खुश्हाल जीवन के लिये स्वस्थ मस्तिष्क जरूरी
ज्योतिष डेस्क : चिंता और निराशा के कुविचारों को जब हम मन में से हटा देते हैं तो आनंद और उत्साह की दशा शेष रह जाती है। इससे मस्तिष्कीय कोषों को बड़ा आराम मिलता है और उन्हें फलने-फूलने योग्य पर्याप्त सुविधाएं मिल जाती हैं। वही मनुष्य बुद्धि-कौशल प्राप्त करते हैं, जो निर्भय हैं। वही विद्वान होते हैं, जो धैर्य धारण करते हैं और आपत्तियों को क्षणिक समझकर उनकी परवाह नहीं करते और सुनहरे भविष्य की आशा करते रहते हैं। मस्तिष्क की सुरक्षा का यह अत्यंत ही उत्तम उपाय है।
अधिकांश मनुष्य अज्ञानतावश मस्तिष्क का दुरुपयोग करते हैं और उसकी महान सामर्थ्य के द्वारा प्राप्त होने वाले आश्चर्यजनक परिणामों से वंचित रह जाते हैं। मस्तिष्क को विषाक्त बनाकर कुंठित कर देने वाले कारणों में ‘चिन्ता’ प्रमुख है। कहते हैं कि चिन्ता चिता के समान है, जो जीवित मनुष्य को जला देती है। चिन्ता के कारण मस्तिष्क में गर्मी बहुत बढ़ जाती है और वह वहां की स्निग्धता, सरलता एवं कोमलता को नष्ट करके दाह एवं उष्णता उत्पन्न करती है। चिन्ताशील मनुष्य का मस्तिष्कीय परीक्षण करने पर पाया गया है कि श्वेत बालुका और पीत पदार्थ (ग्रे मैटर) सूखकर कड़े और ठोस हो जाते हैं। समस्त शरीर का शासन दिमाग द्वारा होता है, जब शासन-कर्ता जीर्ण-शीर्ण हो रहा हो तो राज्य में अव्यवस्था फैल जाना स्वभाविक है, चिन्ता-ग्रस्त और निर्बल मस्तिष्क वाले शरीर का रोगी और दुर्बल होना स्वाभाविक है। ऐसे मनुष्य अधिक दिन जी सकेंगे, इस पर कौन विश्वास करेगा? जलन, गर्मी और खुश्की के कारण प्राण-प्रद पदार्थ (ऑक्सीजन) जलते हैं और वे विषाक्त वायु (कार्बन) के रूप में परिणत हो जाते हैं। फिक्र के कारण भुनते हुए मस्तिष्क में से विषैले पदार्थों का आविर्भाव होता है और वे पदार्थ रक्त के साथ मिलकर शरीर की अन्य धातुओं को भी विषैला कर देते हैं। पहले ही दिन वे मंदाग्नि उत्पन्न करते हैं और क्रमशः अन्य रोगों को बुलाते हुए अन्ततः संग्रहणी, कुष्ठ, क्षय, मधुमेह, प्रमेह या ऐसे ही अन्य भयंकर रोगों तक को उत्पन्न करा लेते हैं। लोग अपनी विपत्ति को उस खुर्दबीन शीशे से देखते हैं, जिसमें से छोटी-सी चीज़ कई गुनी होकर दिखाई पड़ती है। घबराहट एक स्वतंत्र विपत्ति है, वह अपने कुटुम्ब को साथ लेकर आती है और ऐसी अव्यवस्था पैदा करती है कि मनुष्य यह भी ठीक तरह निर्णय नहीं कर पाता कि अब क्या करना चाहिए? उल्टा उपाय करने से कष्ट और भी बढ़ जाता है। देखा गया है कि मामूली से रोग से घबराकर लोग चारों ओर दौड़ते हैं और उल्टे-सीधे इलाज कराकर रोग के स्थान पर रोगी को ही मार डालते हैं। हाय अब इस विपत्ति का निवारण न होगा। मेरी कोई सहायता न करेगा। मेरे लिए दुःख ही दुःख है। सफलता मेरे भाग्य में ही नहीं है। इस प्रकार के निराशाजनक विचार विपत्ति को दृढ़ बनाकर चिन्ता को स्थायी कर देते हैं। ऐसी अवस्था में अधिकांश लोग मानसिक आत्म-हत्या कर लेते हैं। कई भीमकर्मा शारीरिक आत्महत्या तक कर डालते हैं। क्या विपत्ति के समय यही एक मार्ग हमारे लिए रह जाता है? कितने दुःख की बात है कि उल्टे रास्ते पर भटककर हम जरा से कारण को घातक बना लेते हैं। यथार्थ में सुख की तरह दुःख और संपत्ति की तरह विपत्ति जीवन में आने वाली आवश्यक परिस्थितियां हैं। इनसे कोई बच नहीं सकता। सर्दी और गर्मी, दिन और रात्रि, मीठा और चरपरा दोनों ही विरोधी तत्व इस प्रकृति में हैं, जो अपने को इन दोनों को सहने योग्य बना लेता है, वह प्रसन्न रहता है। जो एक ही स्थिति में सदा रहना चाहता है, वह डरता है, दुखी होता है, घबराता है और मर जाता है। हमें अपने को सुदृढ़ बनाना चाहिए ताकि प्रतिकूल परिस्थितियों से डरने की अपेक्षा उनका सामना करें। भगवान कृष्ण का वह मंत्र इसी स्थान के लिए है- ‘संतुष्टो येन केन चित्’ ‘जैसी भी कुछ स्थिति हो, उसमें संतुष्ट रहो। यह विधान अकर्मण्यता का पोषक नहीं, धैर्य का उद्योतक है। जो कुछ हो रहा है, मेरी भलाई के लिए है।’ यह विचार करते ही आधी विपत्ति टल जाती है। संसार में तुम से भी अधिक कष्ट में दूसरे लोग पड़े हुए हैं। उनकी तुलना अपने से करते हुए ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि – दूसरों की अपेक्षा मुझे अधिक सुविधा प्राप्त है। ईश्वर विश्वासी, संतोषी और आशावादी मनुष्य के सन्मुख बड़ी से बड़ी विपत्ति छोटी हो जाती है और वह हर परिस्थिति में प्रसन्न रह सकता है। जिस प्रकार वर्षा ऋतु में उसे प्रसन्नता होती है, वैसे ही सर्दी और गर्मी में भी वह प्रसन्नता का कोई कारण ढूंढ निकालता है। सब सुख में तुम हंसते हो तो ऐ बहादुरों! दुख में भी हंसो।