प्रवासी ही नहीं पराया साहित्यकार की भी संज्ञा देते हैं…
परदेस में राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में जुटे सरन घई जी के व्यक्तित्व को यदि हम सामान्य रूप से निरखें-परखें तो हम कह सकते हैं कि सरन घई जी विश्व हिंदी संस्थान कल्चरल अर्गनाइजेशन ,कनाडा के संस्थापक संचालक हैं, नीर-क्षीर विवेकी पत्रकार, भाषा के प्रोफेसर रह चुके हैं, साहित्य-सृजन में रत हैं, समाजसेवी हैं। लेकिन उनसे बातचीत के दौरान उनका अलग ही व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है। वह यह कि वे अपने सब रचनात्मक गुणों के बावजूद बेहद विनम्र, सहज व सरल हृदय के स्वामी हैं। साहित्य जब समाज के सुख-दु:ख को देखने-बूझने के साथ-साथ उसमें सम्मिलित होकर रोग-दु:ख दूर करने में रत हो जाता है तब वह लोक कल्याणकारी हो जाता है। सरन जी ने अपनी रचनात्मक ऊर्जा को जहाँ एक तरफ साहित्य-सेवा में लगाया वहीं दूसरी ओर कुष्ठ रोगियों की सेवा में भी पूरी निष्ठा से समर्पित है। सरन जी के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं पर प्रकाश डालती दस्तक टाइम्स की साहित्य संपादिका सुमन सिंह से घई जी की यह आत्मीय बातचीत।
सरन घई जी! मूलत: आप कहाँ के रहने वाले हैं?
सुमन जी! मैं जयपुर, राजस्थान का रहने वाला हूँ,(हँसकर) वैसे पंजाबी हूँ।
कनाडा कैसे जाना हुआ?
कनाडा में मेरे बड़े भाई रहते हैं। बहुत समय से वो इसरार कर रहे थे कि मैं भारत से कनाडा शिफ्ट हो जाऊँ। वर्षों की मेहनत व प्रतीक्षा के बाद मैं अंतत: कनाडा पहुँच गया।
आपने लंबे समय तक कनाडा में अध्यापन कार्य किया है, इस क्षेत्र के अनुभव साझा करना चाहेंगे?
सुमन! आप स्वयं अध्यापन कार्य से जुड़ी हो तो समझ सकती हो कि यह क्षेत्र कितना रुचिकर और आत्मिक तुष्टि देने वाला होता है। यूनिवर्सिटी आफ टोरंटो में हिंदी अध्यापन करना मेरे लिए बहुत ही सुखद रहा। विद्यार्थियों से मैंने अध्यापक-शिक्षार्थी के स्थान पर पारिवारिक संबंध यथा पिता-पुत्र व पिता-पुत्री जैसे संबंध बनाये जो सर्वथा सफल रहे। भारतीय मूल के मेरे विद्यार्थियों ने हिंदी सीखने को अपनी माटी से जुड़े एक पुनीत की भांति लिया और अन्य देशों के विद्यार्थियों ने इसे भारत के प्रति उनकी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिये सीखा।
कनाडा में हिन्दी की क्या स्थिति है?
कनाडा के टोरंटो शहर में तो लगभग 50 या कुछ अधिक कवि व रचनाकार हैं। ईमानदारी से लिख रहे हैं। हर माह कवि सम्मेलन होते हैं, साहित्यिक गतिविधियां होती हैं। बहुत से लेखकों-कवियों की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘विश्व हिंदी संस्थान’ से काफी रचनाकार जुड़े हुए हैं और संस्था द्वारा समय-समय पर जारी गतिविधियों में उत्साह से भाग लेते हैं। अन्य शहरों यथा वैंकूवर, आट्वा, एल्बर्टा, कैलगिरि में सीमित गतिविधियां होती रहती हैं।
हिन्दी के प्रचार -प्रसार के लिए कनाडा में आप कितने वर्षों से सक्रिय हैं?
मैंने 1996 में कनाडा की धरती पर पहला कदम रखा था लेकिन 15 दिन में ही मैं अमेरिका चला गया और लगभग तीन वर्ष अमेरिका में रहने के बाद, अपने आपको समाचार पत्र-पत्रिकाओं की दुनिया में स्थापित करने के बाद सपरिवार पुन: कनाडा लौट आया और तब से यानि 1999 से यहीं पर हूँ। यहाँ आकर मैंने नार्थ-अमेरिका के पहले हिंदी-अंग्रेजी पाक्षिक समाचार पत्र ‘नमस्ते कनाडा’ का प्रकाशन प्रारंभ किया और तब से सक्रिय रूप से हिंदी के प्रचार-प्रसार से जुड़ा हूँ।
आपके संपादन में अब तक कितनी पत्रिकाएं आ चुकी हैं अथवा आ रही हैं?
मेरे संपादन-प्रकाशन में लगभग 14 समाचार-पत्र व पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई हैं। बाकी तो सब बीते दिनों की बात हुई लेकिन प्रयास पत्रिका 2014 से अभी तक प्रकाशित हो रही है ।
आपने साहित्य की किन-किन विधाओं में लेखन कार्य किया है?
गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में लिखना मेरी रुचि है।
क्या आप प्रवासी लेखक कहलाना पसंद करते हैं?
हाँ, क्यों नहीं। अलग हट कर कुछ पहचान बनती है तो अच्छा लगता है लेकिन भारत स्थित कुछ रचनाकारों की मन:स्थिति ऐसी है कि वे हमें ‘प्रवासी साहित्यकार’ नहीं अपितु ‘पराया साहित्यकार’ की संज्ञा देने को तत्पर रहते हैं, तब थोड़ा दुख लगता है।
भारत और कनाडा में साहित्यिक क्षेत्र में मिले अब तक के सम्मान और पुरस्कार?
देश और विदेश, दोनों ही जगह बहुत सम्मान और प्यार मिला है। अभिभूत हूँ और सभी संस्थानों के प्रति कृतज्ञ भी हूँ। सम्मान या पुरस्कार आपको सुख-संतोष के साथ-साथ प्रेरित करने के कारक तो हैं ही। नि:संदेह ये मेरी रचनात्मक गतिविधियों के पारितोषिक मुझे नयी ऊर्जा और प्रेरणा से भर देते हैं। हँसते हुए) यदि आपको विस्तार से जानना है तो मेरे परिचय से मदद ले सकी हैं।
आप अभिनय और समाजसेवा से भी जुड़े हैं,इस क्षेत्र के अनुभव हमसे साझा करना चाहेंगे?
अभिनय मेरा शौक है और समाजसेवा मेरा अनुष्ठान। रेडियो, टीवी, स्टेज, तीनों ही विधाओं को बखूबी एंज्वाय किया है और अब कोशिश है फिल्मजगत में प्रवेश पाने की। समाजसेवा की सच्ची शुरुआत हुई जयपुर स्थित ‘सार्थक मानव कुष्ठाश्रम’ से, जहाँ कुष्ठ रोगियों के बच्चों की शिक्षा के लिये जयपुर, झोटवाड़ा व जोधपुर में विद्यालय स्थापित करने में सक्रिय योगदान दिया व उनकी आठवीं तक की शिक्षा के लिये मेरे स्कूल ‘चिल्ड्रन्स वण्डरलैंड स्कूल’ जयपुर में मुफ्त शिक्षा, मुफ्त किताबें व मुफ्त ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था की। बाद में एड्स जैसे भयावह रोग के प्रति समाज में जागरूकता फैलाने के लिये जुट गया। अंतत: ‘एड्स इंटरनेशनल आर्गेनाइजेशन’ स्थापित की जिसके अंतर्गत अमेरिका में किलोमीटर वाक में हर वर्ष भाग लेता रहा।
आपने बतौर समाचार वाचक और आकाशवाणी कार्यक्रम-संचालक कार्य किया है, इस क्षेत्र में आपका आना कैसे हुआ?
जयपुर दूरदर्शन के शुरुआती समाचार कार्यक्रमों यथा ‘राजस्थान इस सप्ताह’, ‘आस-पास’ आदि में समाचार वाचन के उपरांत कनाडा में मेरे टीवी कार्यक्रम में विधिवत समाचार वाचन किया। इसी प्रकार जयपुर आकाशवाणी से वर्षों जुड़े रहने के बाद कनाडा में कुछ कार्यक्रमों में हिंदी समाचार-वाचन के साथ-साथ अपना रेडियो कार्यक्रम भी प्रारंभ किया जो लंबे समय तक चलता रहा।
क्या फिल्म निर्माण से भी आप जुड़े हैं?
सुमन! आपके मुँह में घी-शक्कर, ऐसा हुआ तो नहीं लेकिन इसी जन्म में फिल्मों में हाथ जरूर आजमाऊँगा, इतना स्वयं पर भरोसा है।
क्या भारत में भी आप समाज-सेवा कार्य से जुड़े हैं?
जी, समाज सेवा कार्यक्रमों की नींव भारत में ही डली, यहाँ अमेरिका-कनाडा में आकर उसका प्रारूप और विशाल हो गया।
आपने भारत में कुष्ठ रोगियों के बच्चों के शिक्षार्थ स्कूल भी संचालित किया है, इसकी प्रेरणा कैसे मिली?
कुष्ठ आश्रम से संबंधित तो हम एक समाज-सेवक के रूप में थे ही, शिक्षा के प्रति गहन अनुराग के चलते आश्रम के संचालकों ने यह कार्यभार हमें सौंपा। तब एक-एक करके तीन स्कूल कुष्ठ रोगियों के बच्चों के लिये स्थापित किये। उसका मुख्य कारण यह था कि आम स्कूलों में दूसरे बच्चे उन बच्चों के साथ बैठना पसंद नहीं करते थे और उनसे घृणा करते थे। उन बच्चों को भी शिक्षा का अधिकार है, बस इसी संकल्प के साथ उन विद्यालयों की स्थापना में हाथ बंटाया।
नि:संदेह ऐसे सेवाकार्यों के लिये आपको भारत और कनाडा से ढेर सारा सम्मान और आदर मिला होगा, इन सबसे आप कितने संतुष्ट हैं?
संतुष्टि मेरे जीवन का मूल मंत्र है लेकिन वो कहते हैं न कि ‘चलते रहो सदैव जगत में, चलते रहो निरंतर’ उसी में एक फिल्म की पंक्ति जोड़कर अपने जीवन का मार्ग बना लिया ‘जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया, जो मिल न सका उसको निशाना बना लिया’। ढेरों सम्मान मिले पर जैसे नटनी रस्सी पर चलती रहती है, अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शित करती रहती है और नीचे खड़ा ढोली ‘कसर रह गयी, कसर रह गयी’ की धुन पर ढोल बजाता रहता है, बस वही मैं नटनी हूँ और वही मैं ढोली हूँ।
जीवन का वह क्षण जो आपके लिए अविस्मरणीय हो?
(हँसते हुए) उस क्षण की प्रतीक्षा है।
कोई ऐसा स्वप्न जिसके साकार होने की कामना आप दिन-रात करते हों?
हिंदी की विश्व की सबसे लंबी कविता ‘मुक्तिपथ-प्रेमपथ महाकाव्यगीत’ और विश्व के 66 रचनाकारों को साथ लेकर रचा गया विश्व का पहला सह-रचित उपन्यास ‘खट्टे-मीठे रिश्ते’ के संपादन के बाद इच्छा है कि विश्व के सबसे बड़े लेख संकलन ‘विश्व शांति’, विश्व की सबसे लंबी काव्य सहरचना ‘नर-नारी’, विश्व की सबसे लंबी सह-रचित कहानी ‘सुनो, तुम मुझसे झूठ तो नहीं बोल रहे’ को जल्दी से जल्दी पूर्ण कर प्रकाशित करवा सकूँ। दरअसल मेरी चाह है कि जब कभी विश्व में भाषा साहित्य का इतिहास लिखा जाय तो उसमें हर विधा में हिंदी का नाम सर्वोपरि आये, हिंदी में हर प्रयोग पहले से हो चुका हो जो अन्य भाषाओं के रचनाकारों ने कभी सोचा भी न हो।
वह कौन सा आकर्षण है जो आपको भारत आने पर विवश कर देता है?
भारत तो स्वयं ही एक आकर्षण है। भारत मेरी जन्म भूमि है, 45 वर्ष तक कर्म भूमि रही और अब आकर्षण भूमि है। यद्यपि 99% मित्र सोशल मीडिया से बने हैं लेकिन उनमें जो नि:स्वार्थ प्रेम भावना है, वह अपनी पारिवारिक रिश्तेदारी में नहीं मिलती। बस, उन्हीं से मिलने, अपनी कहने, उनकी सुनने और हिंदी के प्रचार-प्रसार की दो बातें करने चला आता हूँ।
जीवन-यात्रा के इस पड़ाव पर भी आपकी इस अथक सक्रियता और ऊर्जस्विता का क्या रहस्य है?
अपने आपको निरंतर व्यस्त रखना, मन:स्थिति को पाजिटिव रखना, सदैव कुछ नया करने की स्वयं को प्रेरणा देते रहना, विश्व में कुछ ऐसा कर जाने की भावना कि मृत्युपरांत मरूँ नहीं, याद रखा जाऊँ, बस, यही सब कुछ है जो मुझे 24 घंटे में 36 घंटे काम करने की ओर प्रेरित करता रहता है।