दस्तक-विशेष

बदल गई यूपी की सियासी तस्वीर

-संजय सक्सेना
उत्तर प्रदेश में 17वीं विधान सभा के नतीजे कई मायनों में अपनी अलग छाप छोड़ गये। भविष्य में जब भी वर्ष 2017 को याद किया जायेगा तो बीजेपी की शानदार जीत की चर्चा जरूर होगी। बीजेपी या कहें मोदी की ऐसी आंधी चली की कांग्रेस, सपा, बसपा और अन्य छोटे दलों की कुल संख्या भी तिहाई का आंकड़ा नहीं छू सकी। उत्तर प्रदेश के 70 वर्षों की विधायी इतिहास में शायद पहली बार बड़ी तादात में मतदाताओं ने जातिबंधन की बेड़ियों को तोड़कर मतदान में हिस्सा लिया होगा। निश्चित ही इससे लोकतंत्र की खूबसूरती बढ़ी है। लगातार यह तीसरा मौका था जब जनता ने किसी पार्टी के पक्ष में पूर्ण बहुमत दिया है। 2007 में बहुजन समाज पार्टी, 2012 में समाजवादी पार्टी और अब 2017 में भारतीय जनता पार्टी को यह सौभाग्य मिला है। 17वीं विधानसभा चुनाव के अप्रत्याशित नतीजे अखिलेश सरकार के खिलाफ जनता का गुस्सा था या फिर मोदी मैजिक का कमाल? इसको लेकर मीडिया और बुद्धिजीवियों के बीच तो लम्बे समय तक बहस होती रहेगी, लेकिन यह सच है कि पूरे चुनाव प्रचार के दौरान मतदाता किसी भी तरह से भ्रमित नहीं था। इन नतीजों से यह भी तय हो गया कि जिस ‘शख्स’(मोदी) को हमेशा की तरह इस बार भी मीडिया से लेकर राजनैतिक पंडित तक कमतर आंक रहे थे उसका क्रेज आज तक जनता के बीच बरकरार है। इस बात का पुख्ता प्रमाण भी है। 2014 लोकसभा चुनाव में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी गठबंधन ने 73 लोकसभा क्षेत्रों में विजय हासिल की थी। बीजेपी के 71 और उसके सहयोगी अपना दल के 02 सांसद चुने गये थे। लोकसभा चुनाव में विधान सभावार बीजेपी गठबंधन ने जब 337 विधान सभा क्षेत्रों में बढ़त बनाई थी तब उसकी संख्या 73 सांसदों तक पहुंची थी, जो रिकार्ड बीजेपी ने 2014 के आम चुनाव में बनाया था, यही इतिहास तीन वर्षों के बाद 2017 में भी दोहराया गया। बीजेपी गठबंधन को 325 सीट पर जीत मिली। 2014 में सपा को 05 सीटों पर फतेह हासिल हुई थी और विधानसभा वार 42 सीटों पर उसके प्रत्याशी आगे रहे थे। 2017 के विधान सभा चुनाव में भी सपा इसी आंकड़े के इर्द-गिर्द नजर आई। उसे मात्र 47 सीटें मिली,जबकि बसपा और कांग्रेस की स्थिति 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले विधान सभा चुनाव में और भी पतली हो गई। ऐसे में लाख टके का सवाल है कि क्या 2014 से लेकर 2017 तक मोदी और बीजेपी के लिए कुछ नहीं बदला जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव से सबक लेते हुए सपा-बसपा और कांग्रेस, मोदी और बीजेपी के प्रति ज्यादा आक्रामक रुख अपनाये हुए थीं। विरोधियों द्वारा नोटबंदी, आरक्षण, दलित उत्पीड़न, किसानों की दुर्दशा, तीन तलाक, सूटबूट की सरकार, केन्द्र सरकार की कथित नाकामी, अल्पसंख्यकों के प्रति तुष्टिकरण का रवैया अपनाकर, कथित असहिष्णुता, मोदी के विदेशी दौरों आदि के बहाने बीजेपी और मोदी को कटघरे में खड़ा करने की पूरी कोशिश की गई थी, परंतु मतदाताओं ने विरोधियों की बजाये मोदी पर ज्यादा भरोसा दिखाया। जनता को मोदी की बातों पर भरोसा दिखा तो उसने केन्द्र की भांति यूपी की सत्ता भी बीजेपी को सौंपने में गुरेज नहीं किया। ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि जनता को केन्द्र की मोदी सरकार से कोई नाराजगी नहीं थी, वह संतुष्ट नजर आ रही थी। यूपी चुनाव के नतीजों से यह भी साबित हो गया कि मोदी सरकार पूंजीपतियों के लिये नहीं गरीबों के लिये काम कर रही है। कहने को तो मोदी सरकार ने कोई ऐसा बहुत बड़ा काम नहीं कर दिखाया है, जिससे इंडिया शाइनिंग हो गया हो, परंतु छोटे-छोटे कदमों से मोदी सरकार लोंगो के दिलोंं में उतरती गई। इस बात का अहसास बड़े से बड़ा राजनैतिक पंडित भी नहीं कर पाया।
दरअसल, मोदी का काम करने का तरीका इतना अलग था कि विरोधी इसकी थाह ही नहीं पा सके। 125 करोड़ की आबादी वाले देश में जब कोई प्रधानमंत्री शौचालय और स्वच्छ भारत अभियान को अपना लक्ष्य बनाता है तो यह चौंकाने वाली बात लगती है। देश के इतिहास में किसी भी प्रधानमंत्री ने ऐसी छोटी-छोटी बातों पर कभी ध्यान नहीं दिया, लेकिन मोदी को पता था कि शौचालय का न होना गरीब परिवारों के लिये एक अभिशाप है। इससे सेहत पर तो विपरीत असर पड़ता ही है, महिलाओं की इज्जत भी प्रभावित होती है। इसी प्रकार सूटबूट की सरकार का दाग भी मोदी ने अपने कार्यशैली से धो दिया। मोदी ने भले ही कोई बहुत बड़ा कारनामा नहीं किया, लेकिन जो किया उसमें काफी सुदृढ़ता दिखी। चाहे बात ‘उज्जवला योजना’ के तहत गांव-देहात से लेकर शहरों तक की गरीब महिलाओं को मामूली कीमत पर गैस कनेक्शन (सिलेंडर) बांटने की हो या फिर गरीबों के घरों में बिजली कनेक्शन पहुंचाने का काम, मोदी ने इस मुहिम को काफी गंभीरता और तत्परता से आगे बढ़ाया। सरकार बनते ही गरीब परिवारों के लिये सबसे पहले जनधन खाता खुलवाना उसके बाद उनके घरों तक बिजली-गैस कनेक्शन, शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाआें का पहुंचाना, मोदी की जीत में टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ तो प्रदेश की बिगड़ी कानून व्यवस्था और नोटबंदी का ढिंढोरा पीटकर मोदी ने मध्य वर्ग के मतदाताओं को अपनी तरफ आकर्षित किया। इसके अलावा मोदी ने उन किसानों का दर्द भी समझा जो जीतोड़ मेहनत के बाद भी आत्महत्या को मजबूर होते हैं। यूरिया पर नीम कोटिंग करके मोदी सरकार ने यूरिया की कालाबाजारी को रोका तो किसानों को प्राकृतिक आपदा से होने वाले फसली नुकसान की भरपाई के लिये बीमा योजना लाये। किसानों में यह उम्मीद जगाई कि उनकी सरकार किसानों के लिये काफी कुछ करना चाहती है। किसानों की तरह ही एक बड़ा वर्ग सैनिकों का भी है। मोदी सरकार ने सैनिकों की दशकों पुरानी वन रैंक पेंशन (ओआरपी) की मांग को पूरा करके सैनिकों के मर्म को भी समझा। उत्तराखंड में बीजेपी की जीत में ओआरपी का महत्वपूर्ण स्थान रहा। तमाम किन्तु-परंतुओं के साथ इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि यह जीत बीजेपी की नहीं मोदी की है। मोदी ने जिस तरह से प्रचार के दौरान जनता के साथ संवाद बनाया वह देखने लायक था। काफी तैयारी के साथ मोदी जनसभा करने आते थे, मोदी जहां भी जनसभा करते वहां वह अपना भाषण टुकड़ों में बांट कर आगे बढ़ाते थे। सबसे पहले वह कानून व्यवस्था का सवाल उठाकर अखिलेश सरकार की नाकामी गिनाते, अखिलेश-राहुल पर तंज कसते, उनकी दोस्ती पर सवाल खड़ा करते, इसके बाद जनता को यह बताते कि अखिलेश सरकार को क्या करना चाहिए था जो उसने नहीं किया। फिर यह बताते कि दिल्ली, यूपी को खूब पैसा दे रही है, लेकिन अखिलेश सरकार सियासत के तहत केन्द्र की कल्याणकारी योजनाओं में अड़गेबाजी लगा रही है। इसके साथ-साथ वह जनता को यह भी बताते जाते कि उनकी सरकार किस तरह से जनता के हितों के लिये काम कर रही है।
जमीनी और हवा का रुख भांप कर मोदी पहले चरण से लेकर आखिरी चरण तक में अपने भाषण में लगातार बदलाव भी करते रहे। मोदी और उनके रणनीतिकार जगह-जगह रैलियों में : जैसा देश देखते वैसा भेष’ के मुहावरे को चरितार्थ करते दिखे। पश्चिमी यूपी में दंगों, हिन्दुओं का पलायन, गन्ना किसानों की समस्याओं, चीनी मिल मालिकों की सपा सरकार से सांठगांठ के बहाने अखिलेश सरकार को घेरा गया तो मध्य यूपी में बलात्कार के आरोपी सपा नेता और तत्कालीन मंत्री गायत्री प्रजापति, सपा परिवार में चल रहे मनमुटाव को मुद्दा बनाया गया। लड़ाई जब नेहरू-गांधी परिवार के गढ़ और सपा गठबंधन के पार्टनर कांग्रेस के दबदबे वाले जिलों रायबरेली और अमेठी में पहुंची तो यहां पूरा फोकस इस क्षेत्र की बदहाली पर रहा जिसके सहारे बीजेपी द्वारा सोनिया गांधी-राहुल की विश्वसनीयता और विकासवादी सोच पर सवाल खड़ा किया गया। अखिलेश-राहुल की दोस्ती को मौकापरस्ती का जामा पहनाया गया। चुनावी जंग जब पूर्वांचल की ओर बढ़ी तो कब्रिस्तान-श्मशान, बाहुबली मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद पर चर्चा शुरू हो गई। इसके साथ-साथ मोदी और बीजेपी के रणनीतिकार बसपा के भ्रष्टाचार और मायावती के दलित प्रेम के दिखावे के बहाने बसपा सुप्रीमो मायावती पर हमलावर रहे। बीजेपी वाले चुनाव सभाओं में बसपा के दलित-मुस्लिम और सपा-कांग्रेस गठबंधन के पिछड़ा, यादव-मुस्लिम में भी मतभेद पैदा करते रहे।
मुस्लिम मतदाता बीजेपी के साथ आयेंगे नहीं, यह बात तय थी, इसलिये मोदी ने बसपा के वोट बैंक समझे जाने वाले दलितों और सपा के पिछड़ा वोट बैक में सेंधमारी का रास्ता चुना। मोदी ने कुछ ऐसा माहौल बनाया जिससे हिन्दुओं को दलित, अगड़ा-पिछड़ा में बांट कर मुस्लिम वोटों के सहारे सत्ता का स्वाद चखने वाले सपा-बसपा इस बार पूरी तरह से एक्सपोज हो गये। बीजेपी ने यूपी की जंग को हिन्दू बनाम मुस्लिम में बांट दिया। जिसके चलते मुसलमानों के सहारे सत्ता की सीढ़िया चढ़ने का सपना देख रहे सपा-कांग्रेस गठबंधन और बसपा के नेताओं की सियासत औधे मुंह गिर पड़ी। चुनाव प्रचार के दौरान मोदी द्वारा उठाया गया कब्रिस्तान और श्मशान का मुद्दा इस कड़ी में अहम पड़ाव साबित हुआ। उक्त तमाम दांवपेंचों के अलावा मोदी के पक्ष में जर्बदस्त माहौल बनने का एक कारण सपा-कांग्रेस गठबंधन के अनुभवहीन नेताओं की मौजूदगी भी रही। मुलायम नेपथ्य में चले गये थे, सत्ता के नशे में चूर अखिलेश ने पिता ही नहीं पार्टी के अन्य दिग्गज नेताओं को भी हाशिये पर डाल दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि अखिलेश, बीजेपी और मोदी के तरकश से निकले तीरों की काट नहीं कर सके और गधों का प्रचार जैसी बातें करने लगे, जिसे मोदी ने खूब भुनाया। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सपा-कांग्रेस गठबंधन के स्लोगन,‘ यूपी को यह साथ पसंद है’ और ‘काम बोलता है‘ पर मोदी का जुमला ‘काम नहीं कारनामे बोलते हैं‘ ज्यादा भारी पड़ा। ऐसा लग रहा था, बसपा सुप्रीमो मायावती के पास तो अपनो वोटरों को लुभाने के लिये कोई मुद्दा ही नहीं रह गया था। वह मुसलमान, नोटबंदी और आरक्षण से उबर ही नहीं पाईं। बिहार चुनाव में लालू यादव बीजेपी के खिलाफ आरक्षण को हथियार बनाने में कामयाब रहे थे, माया को लग रहा था आरक्षण का मुद्दा गरमा कर वह भी सियासी फायदा ले सकती हैं, लेकिन यूपी में इसकी हवा निकल गई, लेकिन अफसोस की बात है कि अभी भी मोदी विरोधियों की आंखें नहीं खुली हैं।
बात सपा-बसपा और कांग्रेस की भावी राजनीति और सियासी सोच की कि जाये तो कायदे से तो सपा-कांग्रेस गठबंधन और बसपा को हार से सबक लेना चाहिए था, लेकिन सबक लेने की बजाये दोंनो ही दलों के नेता ईवीएम पर सवाल खड़े करते और मतदाताओं की बौद्धिक क्षमता पर प्रश्न चिंह लगाते घूम रहे हैं। हार के बाद अखिलेश का विकास को लेकर अपनी पीठ थपथपाना और जनता को उलाहना देना किसी भी तरीके से लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है। अखिलेश कुछ भी कह रहे हों, लेकिन जब हार के लिये पार्टी के भीतर से उनके ही सिर पर ठीकरा फोड़ा जा रहा हो तो उनके लिये आगे की राह आसान नहीं कही जा सकती है। चचा शिवपाल यादव तो नतीजे आने के बाद से ही भतीजे अखिलेश पर तंज कस रहे हैं। ऐसा लग रहा था कि हार के बाद सपा परिवार में कुछ मंथन होगा, परंतु अभी भी सपा के दोनों धड़े एक-दूसरे के खिलाफ तलवार खींचे हुए हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती ने नतीजे आने के फौरन बाद ईवीएम मशीन में गड़बड़ी की बात करके बीजेपी की जीत को ही नकार दिया था। बात यहीं तक सीमित नहीं है जो मायावती चुनाव प्रचार के दौरान कहती फिर रही थीं कि बीजेपी जीतेगी तो आरक्षण खत्म कर देगी, वह ही मायावती अब कह रही हैं कि अभी नहीं 2019 में बीजेपी जीतेगी तो उसके बाद आरक्षण खत्म कर देगी। शायद, बसपा सुप्रीमो को पता नहीं है कि वह इस तरह की बातें करके हंसी का पात्र बन रही हैं।
लब्बोलुआब यह है कि मोदी ने यूपी की राजनीति का मिजाज पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। वह दलित, अगड़ा-पिछड़ा में बंटे हिन्दुओं को एक छतरी के नीचे लाने में काफी हद तक कामयाब रहे।
रही सही कसर योगी राज में पूरी हो जायेगी। इस बात का अहसास योगी के मंत्रिमंडल का जातिगत समीकरण देखकर किया जा सकता है। क्षत्रिय, ब्राह्मण, पिछड़ा, दलित और मुस्लिम सब चेहरे मंत्रिमंडल में दिखाई दिये। बूचड़खानों को बंद किये जाने की मुहिम, एंटी रोमियो अभियान, सड़क पर शराब पीने वालों पर शिकंजा कसने के साथ-साथ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ छोटी-बड़ी सभी समस्याओं पर नजर रखे हुए हैं। खासकर महिलाओं की सुरक्षा और किसानों की चिंता उनके एजेंडे में सबसे ऊपर नजर आ रही है। ऐसे में यह मानकर चलना चाहिए कि बीजेपी ने कोई बड़ी चूक नहीं की तो यूपी में मुलायम-मायावती स्टाइल को सियासत के हाशिये पर पहुंचने के दिन शुरू हो गये हैं।
उज्जवला योजना का होगा विस्तार
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में मिली शानदार कामयाबी के बाद मोदी सरकार के हौसले काफी बढ़े हुए है। यूपी में बीजेपी की जीत से उत्साहित पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान कहते हैं अब यूपी में विकास की गंगा बहेगी। इसी क्रम में यूपी के गोरखपुर से नेपाल के रूपनदेह तक प्राकृतिक गैस पाइप लाइन बनाने की योजना भी कार्यरूप ले रही है। इसी प्रकार अब दोनों राज्यों की गरीब गृहणियों को एक और तोहफा मिल सकता है। यह तोहफा है उज्जवला स्कीम के तहत गरीब महिलाओं को दिए जाने वाले रसोई गैस कनेक्शन के कोटे यानी हिस्सेदारी में बढ़ोतरी। उज्जवला स्कीम के तहत केंद्र सरकार गरीब महिलाओं को फ्री में एलपीजी (रसोई गैस) कनेक्शन देती है। मोदी सरकार ने इस स्कीम के तहत तीन साल में 5 करोड़ गरीब महिलाओं को एलपीजी कनेक्शन देने का लक्ष्य रखा है। इसमें सभी राज्यों की हिस्सेदारी उसकी जनसंख्या के आधार पर तय की गई हैं। चालू वित्त वर्ष में उज्जवला स्कीम के तहत यूपी में 50 लाख एलपीजी कनेक्शन और उत्तराखंड में एक लाख कनेक्शन देने का लक्ष्य रखा गया है। सूत्रों के अनुसार अगले वित्त वर्ष यानी 2017-18 के लिए यूपी और उत्तराखंड के लिए इस स्कीम के तहत गैस कनेक्शन देने के लिए संख्या को बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए किसी अन्य राज्य के हिस्से को कम नहीं किया जाएगा। बताते हैं कि यूपी और उत्तराखंड में उज्जवला स्कीम के तहत फ्री में दिए जाने वाले फ्री रसोई गैस कनेक्शन में 30 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो सकती हैं, ऐसा होने पर यूपी में 60 लाख से ज्यादा और उत्तराखंड में 1.30 लाख गरीब महिलाओं को गैस कनेक्शन दिया जाएगा।
चीन-पाक तक में मोदी मैजिक की गूंज
पांच राज्यों में हुए चुनाव में मोदी का डंका बजने से देश में ही नहीं चीन-पाकिस्तान सहित तमाम देशों तक में गजब की प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। इधर हिन्दुस्तान में मोदी के पक्ष में नतीजे आये और लोग केसरिया होली खेलने लगे तो उधर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अपने देश के अल्पसंख्यक हिन्दुओं के साथ होली मनाने पहुंच गये। गायत्री मंत्र पर तालियां बजाने लगे। बात चीन की कि जाये तो चीन का मीडिया भी अब कहने लगा है कि मोदी की बढ़ती ताकत चीन के लिये खतरे की घंटी है। इस जीत के बाद मोदी चीन को लेकर ज्यादा कठोर नजर आ सकते हैं। इतना नहीं चीन के मीडिया ने तो 2019 में मोदी की जीत की भविष्यवाणी तक कर दी है।

Related Articles

Back to top button