अद्धयात्मदस्तक-विशेषस्तम्भ

धन की बात

आज ‘धन’ आया था मेरे पास। मैं उसको देखकर प्रसन्न हो गया, दुआ, सलाम के बाद मैंने उससे पूछा कि – कहाँ गायब हो गए थे भई? बहुत दिनों बाद दिखाई दिए? धन हंसते हुए बोला- मुझे कहां जाना है? मैं तो यहीं था और यहीं रहूँगा। जाने वाले तो तुम हो। ये दुनिया मेरा घर है श्रीमान, मैं यहाँ का परमानेंट वासी हूँ और आप यहां पर अप्रवासी हैं। इसलिए पूछना तो मुझे चाहिए कि आप कहां घूम रहे थे? जो इतने दिनों तक मेरी सुध ना ली?

आशुतोष राणा की कलम से…

उसकी स्पष्टवादिता से मुझे थोड़ी तकलीफ़ हुई, क्योंकि हँसते हुए उसने मुझे यह एहसास करा दिया कि जिस संसार को मैं लोभवश अपना घर समझ बैठा हूँ, दरअसल वह मेरा नहीं उसका घर है। वो मालिक है और मैं यहां पर मात्र एक मेहमान हूं। मैंने झेंपते हुए कहा- तुम मुझे छोड़ कर चले गए, तो मैं तुम्हारी ही खोज में बाहर भटकता रहा। तुम्हारे घर में-तुम्हारे बिना रहते हुए मुझे डर लग रहा था। सोचा कि अभी सूरज चमक रहा है, तो रोशनी रहते तुम्हें ढूंढ कर घर ले आऊं ताकि दिन ढल जाने के बाद मुझे डर ना लगे। परदेश में लोकल आदमी साथ रहे तो, रात्रि के अंधकार में आड़े वक्त पर वही काम में आता है।
मेरे कष्ट को वो समझ गया और एक अच्छे मेजबान का फर्ज निभाते हुए विनम्रता से मुझसे बोला-बुरा मत मानो भाई गलती तुम्हारी नहीं मेरे आतिथ्य भाव की है क्योंकि मैंने अपने व्यवहार से तुम्हें कभी यह महसूस ही नहीं होने दिया कि तुम संसार के मालिक नहीं संसार में मेहमान हो। मेरी उपस्थिति से तुम्हारे अंदर स्वामी होने का भाव आ गया, लोग तुमको कभी ‘धनपती’ कभी ‘लक्ष्मीपति’ कहकर पुकारने लगे, इससे तुम मुझे अपना सेवक, अपना दास समझने लगे, और मैं भी एक अच्छे मेजबान के नाते तुम्हारे हर आदेश का पालन करने लगा। क्योंकि यह मेजबान का कर्तव्य होता है कि वह अपने अतिथि की हर जायज-नाजायज इच्छा की पूर्ति करे, अतिथि देवो भव। और फिर जोर से ठहाका मारते हुए बोला लेकिन कमाल इस बात का है कि मेरी सेवा के बदले तुम लोगों ने मुझे मेरे ही घर में, मेरी ही दुनिया में बदनाम कर दिया। कर्म तुम करते हो और लोग दोष मुझे देते हैं। अहंकार तुम्हारा है लेकिन लोग कहते हैं कि देखो धन का कितना अहंकार है। आतंक तुम पैदा करते हो और लोग उसके लिए मुझे दोषी ठहराते हैं। अनाचार, भ्रष्टाचार, व्यभिचार तुम करते हो और लोग इसे मेरा दुर्गुण बताने लगते हैं। लालच तुम करते हो और लोग कहते हैं कि देखो धन की कितनी लालच है? मन तुम्हारा काला होता है और आश्चर्य इस बात का है कि तुम लोग धन को काला सिद्ध कर देते हो? एक दूसरे को सुधारने के लिए तुम लोग मुझे बिगाड़ने लगते हो, कभी मेरा रूप-आकार बदल देते हो, तो कभी मुझे निरस्त और खारिज कर देते हो। उस समय तुम ये भूल जाते हो कि मुझे बिगाड़ते ही तुम सब बिगड़ ही नहीं बर्बाद भी हो जाओगे। तुम लोगों ने अपनी सारी बुराइयों का कारण मुझे बना दिया।
मैं धन की बात से पूर्णत: सहमत था, मैंने लज्जित होते हुए उससे कहा, बंधु अपने और अपनों के द्वारा तुम्हारे प्रति किए गए सभी दुव्र्यवहारों के लिए तुमसे क्षमा मांगता हूं।
तुम सत्य कह रहे हो तुम इसी संसार में पैदा होते हो इसलिए यहीं रह जाते हो।
अब देखो ना हम लोगों की मूर्खता! हम तुम्हारे घर आते हैं लेकिन हमेशा ये आरोप लगाते हैं कि तुम हमारे घर नहीं आ रहे?
धन बोला-तुम आदमी समझदार जान पड़ते हो, इसलिए तुमसे बात करने में आनंद मिल रहा है। फिर एक शरारती सी मुस्कुराहट चेहरे पर लाते हुए बोला-तुमको यदि मैं ये कहूँ कि तुम अप्रवासी इंसान मूर्ख हो तो बुरा मत मानना, इसका कारण ये है कि नश्वर तुम लोग हो किंतु अपनी मूर्खता के कारण तुम लोग मुझे नश्वर कहते हो जबकि ना मेरा मरण होता है और ना ही क्षरण। मैं जहां था वहीं रहता हूं बस मुझे भोगने वाले हाथ बदलते रहते हैं। अपनी नश्वरता को तुम लोग मुझ पर आरोपित करते हो। याद रखो- मैं नश्वर नहीं इस जगत् का ईश्वर हूं। मुझे धन की इस घोषणा में उसका अहंकार ध्वनित हुआ। मुझे अफसोस हुआ कि धन अपनी तुलना ईश्वर से कैसे कर सकता है?
धन मेरे मनोभावों को समझ गया और मुस्कुराते हुए बोला- मैं सदैव और सर्वत्र वर्तमान रहता हूँ, मैं तुम्हारे विनाश का कारण भी हूँ और विकास का कारण भी हूँ। मैं विपत्तिकारक भी हूँ विपत्तिनिवारक भी। मैं सृजन भी करता हूँ और विध्वंस भी। मैं पोषक भी हूँ और शोषक भी। मैं तारक भी हूँ और मारक भी। इस संसार में लोग मेरी तरफ भागते हैं या मुझसे दूर भागते हैं। संसार में लोग या तो मुझे पकड़ना चाहते हैं या मेरी पकड़ से छूटना चाहते हैं। तुम लोग या तो मुझे अर्जित करने में जीवन बिता देते हो या मुझे विसर्जित करने में जान लगा देते हो। मैं धन तुम्हारे मन की बात समझता हूं लेकिन तुम्हारा मन कभी धन की बात नहीं समझ सकता इसलिए मेरे ईश्वरत्व की घोषणा को मेरा अहंकार नहीं समझो यह मेरी वास्तविकता है।
मैं धन के इन वक्तव्यों से आतंकित हो गया मुझे लगा कि धन की यह बात मेरे मन में परमात्मा के प्रति अगाध श्रृद्धा को खंडित करने की कुचेष्टा है, मैं खिन्नता से भरा हुआ बोला- मैं यह मानता हूँ कि संसार में आप ईश्वर से कम नहीं हैं, लेकिन आप इस संसार के ईश्वर नहीं हैं। क्योंकि ईश्वर कभी भी अपने सामथ्र्य की घोषणा नहीं करता, अपनी शक्तियों का बखान अहंकार ही कहलाता है। और ईश्वर सब कुछ हो सकता है लेकिन अहंकारी नहीं हो सकता।
धन ने निर्विकार भाव से अपनी आँखें मेरी आँखों में गड़ा दीं, मैं सिहर गया, धन मुझसे बोला- अपनी शक्ति का अपनी क्षमता से अधिक बखान अहंकार कहलाता है। हर समय सिर्फ शक्ति का बखान अहंकार कहलाता है। शक्ति का भ्रम पैदा करना अहंकार कहलाता है। किंतु अपने गुण-दोषों की चर्चा अहंकार नहीं निरअहंकारिता की श्रेणी में आता है। मैं बिना किसी भेदभाव के सबको उपलब्ध हो सकता हूं। किंतु मुझे प्राप्त कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, मुझे पाने के बाद मुझे साधना-सम्भालना तुम्हें सीखना होगा। परमात्मा, पैसा, प्रसिद्धि प्रशंसा, को चाहे हिरण्यकश्यप हो या प्रह्लाद, रावण हो या राम, कंस हो या कृष्ण कोई भी प्राप्त कर सकता है, लेकिन जिन्होंने मुझे साधना सीख लिया मेरा सदुपयोग कर लिया, मुझे संचालित किया वे श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्री प्रह्लाद होकर परमात्मा हो गए और जिन्होंने मुझे प्राप्त करने के बाद मेरा दुरुपयोग किया और मुझसे संचालित हुए वे आज पापात्मा के नाम से जाने जाते हैं। इसलिए मेरा दायित्व है कि मैं तुम्हें भ्रम से मुक्त करूँ। और भ्रम मुक्त करने के लिए अपनी वास्तविकता की घोषणा अहंकार की श्रेणी में नहीं आती।
मैं धन की बात सुन शांति और श्रद्धा से भर गया हम बिना पलक झपकाए एक दूसरे को देखते रहे। फिर बेहद धीमे स्वर में धन मुझसे बोला, एक राज की बात बताता हूँ अपने बारे में।
मैं मनुष्य की क्षमता में विस्तार और उसके व्यक्तित्व के परिष्कार में विश्वास करता हूँ। मैं उपयोगिता का पक्षधर हूँ, या तो मनुष्य समय रहते मेरा सदुपयोग कर अपना परिष्कार कर ले, नहीं तो मैं मनुष्य का उपयोग अपने विस्तार के लिए करने लगूंगा। फिर वो निन्यानबे के फेर में पड़ जायेगा, उसके हाथ कुछ नहीं लगेगा। यदि मनुष्य मुझे बंधक बना लेगा, अपने पास रोक कर मुझे सड़ाने का प्रयास करेगा तो मैं मनुष्य को बंधक बनाकर, उसे सड़ा ही नहीं गड़ा भी दूँगा। याद रखो जिस भी मनुष्य ने मुझ धन-सम्पत्ति को अपना दास बनाने का प्रयास किया मैंने उसे अपने चंगुल में ऐसा फसाया कि फिर वो मेरा मालिक होते हुए भी संसार में धन के ग़ुलाम के नाम से जाना गया। तुम लोग यदि मुझे स्वतंत्रता दोगे तो मैं तुम्हारी स्वतंत्रता में सहायक होऊंगा।
मेरा उपयोग किसी को अपना ग़ुलाम या दास बनाने के लिए मत करो, मुझे अपनी स्वच्छंदता का नहीं संसार की स्वतंत्रता का हेतु बनाओ। विष्णु का अर्थ होता है जो विश्व के प्रत्येक अणु में वास करता है, और लक्ष्मी का अर्थ है अपने लक्ष्य तक पहुंचाने का साधन। तो विश्व के प्रत्येक अणु का कल्याण तुम्हारा लक्ष्य है, और मैं तुम्हारी लक्ष्यपूर्ति का साधन।
मैं जो ईश्वर हूँ, मुझे नश्वर मानने के कारण ही तुम लोग मेरा दुरुपयोग करते हो, और तुम जो नश्वर हो उसे ईश्वर मान बैठने के कारण तुम तुम्हारा ही दुरुपयोग करते हो। यदि तुम मुझे ईश्वर मानते और स्वयं को नश्वर तो मुझे विश्वास है कि हम दोनों विष्णु याने विश्व के प्रत्येक अणु के कल्याण के कारक ही नहीं कारण भी होते। यह कहते हुए धन मुझसे बोला कि भाई मैंने अपने मन की बात तुमसे कह दी, अब तुम जानो और तुम्हारा काम। मुझे अब दूसरी जगह भी जाना है, अपना और अपनों का ख़याल रखना। धन चला गया, किंतु धन की बात सुनकर, उसके जाने के बाद भी मैं अपने आपको पहले से अधिक सम्पन्न और समृद्ध महसूस कर रहा था। 
(लेखक प्रतिष्ठित फिल्म कलाकार एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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