जब नर्तकी ने कराया स्वामी विवेकानंद को आत्मज्ञान
स्वामी विवेकानंद का राजस्थान से गहरा संबंध रहा है। खेतड़ी के राजा अजीत सिंह उनके शिष्य थे। इन गुरु-शिष्य का संपूर्ण जीवन देश के उत्थान और मानवता के कल्याण को समर्पित था। 12 जनवरी 1863 को जन्मे नरेंद्रनाथ दत्त को स्वामी विवेकानंद बनाने में अनेक लोगों का सहयोग रहा। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी, गुरु रामकृष्ण परमहंस, गुरुमां शारदा देवी के विचारों का स्वामीजी पर बहुत प्रभाव पड़ा। खेतड़ी के राजमहल में वे राजा अजीत सिंह के अतिथि बनकर ठहरे तो उन्होंने भारत भ्रमण के दौरान कई बार भूखे पेट रहकर देशवासियों की पीड़ा भी महसूस की। उनके जीवन के अनेक अध्याय हैं जो बहुत प्रेरक हैं। पढि़ए स्वामीजी के जीवन की एक घटना जब नर्तकी ने उन्हें समझाया संन्यास और आत्मज्ञान का असली मतलब।
राजस्थान के झुंझुनूं जिले में स्थित खेतड़ी शहर में स्वामी विवेकानंद की स्मृति में मंदिर है। किसी समय यह राजा अजीत सिंह का गढ़ था जहां से रियासत का शासन चलता था। यहां दीवार पर एक पट्टिका लगी हुई है जिस पर लिखा हुआ है कि यही वो स्थान है जहां नर्तकी ने स्वामी विवेकानंद को आत्मज्ञान कराया था। एक बार जब स्वामीजी खेतड़ी आए हुए थे तो वे राजा अजीत सिंहजी से किसी विषय पर वार्ता कर रहे थे। तभी नर्तकियों का एक समूह वहां आया और उन्होंने राजा साहब से एक गीत सुनने का निवेदन किया। उन नर्तकियों में मैना बाई नामक एक महिला भी थी।क्या स्वामीजी ने गीत सुनना पसंद किया, जानिए आगे..
राजा ने अनुमति दे दी परंतु स्वामीजी के मन में यह विचार आया कि एक संन्यासी को नर्तकी का नाच-गाना नहीं देखना चाहिए। इसलिए वे तुरंत उस जगह से खड़े होकर चले गए। उनके लिए महल में रहने की व्यवस्था थी, इसलिए वे अपने लिए निर्धारित कक्ष में आ गए। मैना बाई ने भी स्वामीजी से रुकने का अनुरोध किया था परंतु नर्तकी का गाना सुनना उन्हें संन्यासी की मर्यादा के विरुद्ध लगा, इसलिए उन्होंने उसका अनुरोध स्वीकार नहीं किया।आगे पढ़िए, नर्तकी ने कौनसा गाना गाया…
आखिरकार मैना बाई ने एक भजन गाना प्रारंभ किया- प्रभु मोरे अवगुण चित्त न धरो। समदरसी है नाम तिहारो चाहो तो पार करो। एक लोहा पूजा में राखत एक रहत ब्याध घर परो।पारस गुण अवगुण नहिं चितवत कंचन करत खरो।।एक नदिया एक नाल कहावत मैलो ही नीर भरो।जब दो मिलकर एक बरन भई सुरसरी नाम परो।।एक जीव एक ब्रह्म कहावे सूर श्याम झगरो।अब की बेर मोहे पार उतारो नहिं पन जात टरो।।
स्वामीजी इस भजन का मर्म बहुत अच्छी तरह समझते थे। मैना बाई की आवाज स्वामीजी के कक्ष तक आ रही थी। उन्होंने भजन के हर शब्द पर गौर किया। नर्तकी भजन के माध्यम से एक ब्रह्म की बात कर रही थी जैसे कि उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस किया करते थे। वह सबमें एक आत्मा के प्रकाश की बात कर रही थी परंतु स्वामीजी ने उसका यह अनुरोध स्वीकार नहीं किया। वे ऐसे ही अनेक प्रश्नों पर मनन कर रहे थे। वे अपने कक्ष से बाहर आए और पुन: उसी स्थान पर गए जहां मैना बाई ने भजन प्रस्तुत किया था। उन्होंने मैना बाई से हाथ जोड़कर क्षमा मांगी और बोले- मुझे माफ करना माता, क्योंकि आज तुमने मुझे आत्मज्ञान कराया, ब्रह्म का सच्चा उपदेश दिया। उस घटना की याद में लगी पट्टिका लोगों को इसका स्मरण कराती है और स्वामीजी के साथ मैना बाई और राजा अजीत सिंह की महानता का बोध कराती है।