पैसा लेकर मौत की बिक्री
प्रसंगवश : ज्ञानेन्द्र शर्मा
कई हिट फिल्में देने वाले फिल्म स्टार अजय देवगन एक पान मसाला कम्पनी का विज्ञापन करते हैं। मसाले का एक पाउच वे मुंह में भरते हैं और ऐसा पोज देते हैं कि मानो वे उस मसाले को चबाने जा रहे हैं। फिर उसकी प्रशंसा में कहते हैं कि उसके दाने-दाने में केसर है। इसके उन्हें ढेर सारे पैसे मिलते हैं- शायद करोड़ों में। ऐसे ही एक अन्य पान मसाले का विज्ञापन पुराने स्टार गोविंदा करते हैं। वे भी उस पान मसाले की तारीफ करते हैं क्योंकि इसके उन्हें भी पैसे मिलते हैं।
जाने-माने फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन एक खाद्य पदार्थ का विज्ञापन करते हैं जिसके बारे में तरह तरह की वैज्ञानिक रिपोर्ट आ रही हैं जो इसमें खतरनाक पदार्थों की मौजूदगी मान रही हैं और कम्पनी उसकी सफाई भी दे रही है। वे एक तेल का भी विज्ञापन करते हैं जिसके प्रयोग के बारे में भी शंकाएं उठाई जा रही हैं। सलमान खान एक कोल्ड ड्रिंक का विज्ञापन करते हुए कहते हैं कि आज कुछ तूफानी करने का मन करता है। पता नहीं फुटपाथ पर गाड़ी चलाने को वे तूफानी कहते हैं, काले हिरन को मारने को तूफानी कहते हैं या किसी और चीज को। भारतीय क्रिकेट के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी भी एक साफ्ट ड्रिंक का विज्ञापन करते हैं। कुछ क्रिकेट धुरंधर एक बियर का विज्ञापन भी करते हैं। कई और भी बड़े छोटे स्टार तरह तरह के उत्पादों का विज्ञापन करते हैं और इनके जरिए फिल्मों और क्रिकेट के खेल से भी ज्यादा पैसा कमा लेते हैं।
पैसा कमाने में कोई हर्ज नहीं है। ये तो हर किसी का मौलिक अधिकार है लेकिन सवाल यह है कि लाखों लाख लोगों को धोखे में रखकर कमाया गया पैसा क्या छल-कपट से कमाया गया धन नहीं है? अजय देवगन, गोविंदा और पान मसाले का विज्ञापन करने व उससे भारी धन कमाने वालों पर सीधा आरोप यह लगता है कि वे पैसा लेकर पर्दे पर मौत बेच रहे हैं और इसके लिए कम्पनियों से भारी रकम ले रहे हैं। देश भर में पान मसाले का प्रचलन पिछले डेढ़ दशक में बेतहाशा बढ़ा है। छोटे-छोटे बच्चे अपने पाकेट मनी से पान मसाला खरीद रहे हैं और उसकी लत लगा रहे हैं। अजय देवगन और गोविंदा जैसे बड़े स्टार इसमें उनकी मदद कर रहे हैं। डाक्टर और कई स्वयंसेवी संस्थान इसके खतरे गिनाते हैं। कैंसर भी बढ़ रहा है लेकिन किसी को परवाह नहीं- कम से कम तब तक तो नहीं जब तक कि डाक्टर उन्हें मुंह का आपरेशन करने की सलाह नहीं दे देते। सरकार ने तम्बाकू के गुटखे पर प्रतिबंध लगाया है लेकिन सादा मसाला और अलग से तम्बाकू के पाउच पर कोई बैन नहीं है। लोग पान मसाला और तम्बाकू के पाउच अलग अलग खरीदते हैं, फिर दोनों को मिलाकर खाते हैं। वैसे भी तम्बाकू पर लगा प्रतिबंध पूरी तरह निष्प्रभावी है। नतीजा यह है कि सड़कों पर हाथ में मोबाइल और मुंह में गुटखा दबाए हजारों हजार लोग आसानी से दिखते हैं। वे मोटर साइकिल, गाड़ी और यहां तक कि साइकिल चलाते समय खुलेआम मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं और जब मोबाइल पर लम्बी बात करनी होती है तो वहीं सड़क पर गुटखा थूकते हुए आगे बढ़ जाते हैं।
तम्बाकू और शराब के विज्ञापनों पर रोक है लेकिन शराब निर्माताओं ने अपनी शराब के नाम पर ही सोडा या कथित मिनरल वाटर बनाकर उसका ब्रांड नाम बेचने की तरकीब खोजी हुई है और तम्बाकू के गुटखे वाले तो अपने सादे गुटखों का विज्ञापन खुले आम दे ही रहे हैं। इस बाजारी चीटिंग के प्रति सरकारी एजेंसियां बेखबर हैं। या यह कहिए कि जानबूझकर आंखें बंद किए हुए हैं क्योंकि इन कम्पनियों की पहुंच बहुत ऊपर तक है।
ऐसा क्यों नहीं हो सकता है कि अजय देवगन अपनी पत्नी और बच्चों के लिए वह पान मसाला खाना अनिवार्य कर दें जिसका वे विज्ञापन करते हैं। वे खुद भी नियमित रूप से उसका सेवन क्यों नहीं करते हैं? अपने घर की हर मेज पर वे पान मसाले का डिब्बा रख दें, जो उन्हें सम्बंधित कम्पनी नि:शुल्क दे भी देगी, ताकि परिवार वाले और रिश्तेदार आते जाते, उसे मुंह में दबा सकें। क्या अजय देवगन और ऐसे ही स्टारों के लिए यह अनिवार्य नहीं होना चाहिए कि वे जिस खाद्य पदार्थ- खासकर पान मसाला, दूसरे खाद्य पदार्थ और कोल्ड ड्रिंक का विज्ञापन करें, उसका सेवन वे खुद भी करें और अपने बच्चों को भी कराएं? क्या जिन चीजों का विज्ञापन अमिताभ बच्चन करते हैं, वे उसे अपनी पोती को खिलाएंगे, वह ठंडा तेल अपनी बहू को बालों में लगाने को मजबूर करेंगे जिसके सेवन से टेंशन, पेंशन लेने चला जाता है, जिसका करोड़ों रुपए में वे विज्ञापन करते हैें? क्या सलमान खान उस कोल्ड ड्रिंक को पीकर, जिसका वे विज्ञापन करते हैं, सबसे पहले अपने ही घर में कुछ तूफानी करेंगे? शुरुआत इनके घर से ही क्यों नहीं होनी चाहिए? जो बच्चे बड़े स्टारों के विज्ञापन से प्रभावित होकर पान मसाला या ऐसे ही दूसरी वस्तुएं खरीदकर इस्तेमाल कर रहे हैं, इनकी कतार में सबसे आगे इन्हीं स्टारों के बच्चे क्यों नहीं लगाए जाने चाहिए?
अपने जमाने की ड्रीम गर्ल हेमामालिनी एक वाटर फिल्टर का विज्ञापन करती हैं। हेमा मालिनी एक सांसद भी हैं। ऐसा ही एक दूसरे सांसद सचिन तेंदुलकर भी करते हैं। सवाल यह उठता है कि तमाम वाटर फिल्टरों की होड़ में क्या किसी सांसद को पैसे लेकर किसी खास फिल्टर का विज्ञापन करना चाहिए? यह माना जाता है कि संसद में जनता का प्रतिनिधित्व करने वालों को सभी को समान दृष्टि से देखना चाहिए। क्या इस पैमाने पर हेमामालिनी और सचिन खरे उतरते हैं? सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में यह व्यवस्था दी है कि चुनाव जीतने के पहले भी और बाद में भी कोई राजनीतिक नेता सरकारी ठेके नहीं ले सकता। क्या ऐसी ही रोक निजी ठेकों पर लागू नहीं होनी चाहिए?
अब इनकी भी जाति पहचानिए
केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह कहते हैं कि अकबर यदि ग्रेट थे तो महाराणा प्रताप को ग्रेटेस्ट क्यों नहीं माना जाता। वे शायद ठीक कहते हैं लेकिन कुछ राजनीतिक लोग तो भारत के तमाम बड़े-बड़े सपूतोें को उनकी जाति के कटघरे में खड़ा देखना पसंद करते हैं, उनकी पहचान उनकी जाति से कराना चाहते हैं, उनका परिचय उनकी बिरादरी से कराना चाहते हैं। जरा गौर करिए:-
पिछली 9 मई को महाराणा प्रताप की जयंती को उत्तर प्रदेश सरकार ने सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की। लेकिन जिस तरह से इसके स्वागत में बैनर-होर्डिंग लगे, उनमें जातीयता की बू आ रही थी। और राणा प्रताप ही क्योंकि तमाम और महान नेताओं को इसी संकीर्णता में लपेट दिया गया।
17 अप्रैल को पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर की जयंती पर सार्वजनिक अवकाश की घोषणा कर दी गई। इसके समर्थन में भी वैसे ही पोस्टर लगे। 5 अप्रैल को निषाद राज जयंती, 26 अप्रैल को अजमेर शरीफ उर्स, 24 जून को कर्पूरी ठाकुर जयंती, 6 दिसम्बर को अम्बेडकर निर्वाण दिवस पर सार्वजनिक अवकाश घोषित किए गए। वर्तमान सरकार ने ऐसे कुल 6 अवकाशों की घोषणा की।
विश्वनाथ प्रताप सिंह जब कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री बने थे तो उन्हें लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र को सम्बोधित करने का गौरव हासिल हुआ था। उन्होंने अपने उद्बोधन में एक घोषणा यह भी की थी कि मोहम्मद साहब के जन्मदिवस पर सार्वजनिक अवकाश रहेगा। यह पहला मौका था जब लालकिले के जलसे में एक छुट्टी की घोषणा की गई थी। जो काम एक छोटी सी अधिसूचना से किया जा सकता था, उसके लिए लालकिले की प्रचीर का इस्तेमाल किया गया था। यह इसलिए कि इसमें राजनीतिक फायदे निहित थे। तो हे महापुरुषों, तुम्हारी पहचान अब तुम्हारी बिरादरी से होगी और तुम्हारा सम्मान सरकारी छुट्टी से!
चन्द्रगुप्त मौर्य से गंगू तेली तक
क्या आप जानते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक तेली जाति के थे? शायद नहीं ही मालूम होगा लेकिन यह तो आप जानते ही होंगे कि अपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तेली जाति के हैं, जो पिछड़ी जातियों में गिनी जाती है। और नहीं भी जानते हैं तो दूरदर्शन जल्दी ही यह सारगर्भित जानकारी आपको देगा। थोड़ा सा इंतजार करिए। दरअसल मोदी जी तेलियों में घांची बिरादरी के हैं। वैसे इससे जुड़े ये रहस्योद्घाटन विभिन्न टी वी चैनलों पर चलने वाले किन्हीं सीरियल्स से नहीं बल्कि अगले कुछ ही समय में दूरदर्शन से प्रसारित होने वाले सीरियल: ‘दिए जलते हैं’ की पृष्ठभूमि से हुए हैं। अंग्रेजी के एक प्रमुख दैनिक के अनुसार दूरदर्शन ने इस प्रस्तावित सीरियल को मंजूरी दे दी है। यह सीरियल विशाल आकार का होगा, पहले चरण में इसके 128 एपीसोड होंगे और यह दस साल तक दूरदर्शन के पर्दे की शोभा बढ़ाते रहेंगे। सीरियल का मुहूरत पिछली 4 मई को गुजरात के गांधीनगर में हुआ। इसमें नरेन्द्र मोदी के बड़े भाई सोमभाई मोदी मौजूद थे। मुहूरत शाट में एक युवा तेली लड़के को उसकी मां बताती है कि उसकी बिरादरी का कितना यशस्वी इतिहास है। वह उसके हीरो चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक और मोदी जी के बारे में बताती हैं।
सीरियल के निर्माता पुणे के सुरेश चौधरी का कहना है कि सीरियल अक्टूबर से दूरदर्शन पर दिखाया जाएगा और इसमें घांची-तेली बिरादरी का इतिहास उसके महान नेताओं के जीवन परिचय के माध्यम से दिखाया जाएगा। सीरियल के एक हिस्से की शूटिंग नरेन्द्र मोदी के गांव बड़नगर में होगी। मोदी जी के बड़े भाई कहते हैं: सीरियल हमारे पिछले इतिहास और उसके महान नायकों के बारे में है। इसमें सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक के अलावा गंगू तेली तक के बारे में बताया जाएगा। इसमें नरेन्द्र मोदी का जीवन परिचय भी दिखाया जायगा। अभी यह तय नहीं हुआ है कि सीरियल में नरेन्द्र मोदी की भूमिका, उनका रोल कौन करेगा।
यह सर्वथा खोज का विषय होना चाहिए कि इतना बड़ा सीरियल इतनी आसानी से दूरदर्शन से कैसे मंजूर हो गया। तमाम लेखक, निर्माता-निर्देशक दूरदर्शन के मुख्यालय मंडी हाउस में अपने सीरियल्स की मंजूरी के लिए महीनों और कभी-कभी तो सालों चक्कर लगाते हैं लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं होती। कहा भी जाता है कि मंडी हाउस सिफारिशों की मंडी है, यहां जिसकी तगड़ी सिफारिश और दूसरी तिकड़में काम आ जाती हैं, उनके सीरियल मंजूर हो जाते हैं। हर कोई सुरेश चौधरी नहीं बन सकता, जो कहते हैं कि वे नरेन्द्र मोदी जी से तब से परिचित हैं, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। एक प्रमुख लेखक और पत्रकार कहते हैं कि नई सरकार के आने के बाद उन्होंने समाज के दोहरेपन के बारे में एक सीरियल की रूपरेखा दूरदर्शन को प्रस्तुत की थी और उसकी प्रति प्रधानमंत्री को भी भेजी थी लेकिन आठ महीने हो गए, उसकी प्राप्ति की सूचना तक नहीं आई जबकि आकाशवाणी पर रोज सुबह खुद प्रधानमंत्री लोगों से कहते हैं कि अपनी बात के बारे में एक चिट्ठी भी लिख देंगे तो वह उन तक पहुंच जाएगी और वे उस पर जरूर गंभीरता से विचार करेंगे।
एक जमाना था जब भारतीय जनसंघ और फिर उसकी उत्तराधिकारी भारतीय जनता पार्टी गला फाड़कर चिल्लाती थी कि दूरदर्शन और आकाशावाणी को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करो और स्वायत्तशासी बनाओ। लेकिन यह तो तब की बात थी जब भाजपा को दूर दूर तक सत्ता की भनक नहीं थी लेकिन अब? अब तो पूर्ण सत्ता उनके हाथ में है और इसके साथ ही दूरदर्शन और आकाश वाणी पर भी उनका कब्जा है। अब इस सरकारी मीडिया पर आर0एस0एस0 प्रमुख के भाषण भी दिखाए जाते हैं, उनके लोग उसका सीधा नियंत्रण अपने हाथ में रखे हुए हैं और पहले किसी भी समय की तुलना में आज वह सत्तारूढ़ पार्टी का कहीं ज्यादा बड़ा भोंपू है।
पिछड़ों में पिछडे़
पिछड़ों में पिछडे़ लोगों को उनका पूरा हक नहीं मिलने पर एक बार फिर बहस छिड़ने को है और इस बार बहस का दायरा व्यापक हो सकता है। पिछड़ा वर्ग राष्ट्रीय आयोग (नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लासिज) ने सिफारिश की है कि पिछडा़ वर्ग की पिछड़ी जातियों की केन्द्रीय सूची को तीन वर्गों में बांट दिया जाय और 27 प्रतिशत आरक्षण को उनके बीच फिर से बांटा जाय। आयोग ने यह इस दृष्टि से किया है कि पिछड़ों में अगड़े वर्ग वे सारे अधिकार और लाभ अपने हिस्से में न करते रहें जिन पर अपेक्षाकृत अधिक पिछड़े लोगों का हक बनता है। यह लगातार महसूस किया जाता रहा है कि ओ0बी0सी0 में सर्वाधिक पिछड़ा वर्ग के लोग सम्पन्न या अगड़ों से मुकाबले नहीं कर पाते। उनकी स्थिति आज वैसी ही है जैसे मंडल आयोग के पहले सम्पूर्ण पिछड़ा वर्ग सवर्ण जातियों के सामने नहीं टिक पाता था। इसके चलते ओ0बी0सी0 कैटेगरी को जो भी लाभ अनुमन्य रहे हैं उनका पूरा लाभ पिछड़ों में अगड़े अपने हिस्से में करते रहे हैं और सर्वाधिक पिछड़े टापते रहे हैं।
आयोग ने यह प्रस्ताव किया है कि सम्पूर्ण पिछड़े वर्ग को उनकी सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक दशा को देखते हुए तीन अलग अलग खानों में बांट दिया जाय और 27 प्रतिशत आरक्षण का लाभ इन्हीं तीन के बीच उनकी आबादी के अनुपात में अलग अलग सुनिश्चित कर दिया जाय। आयोग ने इस बारे में केन्द्रीय सरकार की मंजूरी मांगी है। यदि केन्द्र की सरकार राजनीतिक इच्छा-शक्ति दिखा पाई तो यह बहुमूल्य सुझाव हकीकत में तब्दील हो सकता है।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘केवल जाति ही पिछड़ेपन का आकलन करने का आधार नहीं हो सकती’। उसने सरकार से कहा कि पिछड़ापन के मापदण्ड तय करने के लिए बेहतर तरीके खोजे जाएं। 1979 में गठित किए गए मंडल आयोग की रिपोर्ट को विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार द्वारा अगस्त 1990 में लागू किए जाने के बाद से इस मामले पर जमकर राजनीति हुई है। तमाम राजनीतिकों की अगुवाई में विभिन्न जातियों को आरक्षण देने की खूब वकालत हुई और इसे लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने 1992 में क्रीमी लेयर जैसी कई मापदण्डों का प्रतिपादन किया था, वे सब भुला दिए गए। उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह की सरकार ने इस ओर ध्यान दिया था और अपने एक वरिष्ठ मंत्री हुकुम सिंह की अध्यक्षता में अति पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया था जिसने आरक्षण के मुद्दे पर बहुत गहराई से विचार किया था और बताया था कि कैसे अति पिछड़ों को उनका हक दिलाया जा सकता है। इस आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की कोशिश की गई थी लेकिन पिछड़े वर्ग के प्रभावशाली लोगों ने इनको सफल नहीं होने दिया था। (देखें दस्तक टाइम्स के अप्रैल 2015 के अंक में पृष्ठ 17 पर छपा आलेख)
दरअसल पिछड़े वर्ग को 27 प्रतिशत का जो आरक्षण मिला हुआ है, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा राजनीतिक और आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत अधिक सम्पन्न यादवों और कुर्मियों ने अपने खाते में डालकर उस पर कब्जा कर लिया है। दूसरी पिछड़ी जातियों को बहुत कम ही लाभ मिल सका है। लेकिन मोदी सरकार इस पूरे प्रकरण को राजनीतिक तराजू पर तौले बिना तो कुछ कर नहीं सकती, इसलिए यह जानना भी जरूरी है कि भाजपा को इस फैसले से कितना लाभ मिल सकता है या कितनी हानि हो सकती है। जब राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने इस तराजू का इस्तेमाल किया था और काफी हद तक सफल भी रहे थे। यह तो एकदम निश्चित है कि अपेक्षाकृत छोटी पिछड़ी जातियों के समर्थन का लाभ भाजपा को मिल सकता है। जहां तक यादवों और कुर्मियों का प्रश्न है, पिछले लोकसभा चुनाव में इसके लिए भाजपा ने कई जतन किए थे। कुर्मी-बाहुल्य पार्टी- अपना दल के साथ उसने समझौता करके दो सीटें उसे दी थीं और दोनों पर वह जीती भी थी। इससे उ0्रप्र0 में भाजपा का स्कोर 71 से बढ़कर 73 हो गया था। जहां तक यादवों का प्रश्न है, उसका एक छोटा सा हिस्सा सपा से छिटककर भाजपा में आया था। इसलिए कुल मिलाकर देखा जाय तो भाजपा को पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश मानने में फायदा ही होगा।
लेकिन आयोग के समक्ष एक बड़ी समस्या और आएगी। पिछड़ों में अगड़े माने जाने वाले यादव, कुर्मी और लोध वर्ग में सभी सम्पन्न नहीं हैं। इनमें वे लोग जिनकी सत्ता में धमक है, उस तक पहुंच है, जो ज्यादा पढ़े-लिखे हैं, उन्होंने सजातीय दूसरे लोगों की तुलना में ज्यादा लाभ प्राप्त होते रहे हैं। इनकी अलग से पहचान कर पाना बहुत मुश्किल काम है।
हिन्दी फिर चर्चा में
अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह नरेन्द्र मोदी ने भी पिछले साल संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी में भाषण किया था और ऐसा करके बहुत से हिन्दी-प्रेमियों की वाहवाही लूटी थी। लेकिन यह वाहवाही क्षणिक ही थी। अटल जी की तरह मोदी जी का यू0एन0 में हिन्दी में भाषण मात्र एक दिखावा ही था क्योंकि विदेश तो छोड़िए भारत की धरती पर भी मोदी जी अंग्रेजी बोलने लग गए। वही बात फिर। विपक्ष में बैठकर बोलना एक बात होती है लेकिन सत्ता में आकर उस पर अमल करने की इच्छा-शक्ति दिखाना दूसरी बात होती है। हिन्दी के मामले में भी नहीं जो भाजपा के मनप्राण में बसी रही है।
जून के दूसरे सप्ताह में केन्द्रीय सरकार ने ऐलान किया कि सरकारी कामकाज में अब हिन्दी का इस्तेमाल होगा। यह घोषणा सहज ही थी क्योंकि आखिर भाजपा से बड़ा हिन्दी का हितैशी और कौन हो सकता है। 19 जून 2014 को केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री किरन रिजीजू ने घोषणा की कि तमाम सरकारी विभागों में अब हिन्दी में काम होगा। लेकिन तुरंत ही इस घोशणा का विरोध हो गया। खुद भाजपा के सहयोगी दलों ने उस पर सवाल खड़े कर दिए। अगले ही दिन सरकार को स्पष्टीकरण जारी करते हुए कहना पड़ा कि उसका पहले का आदेश केवल हिन्दी-भाषी राज्यों के मामले में था। सबसे पहले तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने इसका विरोध किया और कहा कि यह आफिसियल लैंग्वेज एक्ट 1963 का उल्लंघन है। ये वे ही जयललिता हैं जिनसे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार हमेशा डरती रही। मोदी जी भी डर गए। वे जब एक जुलाई 2014 को श्रीहरिकोटा गए तो वहॉ उन्होंने अंग्रेजी में भाषण दिया। जाहिर है कि जयललिता की तस्वीर इतनी डरावनी थी कि दक्षिण भारत में पहुंचकर वे अच्छी हिन्दी भूलकर टूटी फूटी अंग्रेजी बोलने पर मजबूर हो गए। अब विदेश यात्राओं के दौरान भी मोदी जी अंग्रेजी में बोलने लग गए हैं। चीन के नेता चीनी भाषा में बोल रहे थे और हमारे प्रधानमंत्री हिन्दी के बजाय अंग्रेजी में बोल रहे थे। और उनकी अंग्रेजी कानों में चुभ रही थी। ज्यादा दिन उनका भाषण सुन लें तो बच्चे अंग्रेजी के सही उच्चारण ही भूल जाएं! उनसे यह कोई कहने वाला भी नहीं था कि खराब अंग्रेजी बोलने से कहीं अच्छा हिन्दी बोलना है। उन्हें खुद तो याद होना चाहिए कि हिन्दी में अच्छे भाषणों ने उन्हें सत्ता के दरवाजे तक पहुंचने में निर्णायक मदद की थी।
राजनीतिक लोगों के लिए वास्तव में हिन्दी कोई भाषा है ही नहीं। यह तो एक राजनीतिक मुद्दा है। राजनीतिक मुद्दा है तो फिर उसका तो इस हिसाब से ही इस्तेमाल होगा न कि कहां उसका फायदा मिलेगा, कहां नहीं। एक बार अटल जी से मैंने पूछा था: आप विदेश की धरती पर तो हिन्दी में बोलते हैं लेकिन अपने देश में आकर अंग्रेजी में बोलने लगते हैं, इसका रहस्य क्या है। उनके पास कोई जवाब नहीं था सो वे मेरी तरफ मुखातिब होकर बोले: आप तो राजनीतिक विश्लेषक हैं, आप पता करिए।
पत्रकारिता के शुरुआती दौर में एक जूनियर रिपोर्टर की तरह मैंने डा0 राम मनोहर लोहिया की एक प्रेस कान्फ्रेंस अटेंड की थी। अंग्रेजी के तमाम धुरंधर पत्रकार, जिनमें स्टेट्समैन के तरुन कुमार भादुरी भी थे, डा0 लोहिया से बार-बार यह अनुरोध कर रहे थे कि वे अंग्रेजी में बोलें लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। डा0 लोहिया ने कहा कि उन्होंने तय किया हुआ है कि वे सार्वजनिक मंच से सिर्फ हिन्दी में, सिर्फ हिन्दी में बोलेंगे। अंग्रेजी नहीं बोलेंगे।
उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ डा0 लोहिया के चेलों का क्या हाल हुआ? अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनते ही उनके पिता श्री का हिन्दी का नारा गायब हो गया। अखिलेश ने कह दिया कि अंग्रेजी पढ़े बिना कुछ नहीं हो सकता। मुलायम सिंह जी चुप हो गए। वैसे ही जैसे कि मोदी जी के अंग्रेजी भाषणों पर उनकी मार्गदर्शक आर0एस0एस0 चुप है। डा0 लोहिया के तमाम अनुयाइयों के बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ते हैं।
और उत्तर प्रदेश में हिन्दी आज कहां खड़ी है, किसी को पता न हो तो 17 मई को घोषित हुए हाई स्कूल परीक्षा के परिणामों को देख ले। हिन्दी-भाषी उत्तर प्रदेश के हाई स्कूल बोर्ड की परीक्षा में लगभग एक लाख परीक्षार्थी हिन्दी में फेल हो गए। ज्यादातर अंग्रेजी में तो पास हैं, मगर हिन्दी में फेल हैं। अब नियमानुसार ये विद्यार्थी 11-वें दर्जे में प्रवेश नहीं पा सकते क्योंकि हाई स्कूल में हिन्दी में पास होना अनिवार्य है। वाह री इंगलिश और हाय री हिन्दी! और जय हो हिन्दी का व्यापार करने वालों की!