नई दिल्ली : ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हिंदी की जानीमानी लेखिका कृष्णा सोबती का आज सुबह निधन हो गया। सोबती काफी दिनों से बीमार चल रही थीं। बताया जा रहा है कि उनका निधन सुबह साढ़े 8 बजे एक निजी अस्पताल में हुआ। सोबती हिंदी लेखन में निर्मल वर्मा और कृष्ण बलदैव वैद जैसे उपन्यासकारों की समकालीन थीं। जिंदगीनामा को उनका एक महाकाव्यात्मक नॉवल माना जाता है।
कृष्णा सोबती का जन्म गुजरात के उस हिस्से में हुआ था, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान में चला गया, उनकी आखिरी पुस्तकों में ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दोस्तान तक’, ‘मुक्तिबोध’, ‘लेखक का जनतंत्र’ और ‘मार्फत दिल्ली’ शामिल हैं। ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दोस्तान तक’ में उन्होंने विभाजन की यातना के बीच अपनी युवावस्था के दिनों के संघर्ष कहानी बताई है. उन्होंने इस किताब में विभाजन के समय के राजनीतिक हालात, रियासतों के विलय को लेकर उधेड़बुन, रियासतों के अंदर संघर्ष का भी जिक्र किया है। कृष्णा सोबती के कालजयी उपन्यासों, ‘सूरजमुखी अंधेरे के’, ‘दिलोदानिश’, ‘ऐ लड़की’, ‘समय सरगम’, ‘जैनी मेहरबान सिंह’, ‘हम हशमत’ में कथा साहित्य के शब्दों की बेमिसाल खूबसूरती देखने को मिलती है. ‘बुद्ध का कमंडल लद्दाख’ भी उनके लेखन का उत्कृष्ट उदाहरण है। कृष्णा सोबती ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित होने वाली हिंदी की 11वीं रचनाकार थीं, उन्हें साल 2017 में यह पुरस्कार दिया गया था, पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार 1965 में मलयालम के लेखक जी शंकर कुरुप को प्रदान किया गया था। सुमित्रानंदन पंत ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित होने वाले हिंदी के पहले रचनाकार थे।