बस्तर में देवी-देवताओं को भी मिलती है सजा
जगदलपुर। सदियों से अपनी हर समस्या के लिए ग्राम देवताओं की चौखट पर मत्था टेकने वाली बस्तर क्षेत्र की जनजातियां जन अपेक्षाओं की कसौटी पर खरे नहीं उतरने वाले देवी-देवताओं को भी दंडित करने का जज्बा रखते हैं। यह दंड आर्थिक जुर्माने, अस्थायी रूप से निलंबन या फिर हमेशा के लिए देवलोक से विदाई के रूप में भी हो सकता है। यह सब होता है जनता की अदालत में। बस्तर जिले के केशकाल कस्बे में हर साल भादों जार्ता उत्सव बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। यहां की भंगाराम देवी इलाके के नौ परगना के 55 राजस्व ग्राम में स्थापित एक हजार से भी अधिक ग्राम देवी-देवताओं की प्रमुख आराध्य देवी हैं। भादों महीने के आखिरी शनिवार को सभी भंगाराम देवी की दर पर सभी देवी-देवता उपस्थित होते हैं। यहां के पुजारी सरजू राम गौर बताते हैं कि इससे पहले देवी भंगाराम की सेवा पूजा लगातार छह शनिवार तक होती है। इस वर्ष भादों जार्ता माह उत्सव 23 और 24 अगस्त को केशकाल में आयोजित किया जा रहा है। पधारे देवी-देवताओं का परंपरानुसार स्वागत कर उन्हें पद और प्रतिष्ठा के अनुरूप स्थान दिया जाता है। इनके साथ प्रतिनिधि के रूप में पुजारी, गायता, सिरहा, ग्राम प्रमुख, मांझी, मुखिया और पटेल पहुंचते हैं। पूजा सत्कार के बाद वर्ष भर प्रत्येक गांव में सुख-शांति, सब के स्वस्थ रहने, अच्छी उपज और किसी भी तरह की दैविक आपदा से हर जीव की रक्षा के लिए मनौती मांगी जाती है। देवी-देवताओं को खुश और शांत रखने के लिए उन्हें प्रथानुसार बलि और अन्य भेंट दी जाएगी। बिना मान्यता के किसी भी नए देव की पूजा का प्रावधान यहां नहीं है। जरूरत के मुताबिक अथवा ग्रामीणों की मांग पर यहां नए देवताओं को भी मान्यता दी जाती है। क्षेत्र के नागरिक मगराज गोयल के मुताबिक, दोषी पाए गए या ठहराए गए देवताओं को भी अल्प मात्रा में शुल्क अदा करना पड़ता है। भादों जार्ता में सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल भी मिलती है। भंगाराम देवी के मंदिर के समीप डॉक्टर खान देव नामक देवता भी मौजूद हैं, जिन पर सभी नौ परगना के निवासियों को बीमारियों से बचाए रखने की जिम्मेदारी है। जानकारों का कहना है कि वर्षो पहले क्षेत्र में कोई डॉक्टर खान थे, जो बीमारों का इलाज पूरे सेवाभाव और निरूस्वार्थ रूप से किया करते थे। उन के न रहने पर उनकी सेवा भावना के कारण उन्हें यहां की जनता ने देव रूप में स्वीकार कर लिया और उनकी भी पूजा की जाने लगी। अन्य देवी-देवताओं को जहां भेंट स्वरूप बलि दी जाती है, वहीं डॉक्टर खान देव को अंडा और नींबू अर्पित किया जाता है। स्थानीय निवासी कृष्णदत्त उपाध्याय बताते हैं कि इलाके में बीमारी का प्रकोप होने पर सबसे पहले डॉक्टर खान देव की ही पूजा होती है। शनिवार की शाम शुरू हुई पूजा-अर्चना का दौर देर रात तक चलता रहता है, और रविवार की सुबह शुरू होती है वह प्रथा, जो पूरी दुनिया में अपनी विशिष्ट धार्मिक और कर्म प्रधान जनजातीय विरासत का अनूठा उदाहरण है। बस्तर की जनजातियां मूलतरू अपने श्रम पर भी निर्भर करती हैं, इसलिए वह आंख मूंद कर अपने पूज्यनीय देवी-देवताओं पर विश्वास करने की बजाए उन्हें ठोक बजाकर जांचते-परखते हैं। समय-समय पर उनकी शक्ति का आंकलन भी किया जाता है। अकर्मण्य और गैर जिम्मेदार देवी-देवताओं को सफाई का मौका दिया जाता है, और जन अदालत में उन्हें सजा भी सुनाई जाती है। देवी-देवताओं को सजा देने वाले कोई और नहीं बल्कि उनके भक्त ही होते हैं। गौरतलब है कि भंगाराम देवी के इलाके की प्रमुख देवी होने के बावजूद जौर्ता उत्सव में महिलाओं का प्रवेश और प्रसाद ग्रहण सर्वथा वर्जित है। नारना गांव के सिरहा रूप सिंह मंडावी की मानें तो स्त्रियां भावुक होती हैं, ऐसे में देवताओं के खिलाफ जौर्ता में लगने वाली जनअदालत में देवताओं के खिलाफ लिए गए फैसलों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। कोहकामेटा के सिरहा नाथुलाल ठाकुर कहते हैं कि सच्चाई यह भी है कि विकास और सुविधाओं के अभाव में यहां के आदिमजन अपनी समस्याओं को लेकर इन्हीं देवी-देवताओं की अलौकिक शक्तियों के सहारे आज तक जी रहे हैं, बावजूद इसके उनकी सोच काफी गहरी है। सजा पाने वाले देवी-देवताओं की वापसी का भी प्रावधान है, लेकिन उनके चरण तभी पखारे जा सकते हैं, जब वे अपनी गलतियों को सुधारते हुए भविष्य में लोक कल्याण के कार्यों को प्राथमिकता देने का वचन देते हैं। यह वचन सजा पाए देवी-देवता संबंधित पुजारी को स्वप्न में आकर देते हैं। केशकाल के रहने वाले बलराम गौर ने बताया कि इस प्रक्रिया के पूरा होने के बाद भगवान को नया स्वरूप प्रदान किया जाता है। अर्थात देवता के प्रतीक चिन्हों को नया रूप देकर भंगाराम देवी और उनके दाहिने हाथ कुंअरपाट देव की सहमति के बाद मान्यता दी जाती है।