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मेघालय की खासी जनजाति के लिए तीर चलाना खेल भी रहा है और आत्मरक्षा का जरिया भी। ज्यादातर पूर्वोत्तर राज्यों की तरह मेघालय भी देश की मुख्यधारा से अलग-थलग जनजातीय जिंदगी जीता रहा था। आज भी मेघालय में राजधानी शिलॉन्ग के सिवा कोई बड़ा शहर नहीं है। यहां की जिंदगी अभी भी ग्रामीण और जंगली परिवेश वाली ही है।
लोगों के लिए तीर से निशाना साधना समय काटने का बड़ा जरिया रहा है। शिलॉन्ग की नॉर्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डेसमंड खार्माफलांग कहते हैं, ‘तीर-धनुष से निशानेबाजी की जड़ें खासी समुदाय में काफी गहरी हैं। इससे कई किस्से-कहानियां मिथक भी जुड़े हुए हैं, जो आज भी सुने-सुनाए जाते हैं’।
डेसमंड खार्माफलांग के मुताबिक, धनुर्विद्या खासी लोगों को ऊपरवाले से तोहफे में मिली थी। मिथक कहता है कि खुद भगवान ने इसे स्थानीय देवी का शिनाम को सिखाया था। उस देवी का शिनाम ने फिर ये तीर कमान अपने बेटों यू शिना और यू बतितों को विरासत में सौंपी। इससे खेलते-खेलते दोनों बच्चे बहुत बड़े निशानेबाज बन गए।
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मेघालय के लोगों के बीच ये दैवीय कला आज भी खूब रचती-बसती है। डेसमंड खार्माफलांग बताते हैं कि मेघालय में आज भी जब कोई लड़का पैदा होता है, तो उसके बगल में तीन तीर और धनुष रखे जाते हैं। पहला तीर उसकी जमीन की निशानी होता है। तो, दूसरा तीर उसके खानदान की पहचान और तीसरा तीर खुद उसकी पहचान बनता है।
लोगों की मौत के बाद इस धनुष को उनके साथ रखा जाता है। ये तीर किसी भी लड़के के जन्म के बाद से सहेजकर रखे जाते हैं। मौत के बाद उन्हें आसमान की तरफ निशाना साधकर फेंका जाता है। इसका मतलब ये होता है कि ये तीर उस आदमी के साथ जन्नत तक जाएंगे। तीर से निशानेबाजी का हालिया इतिहास उन्नीसवीं सदी के आगाज से शुरू होता है।
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भारत के आजाद होने के बाद से मेघालय को देश की मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिशें शुरू हुईं। तरक्की के साथ-साथ तीर-कमान का चलन कम हो गया। अब ये टाइमपास के तौर पर ही सीखा और इस्तेमाल किया जाता है।
हालांकि आज भी शिलॉन्ग और राज्य के दूसरे इलाकों में तीर-कमान से निशानेबाजी के बड़े मुकाबले आयोजित किए जाते हैं। अक्सर ऐसे आयोजन त्यौहारों पर होते हैं। इन्हें जीतना शान की बात मानी जाती है। दूर-दूर से तीरंदाज ऐसे मुकाबलों में हिस्सा लेने के लिए आते हैं। विजेताओं को इनाम में मोटी रकम मिलती है। कई बार तो बड़े कारोबारी घराने भी ऐसे आयोजनों के प्रायोजक बनते हैं।
तीरंदाजी में सट्टा लगाने वाले को एक रुपए के बदले में 500 रुपए तक की कमाई हो सकती है। हारने पर नई बाजी का इंतजार किया जाता है। स्थानीय ट्रैवल ब्लॉगर अमृता दास यहीं पली-बढ़ी थीं। अब वो बाहर रहती हैं, लेकिन साल में तीन-चार बार अपने माता-पिता से मिलने आती हैं।
अमृता जब भी आती हैं, तो वो तीरंदाजी में सट्टा जरूर लगाती हैं। उन्हें ब्लैकबोर्ड पर लिखे नंबर बहुत लुभाते हैं। डेसमंड खार्माफलांग कहते हैं कि सट्टेबाजी की वजह से मेघालय की संस्कृति की अहम पहचान ये तीरंदाजी आज भी सुरक्षित है। अब तो राज्य की सरकार भी इसे बढ़ावा देने के लिए तमाम कदम उठा रही है। लोगों को सिखाने के लिए आर्चरी क्लब खोले गए हैं। अब तो खासी जनजाति के लोगों के अलावा दूसरे समुदायों के लोग भी तीरंदाजी सीख रहे हैं।