जानिए कौन हैं लिंगायत, और क्यों हिंदू धर्म से होना चाहते हैं अलग?
कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने से ठीक पहले कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा दिए जाने की मांग को मान लिया है. अब इस पर अंतिम फैसला केंद्र सरकार को करना है.
लिंगायत समुदाय के लोग लंबे समय से मांग कर रहे थे कि उन्हें हिंदू धर्म से अलग धर्म का दर्जा दिया जाए. कर्नाटक सरकार ने नागमोहन समिति की सिफारिशों को स्टेट माइनॉरिटी कमीशन ऐक्ट की धारा 2डी के तहत मंजूर कर लिया. अब इसकी अंतिम मंजूरी के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजा जाएगा. कांग्रेस ने लिंगायत धर्म को अलग धर्म का दर्जा देने का समर्थन किया है. वहीं, बीजेपी अब तक लिंगायतों को हिंदू धर्म का ही हिस्सा मानती रही है.
कौन हैं लिंगायत और क्या हैं इनकी परंपराएं?
लिंगायत समाज को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है. कर्नाटक की आबादी का 18 फीसदी लिंगायत हैं. पास के राज्यों जैसे महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भी लिंगायतों की अच्छी खासी आबादी है.
लिंगायत और वीरशैव कर्नाटक के दो बड़े समुदाय हैं. इन दोनों समुदायों का जन्म 12वीं शताब्दी के समाज सुधार आंदोलन के स्वरूप हुआ. इस आंदोलन का नेतृत्व समाज सुधारक बसवन्ना ने किया था. बसवन्ना खुद ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे. उन्होंने ब्राह्मणों के वर्चस्ववादी व्यवस्था का विरोध किया. वे जन्म आधारित व्यवस्था की जगह कर्म आधारित व्यवस्था में विश्वास करते थे. लिंगायत समाज पहले हिन्दू वैदिक धर्म का ही पालन करता था लेकिन इसकी कुरीतियों को हटाने के लिए इस नए सम्प्रदाय की स्थापना की गई.
लिंगायत सम्प्रदाय के लोग ना तो वेदों में विश्वास रखते हैं और ना ही मूर्ति पूजा में. लिंगायत हिंदुओं के भगवान शिव की पूजा नहीं करते लेकिन भगवान को उचित आकार “इष्टलिंग” के रूप में पूजा करने का तरीका प्रदान करता है. इष्टलिंग अंडे के आकार की गेंदनुमा आकृति होती है जिसे वे धागे से अपने शरीर पर बांधते हैं. लिंगायत इस इष्टलिंग को आंतरिक चेतना का प्रतीक मानते हैं. निराकार परमात्मा को मानव या प्राणियों के आकार में कल्पित न करके विश्व के आकार में इष्टलिंग की रचना की गई है.
लिंगायत पुनर्जन्म में भी विश्वास नहीं करते हैं. लिंगायतों का मानना है कि एक ही जीवन है और कोई भी अपने कर्मों से अपने जीवन को स्वर्ग और नरक बना सकता है.
लिंगायत में शवों को दफनाने की परंपरा
लिंगायत परंपरा में अंतिम संस्कार की प्रक्रिया भी अलग है. लिंगायत में शवों को दफनाया जाता है. लिंगायत परंपरा में मृत्यु के बाद शव को नहलाकर बिठा दिया जाता है. शव को कपड़े या लकड़ी के सहारे बांध जाता है. जब किसी लिंगायत का निधन होता है तो उसे सजा-धजाकर कुर्सी पर बिठाया जाता है और फिर कंधे पर उठाया जाता है. इसे विमान बांधना कहते हैं. कई जगहों पर लिंगायतों के अलग कब्रिस्तान होते हैं.
बसवन्ना के अनुयायियों का मानना है कि बसवन्ना ने जाति व्यवस्था और वैदिक परंपराओं का विरोध किया था. उनके आंदोलन का आधार ही प्रचलित हिंदू व्यवस्था के खिलाफ था. उनका मानना है कि इष्ट लिंग और भगवान बसवेश्वर के बताए गए नियम हिंदू धर्म से बिल्कुल अलग हैं. दूसरी तरफ जो लोग लिंगायत की हिंदू धर्म से अलग पहचान का विरोध करते हैं, उनका कहना है कि बसवन्ना का आंदोलन भक्ति आंदोलन की ही तरह था. उसका मकसद हिंदू धर्म की राह से अलग होना नहीं था.
लिंगायत समुदाय के भीतर लिंगायत को हिंदू धर्म से अलग पहचान देने की बात समय-समय पर दोहराई जाती रही है. पिछले दशक में यह मांग और तेज हुई है. 2011 की जनगणना के दौरान, लिंगायत समूह के कुछ संगठनों ने समुदाय के लोगों को हिंदू धर्म में रजिस्टर नहीं होने के लिए कैंपेन भी चलाए थे. स्वतंत्र धार्मिक पहचान की मांग पहली बार सार्वजनिक रूप से बीदड़ सभा में पुरजोर तरीके से की गई. इस सभा में 50,000 से ज्यादा लोग शामिल हुए थे.
आम मान्यता ये है कि वीरशैव और लिंगायत एक ही लोग होते हैं. लेकिन लिंगायत लोगों का मानना है कि वीरशैव लोगों का अस्तित्व समाज सुधारक बसवन्ना के उदय से भी पहले से था. लिंगायत समुदाय की पहली महिला साध्वी और बासव धर्म पीठ की प्रमुख माते महादेवी कहती हैं, ”बसवन्ना ने वैदिक अनुष्ठान और परंपरा को नकारा था. लेकिन वीरशैव वेदों का पालन करते हैं. वे शिव की पूजा करते हैं. यहां तक कि वे शिव की मूर्ति पूजा भी करते हैं, स्पष्ट रूप से बसवन्ना की अवधारणा ये नहीं थी.” दूसरी तरफ, भीमन्ना ऑल इंडिया वीरशैव महासभा के पूर्व अध्यक्ष भीमन्ना खांद्रे कहते हैं कि वीरशैव और लिंगायतों में कोई अंतर नहीं है.”
कर्नाटक में लगभग 17 फीसदी लिंगायत हैं. अगर इन्हें धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक का दर्जा मिलता है तो समुदाय में आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण का फायदा मिलेगा. प्रदेश के कानून मंत्री टीबी जयचंद्र ने कहा, ”कैबिनेट ने साफ कर दिया है कि लिंगायत धर्म के लोगों को आरक्षण मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध और सिखों के आरक्षण की कीमत पर नहीं मिलेगा. यह फायदा अन्य धार्मिक और भाषिक अल्पसंख्यकों को मिलने वाले आरक्षण में से नहीं मिलेगा.”
लिंगायतों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्ज़ा दिलाने की लड़ाई शुरू करने वाले फोरम के एक पदाधिकारी ने कहा, ”शुरू में लिंगायतों के भीतर दलितों ने एक आंदोलन शुरू किया था. ऐसा इसलिए क्योंकि समुदाय के भीतर ऊंची जाति से लिंगायत बने लोगों को जो फायदा मिला वो दलितों को नहीं मिल सका था.”
इस विशेषज्ञ समिति के एक सदस्य का कहना है कि लिंगायतों में 99 जातियों में से आधे से ज्यादा दलित या पिछड़ी जातियों से हैं. लिंगायतों की पहली महिला जगद्गुरु माठे महादेवी ने कहा, ”इस फैसले का हम स्वागत करते हैं. हम लोगों की न केवल हिन्दुओं से अलग जाति है बल्कि हम धार्मिक रूप से भी अल्पसंख्यक हैं. इससे हमारे लोगों को फायदा होगा.”
माते महादेवी ने एक बार कहा था, “मैं भागवतजी से कहना चाहूंगी कि लिंगायत हिंदुओं में कोई जाति नहीं है. यह एक अलग धर्म है जिसे हम संवैधानिक दर्जा दिलाना चाह रहे हैं. अगर इसको मान्यता मिलती है तो भागवतजी को चिंता करने की जरूरत नहीं है क्योंकि हम हिंदू संस्कृति और विरासत के खिलाफ नहीं हैं.”
लिंगायतों का राजनीतिक रुझान
लिंगायत पारंपरिक रूप से बीजेपी का वोटबैंक रहा है. 1980 के दशक में लिंगायतों ने राज्य के नेता रामकृष्ण हेगड़े पर भरोसा किया था. बाद में लिंगायत कांग्रेस के वीरेंद्र पाटिल के भी साथ गए. 1989 में कांग्रेस की सरकार में पाटिल सीएम चुने गए, लेकिन राजीव गांधी ने पाटिल को एयरपोर्ट पर ही सीएम पद से हटा दिया था.
इसके बाद लिंगायत समुदाय ने कांग्रेस से दूरी बना ली. इसके बाद लिंगायत फिर से हेगड़े का समर्थन करने लगे. इसके बाद लिंगायतों ने बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा को अपना नेता चुना. जब बीजेपी ने येदियुरप्पा को सीएम पद से हटाया तो इस समुदाय ने बीजेपी से मुंह मोड़ लिया था.