निहलानी नहीं, सेंसर व्यवस्था बदलनी ज़रूरी
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ अगर पहलाज निहलानी को केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) के चेयरपर्सन पद से हटाया जा रहा है, तो निश्चित तौर पर उन्हें हटाया ही जाना चाहिए और इससे उन फ़िल्म निर्माताओं को क्षणिक राहत मिलेगी जो निहलानी के रुढ़िवादी नज़रिए की आलोचना कर रहे थे.
हालांकि उन्हें हटाने से यह गारंटी नहीं मिलेगी कि रूढ़िवादी मानसिकता को भी बाहर का रास्ता दिखाया गया है. मौजूदा भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार किसी उदारवादी को सेंसर बोर्ड की कमान सौंपे, इसकी संभावना कम ही है.
वैसे सेंसर बोर्ड का उदारवादी प्रमुख भी भारत में फ़िल्मों को प्रमाण पत्र देने की लंबे समय से चल रही व्यवस्था में उसी धारणा के तहत काम करने पर मजबूर होगा जो यह मानती है कि व्यस्क नहीं जानते कि उनके लिए अच्छा क्या है.
सेंसर बोर्ड की व्यवस्था की आलोचना से पहले वह कैसे काम करती है, इसे समझना महत्वपूर्ण है. भारत में किसी भी फ़िल्म को व्यावसायिक तौर पर रिलीज़ करने से पहले सेंसर बोर्ड से रेटिंग प्रमाणपत्र लेना ज़रूरी है.
अगर किसी फ़िल्म को प्रमाणपत्र देने से मना किया जाता है तो उसे सिनेमा हॉल में व्यावसायिक तौर पर प्रदर्शित नहीं किया जा सकता, यानी एक तरह से उस फ़िल्म पर पाबंदी लग जाती है.
सेंसर बोर्ड की रेटिंग ये होती हैं- ‘यू’- सार्वजनिक प्रदर्शन पर कोई प्रतिबंध नहीं, ‘यूए’- सार्वजनिक प्रदर्शन पर कोई प्रतिबंध नहीं, लेकिन 12 साल से कम उम्र वालों के माता-पिता के लिए चेतावनी, ‘ए’- केवल व्यस्कों के लिए, ‘एस’- विशेष दर्शकों मसलन डॉक्टरों या वैज्ञानिकों के लिए प्रतिबंधित.
साफ़ है, सेंसर बोर्ड की रेटिंग व्यवस्था 12 से 18 साल की उम्र वालों को परिपक्वता के पैमाने पर एक समान मानती है. यही नहीं, अधिकारी फ़िल्म को ‘ए’ रेटिंग देने के बाद भी उसमें संशोधन की मांग कर सकते हैं.
दूसरी ओर, अमरीकी व्यवस्था में निर्माता स्वयं अपनी फ़िल्मों को रेटिंग के लिए देते हैं जबकि वहां क़ानूनी तौर पर ऐसा करना ज़रूरी नहीं. वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि ज़्यादातर सिनेमा हॉल ये रेटिंग देखते हैं. इनका उद्देश्य माता-पिता को गाइड करना होता है न कि वयस्कों पर अंकुश लगाना. वे नाबालिग़ दर्शकों की परिपक्वता के स्तर को लेकर कहीं ज़्यादा ख्याल रखते हैं.ये रेटिंग इस तरह से होती है- ‘जी’- सामान्य, ‘पीजी’- माता-पिता की देखरेख की अनुशंसा क्योंकि फ़िल्म में कुछ ऐसे दृश्य हो सकते हैं, जिसे माता-पिता अपने बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं समझते, ‘पीजी-13’- 13 साल से कम उम्र के बच्चों को दिखाने से पहले माता-पिता को फ़िल्म ख़ुद से देखने की सलाह, ‘आर’- माता-पिता या किसी वयस्क अभिभावक के बिना 17 साल से कम उम्र के दर्शकों के लिए मान्य नहीं, ‘एनसी-17’- 17 साल और उससे कम उम्र के दर्शकों को अनुमति नहीं.
भारतीय सेंसर व्यवस्था में पहले पड़ाव पर फ़िल्म देखने वाली जांच समिति होती है देशभर के विभिन्न केंद्रों पर फ़िल्म देखती है, उस पर चर्चा करती है और रेटिंग देती है. यह ज़्यादातर एक ही बैठक में हो जाता है.
जब कोई निर्माता जांच समिति के फ़ैसले को चुनौती देता है तब मामला केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड के पास पहुंचता है. कागज़ी तौर पर, सेंसर बोर्ड में केंद्र सरकार के चुने नामचीन लोग होते हैं. इनकी सलाह पर ही जांच समितियां बनती हैं.
व्यवहारिक तौर पर सेंसर बोर्ड और जांच समितियों में सरकारें अपने लोगों को नियुक्त करती रही हैं. सेंसर बोर्ड के मुखिया तौर पर निहलानी की नियुक्ति का मज़ाक इसलिए उड़ाया गया क्योंकि आरएसएस से उनकी नज़दीकी के चलते उनके दोयम दर्जे के फ़िल्मकार होने के पहलू को तूल दिया गया.
सालों से जांच समितियों में ऐसे लोग रहे हैं जिन्हें सिनेमा के बारे में कोई ख़ास समझ नहीं होती, पर वे खुद को भारत का नैतिक अभिभावक मानने लगते हैं.
इससे पहले सेंसर बोर्ड (जिसे सबसे उदारवादी बोर्ड कह सकते हैं) की प्रमुख लीला सैमसन को भी जांच समितियों में संकीर्ण लोगों के चलते मुश्किलों का सामना करना पड़ा. हालांकि एक अंतर ये है कि उदारवादी बोर्ड, जांच समितियों के अतार्किक फ़ैसलों को चुनौती देने वाले फ़िल्म निर्माताओं की अपील पर सहानुभूति से विचार कर सकता है.
सहानुभूति या फिर कलात्मकता को लेकर बौद्धिक समझ की उम्मीद निहलानी जैसी क्षमता के निर्माताओं से कहां की जा सकती है, जो इस महीने की शुरुआत में नरेंद्र मोदी के प्रचार वाले कुख्यात हो चुके वीडियो को दिखाने का फ़ैसला ले सकता हो या फिर बीते सप्ताह बॉन्ड सीरीज़ की फ़िल्म ‘स्पेक्टर’ में चुंबन के दृश्य हटाने को सही ठहरा सकता हो.
मौजूदा भारतीय व्यवस्था में चीज़ें मनमाने अंदाज़ में होती हैं. राजनीतिक जोड़तोड़ के अलावा रुढ़िवादी रवैया भी है और लोगों में सिनेमा को लेकर अज्ञानता भी ख़ूब है.
दरअसल देश को एक स्वतंत्र रेटिंग एजेंसी की ज़रूरत है जो ज़िम्मेदार अभिभावकों और फ़िल्म इंडस्ट्री को साझेदार के तौर पर देख सके. इसका एक विकल्प यह हो सकता है कि हमें ऐसी सरकार चाहिए जो राजनीतिक नियुक्ति के वक़्त कम बेशर्मी दिखाए.
सेंसर बोर्ड के चेयरपर्सन के तौर पर पहलाज निहलानी का चयन अब तक का सबसे ख़राब उदाहरण है.