंतित हैं। हर वर्ष बढ़ रही फारेस्ट फाइर और जंगलों एवं इको सिस्टम की तबाही के लिए वे चीड़ की पिरूल और लीसे को बड़ा खतरा मान रहे हैं। यह जानते हुए भी कि चीड़ के उत्पादों से राज्य को प्रतिवर्ष 70 करोड़ की आय अर्जित हो रही है। इस संबंध में उनकी सरकार केन्द्र को चीड़ के चरणबद्ध उन्मूलन के लिए प्रस्ताव भेज चुकी है। भारत सरकार का पर्यावरण मंत्रालय इसे कैसे लेता है यह तो अभी कहा नहीं जा सकता लेकिन इतना तो तय है कि इसका असली फैसला भारत सरकार के फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूटस या पर्यावरण संस्थानों को करना है। उत्तराखण्ड ब्रिटिश काल से ही इस तरह के अंतरराष्ट्रीय संस्थानों का जनक रहा है। विसंगति यह है कि एक ओर जहां केन्द्र और राज्य के पालिसी मेकर्स अंग्रेजों द्वारा रेल स्लीपरों एवं त्वरित इमारती लकड़ी देने वाले पेड़ के रूप में भारत में लाये गये चीड़ को खत्म करना चाहते हैं। वहीं वानिकी और वाइल्ड लाइफ के पैरोकार सरकारी संस्थान लोकल आबादी से चीड़ को बचाने की जंग लड़ रहे हैं। शोध संस्थान चीड़ के खिलाफ उठते जनाक्रोश के बावजूद उत्तराखण्ड के कई जनपदों में आबादी द्वारा उपयोग के लिए काटे जा रहे पेड़ों के अध्ययन और शोध प्रकाशित कर रहे हैं। चीड़ को बचाने के लिए सबसे ज्यादा सर्वे और रिसर्च अल्मोड़ा स्थित जीबी पंत हिमालया इंस्टीट्यूट कर रहा है। इसके अलावा देश और विदेश की कई यूनिवर्सिटीज के साथ नामी गिरामी एनजीओ आयेदिन स्थानीय आबादी की चीड़ पर निर्भरता के आंकड़े सामने रख रहे है। चीड़ के लिए चिंतित ऐसा ही एक हालिया सर्वे बताता है कि उत्तराखण्ड की आबादी प्रतिवर्ष अपने घास के लुट्टों और बेलदार सब्जियों को उगाने के लिए 40 हजार चीड़ के पेड़ काट लेती है। इसके बावजूद चीड़ बेतहाशा बढ़ रहा है। सी लेबल 500 मीटर से 3000 तक निर्धारित अपने हैबीटाट से उपर 3500 तक भी चीड़ ने सीमा पार की है। ताज्जुब का विषय यह है कि चीड़ को कोई रोपता या उगाता नहीं है। इसके बीज (स्यौंत) हवा में उड़कर पनप जाते हैं। चीड़ अब हर जंगल के बीच पहुंच चुका है। मैदानी इलाकों में साल और सागौन के साथ तो हाई हिल्स में देवदार, बुरांस, बांज और काफल के साथ भी चीड़ संगत आजमा रहा है। इसलिए 55 लाख हेक्टेअर क्षेत्रफल वाले उत्तराखण्ड में 65 प्रतिशत वन होने के बावजूद अकेला चीड़ 2 लाख हेक्टेअर भूमि पर राज कर रहा है। स्थानीय आबादी को इस फैलाव का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इस पर्णपाती, 30 से 50 मीटर उंचे पेड़ की छांव में घास भी नहीं उग सकती क्योंकि इसकी पत्तियां सड़ती नहीं हैं बल्कि फिसलने और आग पकड़ने में अति संवेदनशील हैं। यदि चीड़ के स्थानीय उपयोग का यह आंकड़ा सही भी है तो कल्पना की जा सकती है कि अगर ऐसा नहीं होता तो चीड़ अब तक उत्तराखण्ड के आधे क्षेत्र में पसर चुका होता।
इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि पर्यावरणीय कारणों से हानिकारक होने के बावजूद स्थानीय आबादी ने चीड़ के साथ तादात्मय नहीं बनाया। बिजली विहीन डार्क डेज और आधुनिक विकास की चकाचौंध से पहले स्थानीय आबादी पर चीड़ के बड़े उपकार रहे हैं। मसाल से लेकर इमारती लकड़ी खेतों की सफाई के लिए पिरूल और सब्जियां उगाने के लिए टेंडरील आदि आदि। चीड़ का सबसे नकारात्मक पक्ष यह है कि पर्यावरण मित्र ओक जैसे 20 साल में बड़े होने वाले पेड़ों की जगह यह दस साल में जवान हो जाता है। वन अधिनियम 1980 और उसके बाद बने तमाम वन एवं पर्यावरण संरक्षण कानूनों ने वनों पर सिकंजा कस दिया है। इस बीच देशभर में एक अतिरेक पूर्ण पर्यावरण चेतना के ज्वार से वनों पर आश्रित आबादी को अपने परंपरागत व्यवसाय छोड़ने पड़े हैं। चीड़ अब अवध्य है, इसलिए भी यह आबादी और राज्य के लिए समस्या बन रहा है। केन्द्र के वन पर्यावरण मंत्रालयों एवं उसके वानिकी और पारिस्थतिकी संस्थानों को चीड़ पीड़ित राज्यों के साथ मिलकर इसके नफे-नुकसान का आंकलन कर ही लेना चाहिए। कम से कम उत्तराखण्ड और हिमाचल में जहां तमाम केन्द्रीय कानूनों की जद में चीड़ महा विस्तार लेता जा रहा है, इसका विस्तार रोकने को कोई मध्य मार्ग निकालना होगा। 1994 में चीड़ उन्मूलन की योजना बना चुके तबकों को कम से कम अपना आर्काइव खोलकर उत्तराखण्ड के प्रस्ताव को तवज्जों देनी चाहिए।

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