जन्मदिन विशेष: रघुवीर सहाय, जिनकी कविता आधुनिक समय का जीवंत दस्तावेज है
रघुवीर सहाय की रचनाएं आजादी के बाद के आधुनिक समय की धड़कनों का जीवंत दस्तावेज हैं, उनकी कविता आज के समय की परिभाषा है।
नई दिल्ली: रघुवीर सहाय की रचनाएं आजादी के बाद के आधुनिक समय की धड़कनों का जीवंत दस्तावेज हैं। उनकी कविता आज के समय की परिभाषा है। रघुवीर सहाय उन कालजयी रचनाकारों में हैं जो वक्त की धूल में खोए नहीं बल्कि उनकी प्रासंगिकता समय बीतने के साथ बढ़ती ही गई। नवजीवन से लेकर प्रतीक, युगचेतना, आकाशवाणी, और दिनमान तक में उन्होंने अपनी पत्रकारिता और लेखन में लोकतांत्रिक मुल्यों को बचाए रखा, अपने लेखन से एक न्यायपूर्ण और समतामुलक समाज बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रघुवीर सहाय के लेखन की शुरुआत 1945 में हुई और 1947 में उनकी पहली कविता ‘आजकल’ पत्रिका में छपी, जब सहाय ने लिखना शुरू किया तब प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद युग समाप्त हो चुका था।
दिनकर, बच्चन के बाद अज्ञेय, जैनेंद्र, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल जैसे लोग साहित्य की पटल पर सक्रिय थे। शुरुआती दौर में सहाय बच्चन से प्रवाभित थे। 1967 में प्रकाशित ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ और 1975 में ‘हंसो-हंसो जल्दी हंसो’ जैसी कविता संग्रह ने उन्हें हिन्दी के एक शिर्ष कवि के रूप में स्थापित किया। रघुवीर सहाय की कविता स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र की विचार यात्रा है। उनकी कविताएं भारतीय लोकतंत्र से जुड़े आम आदमी की आशाओं, आकांक्षाओं और सपनों से बुनी गई है। आजादी के बाद 2 दशक तक लोग आशावान बने रहे, लेकिन जब आम जनता को जिस नए भारत की तस्वीर के सपने दिखाए गए थे वह पूरे नहीं हुए तो एक कवि मन रो उठा, रघुवीर सहाय ने लिखा-
बीस बरस बीत चुके
लालसा मनुष्य की तिलमिल कर मिट गई.
टूटते-टूटते जिस जगह आकर विश्वास हो जाएगा
कि बीस साल धोखा दिया गया
वहीं मुझसे फिर कहा जाएगा
विश्वास करने को
आजादी के बाद जब सियासी दांवों की कलई खुलती है तो रघुवीर सहाय लिखते हैं-
राजधानी से कोई कस्बा दोपहर बाद छटपटाता है
एक फटा कोट, एक हिलती चौकी, एक लालटेन
दोनों बापमिस्तरी और बीस बरस का नरेन
दोनों पहले से जानते हैं पेंच की मरी हुई चूड़ियां
नेहरू युग के औजारों को मुसद्दी लाल की सबसे बड़ी देन
जब सत्तासीन लोगों द्वारा जनवादी मुल्यों का हनन होता है तो भला कवि कैसे चुप रह सकता है। ‘आत्महत्या के विरुद्ध” संकलन में एक कविता ‘अधिनायक’ इसी ओर संकेत करती है।
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मख़मल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
कौन कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है’’
स्त्री जीवन और रघुवीर सहाय की कविताएं
रघुवीर सहाय की कविताओं पर बात करते समय आलोचक अक्सर उनकी राजनीतिक कविताओं पर ही बात करते हैं। जबकि उन्होंने स्त्रियों पर और स्त्रियों से संबंधित लगभग 80 कविताएं लिखी हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में स्त्रियों के जीवन का मार्मिक चित्रण किया है। उन्होंने अपनी कविताओं में स्त्री जीवन के संघर्षों का मार्मिक चित्रण किया है. उस सोच के खिलाफ लिखा है जो कहती है स्त्रियां स्वतंत्र होते ही बिगड़ जाती हैं। स्त्री जीवन पर गहन पड़ताल करने के बाद वह लिखते हैं-
नारी बेचारी, पुरुष की मारी
तन से है क्षुदित, मन से मुदित
लपककर-झपककर
अंत में चित्त है
पुरुषसत्तात्मक समाज में महिलाओं को क्या करना है, कैसे रहना है, यह सब पुरुष तय करते हैं. इसको बड़ी बारिकी से रघुवीर सहाय ने लिखा है-
पढ़िए गीता, बनिए सीता
फिर इन सबमें लगा पलीता
किसी मुर्ख की हो परिणीता
निज घरबार बसाइए
इन पंक्तियों में उन्होंने उस व्यस्था पर व्यंग किया है जिसमें स्त्रियों को क्या पढ़ना है ? यह पुरुष ने तय कर दिया है। पुरुष कहता है स्त्रियों को गीता पढ़ना है। लेकिन जिस पृष्ठभूमि में गीता का सृजन हुआ उससे जुड़ी द्रौपदी की तरह नहीं बल्कि सीता की तरह बनना है। दरअसल पुरुषसत्तामक समाज में एक ऐसी स्त्री स्वीकार है जो विरोध में कुछ न बोले पुरुषसत्तामक समाज में कोई खलल पैदा न करे।
प्रभु की दया, बड़ी हो रही लड़की, स्त्री की उम्र और औरत की जिंदगी जैसी कविताओं से रघुवीर सहाय ने स्त्री जीवन का बखूबी चित्रण किया है। उनकी कविता ‘हमने यह देखा’ की पंक्तियों के पढ़िए।
हमको तो अपने हक सब मिलने चाहिए
हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन
कम से कम वाली बात हमसे न कहिए
व्यवस्था में व्यर्थ करार दे दिए गए व्यक्ति को उन्होंने बोलने का साहस देने की कोशिश की उनकी कविता राजनीति और समाज में व्याप्त कुरीतियों पर कटाक्ष करने वाली है। रघुवीर सहाय की कविताओं में एक तरफ समाज की परेशान हाल जिंदगी का वर्णन मिलता है, वहीं मानव मन की सहज और सुकोमल प्रवृत्तियों की भी मार्मिक अभिव्यक्ति भी मिलती है। रघुवीर सहाय की कविता लोकतंत्र और आजादी की आकांक्षा भी है और बदलते हुए समय का उद्देश्य भी उनकी कविता आजादी और लोकतंत्र के असली मायने की तलाश करती ।