एजेंसी/ हाल ही में 51 डिग्री तापमान से चर्चा में आए राजस्थान के फलोदी शहर की गर्मी और धूल-मिट्टी के बारे में जहां ज्यादा लोगों को जानकारी नहीं है, वही उस शहर में विद्युतीकरण की एक चुपचाप क्रांति हो रही है। आईआईटी मद्रास के कुछ इंजिनियरों ने इंजिनियर्स ने डीसी (डायरेक्ट करंट) का इस्तेमाल कर थार मरुस्थल के इस इलाके के घरों को रोशन करने का काम किया जिन्होंने कभी बिजली नहीं देखी थी।
इस इलाके में 58 खेड़ा बसे हुए हैं और इनमें से एक लिखमासर के किसान शैतनराम उन लोगों में है जिन्हें इस बिजली का लाभ मिला है। लिखमासर ने बताया, ‘उनके परिवार के पांच सदस्यों ने वाकई एक नया सवेरा देखा है।’ वह आईआईटी मद्रास की अगुवाई वाली नई प्रौद्योगिकी के शुरुआती लाभांवितों में से एक हैं। इस प्रौद्योगिकी के जरिए उन 30 करोड़ भारतीयों के जीवन को रोशन करने का वादा किया जा रहा है जिन तक बिजली की पहुंच दूर है।
वैसे पूरे भारत में एसी (ऑल्टरनेटिंग करंट) का इस्तेमाल करके बिजली पहुंचाई जाती है। ऐसे में जोधपुर जिले के रेतीले इलाके में बिजली आपूर्ति का एक नया तरीका विकसित बेहतर बनाया जा रहा है। आईआईटी मद्रास के निदेशक प्रफेसर भास्कर राममूर्ति ने इसे एक परिवर्तनकारी प्रौद्योगिकी कहा है। उन्होंने कहा, ‘यह कोई नया आविष्कार नहीं है लेकिन दुनिया ने घरों को रोशन करने के लिए डीसी बिजली का इस्तेमाल छोड़ दिया था।’
आज भारत में कुछ हटकर सोचने वाले आईआईटी मद्रास के लोग डीसी बिजली को दोबारा विकसित कर रहे हैं ताकि भारत की बिजली से जुड़ी जरुरतों को पूरा किया जा सके। बिजली की कमी से जुड़ी मुश्किलों को हल कर सकने वाले इस उपाय में बहुत सी संभावनाएं हैं और यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस वादे का प्रमुख चालक बल बन सकता है, जिसके तहत उन्होंने वर्ष 2022 तक हर घर में बिजली पहुंचाने की बात कही है।
यह खासतौर पर दूरदराज के गांव-खेड़ों में बिजली पहुंचाने का एक उपयुक्त माध्यम बन सकता है। यह भारतीय प्रौद्योगिकी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भी कमी लाती है और यह पर्यावरण के बेहद अनुकूल है। इसलिए उर्जा मंत्री पीयूष गोयल के नेतृत्व में विद्युत मंत्रालय आईआईटी मद्रास की इस प्रौद्योगिकी के क्षेत्रीय परीक्षण पर जोर दे रहा है। फलोदी में ऐसे कई खेड़े हैं, जो अब तक ग्रिड से नहीं जुड़े हैं और सूरज ढलने के बाद इनके लिए रोशनी का मतलब सिर्फ और सिर्फ धुंए वाला कैरोसीन लैंप ही होता है।
यहीं आईआईटी मद्रास अपनी ‘इन्वरटर विहीन बिजली आपूर्ति’ के जरिए हस्तक्षेप कर रहा है जिन घरों में बिजली नहीं है, उन्हें एक वर्ग मीटर का एक सोलर पैनल दिया जाता है। इस पैनल से पैदा होने वाली बिजली को चार लेड एसिड बैटरियों में संग्रहित किया जाता है। ऐसे में एसी बिजली पर चलने वाले उपकरण डीसी बिजली पर चल जाते हैं। सौर उर्जा से चलने वाले अधिकतर उपकरणों में बैटरी बैकअप वाले सिस्टम इन्वरटर लगाने पड़ते हैं, जो डीसी को एसी बिजली में बदलता है ताकि सामान्य बिजली उपकरण चलाए जा सकें। फलोदी ने यह ‘ऑफ ग्रिड’ व्यवस्था पूरी तरह ‘इन्वरटर विहीन तंत्र’ पर चलती है।
यह पूरे तंत्र को 25-30 प्रतिशत ज्यादा दक्ष बनाता है और बिजली उपभोग में लगभग 50 प्रतिशत की कमी लाता है। आईआईटी मद्रास से शिक्षित एवं फलोदी परियोजना की परियोजना प्रबंधक सुरभि महेश्वरी ने कहा कि पूरा ‘इन्वरटर विहीन तंत्र’ स्थापित करने में लगभग 25 हजार रुपए की लागत आती है।
उन्होंने बताया कि गर्मी के चरम के दौरान भी आईआईटी मद्रास का यह तंत्र खराब नहीं हुआ और यह स्थानीय लोगों तक जरुरी राहत पहुंचाने में कामयाब रहा। फलोदी के हर लाभांवित मकान को एक छत का पंखा, एक एलईडी ट्यूबलाइट, एक एलईडी बल्ब और फोन चार्ज करने का एक प्वाइंट मिला है। ये सभी डीसी से संचालित होते हैं।
महेश्वरी ने कहा कि अब तक 1800 घरों को सफलतापूर्वक जोड़ा जा चुका है और अन्य 2200 मकानों को अगले कुछ माह में जोड़ दिया जएगा। तुलनात्मक रुप से देखा जाए, तो यदि हर घर को ग्रिड बिजली से जोड़ा जाता तो प्रति मकान आने वाला खर्च एक लाख रुपए से ज्यादा होता।
आईआईटी मद्रास ने इस प्रौद्योगिकी पर दक्षता तो पिछले कुल साल में ही हासिल कर ली थी लेकिन इसका प्रमाण तब मिला जब वर्ष 2015 में चेन्नई में आई भीषण बाढ़ के दौरान इसने राज्य में काम करना शुरू किया। इलेक्ट्रिकल इंजिनियरिंग विभाग के प्रोफेसर अशोक झुनझुनवाला ने अपने घर पर 125 वाट का छोटा सौर तंत्र लगाया है।
उन्होंने बताया कि भारी बारिश के बाद चेन्नई स्थित आईआईटी परिसर में तीन दिन तक बिजली नहीं थी। सिर्फ एक ही घर में लगातार बिजली आ रही थी और वह घर उनका अपना था क्योंकि वहां उन्होंने ‘विकेंद्रीकृत डीसी सौर तंत्र’ लगाया हुआ था। उन्होंने कहा, ‘आईआईटी मद्रास द्वारा विकसित यह महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी बिजली का इस्तेमाल करने का बेहद दक्ष तरीका है।’
राजस्थान से संबंध रखने वाले झुनझुनवाला ने कहा कि फलोदी परियोजना बेहद संतोषजनक है क्योंकि यह भीषण गर्मी के चरम पर भी स्थानीय लोगों को एक बड़ा सहारा देती है।