अद्धयात्मदस्तक-विशेषहृदयनारायण दीक्षित

बुद्धि और भाव का संगम है प्रयाग तीर्थराज

संसार स्थूल है, लेकिन इसका अति सूक्ष्म भाग भी है। सूक्ष्मतम अदृश्य है और स्थूल दृश्य है। हम दृश्य भाग में है, हमारे सामने, ऊपर, नीचे सूक्ष्म भी है, लेकिन इसे देखना कठिन है। सूक्ष्म को देखने के लिए कोई उपयुक्त स्थान या उपकरण चाहिए। तीर्थ ऐसा ही स्थान है। तीर्थ स्थूल है। रम्यता और आस्था के कारण इस स्थान से सूक्ष्म का दर्शन भी संभव है। तीर्थ विशेष स्थान है। ऐसे स्थलों के प्रति लोक जीवन की आस्था भी है। लेकिन भारत ने तीर्थों पर जाने के लिए ग्रहों की गति पर भी विचार किया है। विज्ञान मूलत: गति का अध्ययन है और धर्म सद्गति की आचार संहिता है। दिक्-स्थान और मुहूर्त या काल की गलमिलौवल हुई तो तीर्थ।

तीर्थ भारत की आस्था है। लेकिन भौतिकवादी विवेचकों के लिए आश्चर्य हैं। वैसे इनमें आधुनिक विज्ञान के तत्व भी खोजे जा सकते हैं। अनेक विद्वान ऐसा करते भी हैं। लेकिन प्रकृति का सर्वोत्तम भौतिक विज्ञान की पकड़ से बाहर है। प्रेम आंतरिक भाव है। विज्ञान में इसकी सुसंगत व्याख्या नहीं है। फूल सुन्दर लगते हैं। सुंदर लगना हमारा भाव है। फूल की सुंदरता हमारा भाव है। फूल की सुंदरता का वैज्ञानिक विश्लेषण असंभव है। फूल की काया में कई तत्व है। लेकिन इन्हीं तत्वों घटकों से सुन्दरता का भाव नहीं बनता। भारतीय दर्शन में प्रकृति में पांच महाभूत है। आकाश, सूक्ष्मतम है, पृथ्वी स्थूलतम है। पॉंच तत्वों के क्रम में पृथ्वी अंतिम है। हम सब पृथ्वी पुत्र हैं। इसका गुण गंध है। पृथ्वी तत्व की अधिकता वाले पदार्थों जीवों में गंध है। यह गंध पृथ्वी की है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में इस गंध का आनंदवद्र्धन उल्लेख है। ऋषि कहते हैं कि हे पृथ्वी माता। आपकी ही गंध कमल में प्रकट हुई है। देवों ने यह कमल गंध सूर्य पुत्री सूर्या के विवाह समारोह में फैलाई थी। पृथ्वी सगंधा है। मनुष्य भी सगंधा हैं। मानुष गंध भी होती है। नि:संदेह गंध का वैज्ञानिक रासायनिक विवेचन संभव है। लेकिन कमल पुष्प का सौन्दर्य तो भी अव्याख्येय रह जाता है? प्रकृति के सुन्दरतम का वैज्ञानिक विश्लेषण अभी शेष है। पंच तत्व के विवेचन में जल पृथ्वी का पूर्ववर्ती है। चाल्र्स डारविन ने सृष्टि विकास का आधार जल बताया है। ऋग्वेद में जल को संसार की माताएं कहा गया है। प्राचीन यूनानी दार्शनिक थेल्स ने भी जल को आदि तत्व बताया था। भारत में जल को माता कहने का अपना रस है। तत्व कहने की अपनी बौद्धिकता है। तत्व और भाव में कोई द्वन्द्व नहीं है। हम इन दोनों को अपने व्यक्त्वि में ही जांच सकते हैं। हम सबके भीतर दोनों है। भीतर भाव है और बौद्धिकता भी है। बौद्धिकता के कारण हम रूखे हैं। भाव के कारण हम सरस हैं। सरस होना कल्पना नहीं है। सरस का अर्थ है रस सहित। गीता के श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि ‘जलों में मैं रस हॅूं।’ जल की आंतरिक लय और प्रवाह का नाम रस है। तैतिरीय उपनिषद् के ऋषि ने संपूर्णता भगवत्ता को ‘रस’ बताया है। भारत का मन रस आच्छादित है। ऋग्वेद में सृष्टि को जन्म देने वाली जल माताएं हैं। इस जल में रस है। रस की अपनी अनुभूति है। काव्य में रसानुभूति का ही आनन्द है। गद्य सरस होकर काव्य बनता है। रस न हो तो पेड़ ठूंठ हो जाता है। ऐसे पेड़ पर फूल नहीं खिलते। पत्तियां पहले ही मुरझा जाती है। पक्षी ऐसे पेड़ों पर कलरव नहीं करते। रस हमारे आनन्द का आधार है। रस प्रवाह के कारण ही जीवन की गति है। भारत में तमाम नदियां है। अथर्ववेद के ऋषि को नदी प्रवाह का नाद प्रिय है। भारत में अनेक नदियां हैं। भारत ने अपनी प्रिय नदी गंगा को आकाश में बहते हुए बताया है। नक्षत्र आपूरित आकाश में दूधिया गलियारा आकाश गंगा कहा जाता है। विज्ञान इसका विश्लेषण कैसे करे? भावना की बात है, बुद्धि की सीमा है। भारतीय पूर्वजों ने संसार को भी भवसागर बताया है। भवसागर का भव व्यक्तिगत अनुभव नहीं है। यह बात समझाने का तरीका है। इस संसार सागर में भवसागर है। इसे पार करना मुक्ति है। कभी यज्ञ को इस सागर की नाव बताया गया था। लेकिन उपनिषद् के ऋषियों ने कहा कि यज्ञ की नौका में छेद है। डूबने का खतरा है। नदी पार करना कठिन होता है, सागर और बड़ी बात है। ऋग्वेद के एक प्रीतिपूर्ण अंश में विश्वामित्र ने उफनाती नदी से संवाद किया था। उन्होंने कहा था कि तुम नीचे होकर बहो, हम नदी पार करना चाहते हैं। वैज्ञानिक विश्वामित्र नहीं संवाद की व्याख्या कैसे कर सकते हैं? नदी पार करने के लिए अब बड़े-बड़े पुल हैं। पहले ऐसे पुल नहीं थे।

आस्था आपूरित चित्त भी तीर्थ जैसा होता है। जैन परंपरा में दिव्य महानुभावों को तीर्थंकर कहा गया है। प्रयाग में ऋतुएं मिलती हैं। नदियां मिलती हैं। मन मिलते हैं। प्रीति खिलती है। रीति मिलती है। बुद्धि और भाव का संगम होता हैै। संगम भी परस्पर संगमन करते हैं तब पृथ्वी आकाश की प्रीति में उगता है तीर्थराज। ऐसी प्रीतिपूर्ण आस्था का विकास सदियों में होता है। आस्था अंधविश्वास नहीं है। सहस्त्रों आंखें वर्षानुवर्ष देखती हैं। पत्थर सघन रजकण की निर्मिति है। बुद्धि, तर्क करती है, वितर्क करती है। इन्द्रियबोध उन्हें पत्थर ही देखता है लेकिन भाव विह्वल होता है। पत्थर में देवता दिखाई पड़ते हैं। पत्थर पूजने वाले अंध श्रद्धालु नहीं है। वे पत्थर के भीतर प्राकृतिक संवेदन पाते हैं।

वैदिक साहित्य में नदी को सुगमतापूर्वक पार करने वाले स्थान ‘तीर्थ’ कहे गये थे। तीर्थ शब्द का प्रयोग पहली बार ऋग्वेद में हुआ है। जहॉं नदी प्रकृति को सरस बनाते हुए पार करने योग्य है, वहां तीर्थ नदी तट के सुरम्य स्थान तीर्थ कहे गए। बाद में तीर्थ शब्द का भाव-अर्थ विस्तृत हुआ। तीर्थ के अर्थ में नया आयाम जुड़ा। संसार स्थूल है, लेकिन इसका अति सूक्ष्म भाग भी है। सूक्ष्मतम अदृश्य है और स्थूल दृश्य है। हम दृश्य भाग में है, हमारे सामने, ऊपर, नीचे सूक्ष्म भी है, लेकिन इसे देखना कठिन है। सूक्ष्म को देखने के लिए कोई उपयुक्त स्थान या उपकरण चाहिए। तीर्थ ऐसा ही स्थान है। तीर्थ स्थूल है। रम्यता और आस्था के कारण इस स्थान से सूक्ष्म का दर्शन भी संभव है। तीर्थ विशेष स्थान है। ऐसे स्थलों के प्रति लोक जीवन की आस्था भी है। लेकिन भारत ने तीर्थों पर जाने के लिए ग्रहों की गति पर भी विचार किया है। विज्ञान मूलत: गति का अध्ययन है और धर्म सद्गति की आचार संहिता है। दिक्-स्थान और मुहूर्त या काल की गलमिलौवल हुई तो तीर्थ। तीर्थ यात्रा तिथि अनुरूप होती है। भारत में तिथि विशेष व स्थान विशेष पर मेले लगते हैं। मेला मिलन के स्थान है। शुभ मुहूर्त में मिलना काल का अनुवर्ती है। मेले मन मिलाते हैं। तीर्थ जाने के भौतिक लाभों की खोज में माथापच्ची बेकार है। लाखों, करोड़ों से मिलने का आनंद अनूठा है। प्रयाग तीर्थराज कहा गया है। यहां तीन नदियां मिलती है। गंगा, यमुना प्रत्यक्ष हैं, सरस्वती दिखाई नहीं पड़ती। वे भारी बाढ़ में अदृश्य हो गई थीं। वैदिक पूर्वजों की ‘नदीतमा’ सरस्वती आस्था और विवेक के कारण वाग्देवी हुई फिर ज्ञान की देवी। प्रयाग में नदियां ही नहीं मिलती, ग्रह गति विशेष में तमाम अन्य दिव्यताएं भी मिलती हैं। महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार मेले में यहॉं माघ अमावस में तीन करोड़ दस हजार अन्य तीर्थ भी आते हैं। यह उल्लेख असाधरण प्रकृति का है। ये तीन करोड़ तीर्थ हैं क्या? महाभारत काल मेले में आने वाले भारत के आस्थालुओं की संख्या तो नहीं बता रहा है? आस्था आपूरित चित्त भी तीर्थ जैसा होता है। जैन परंपरा में दिव्य महानुभावों को तीर्थंकर कहा गया है। प्रयाग में ऋतुएं मिलती हैं। नदियां मिलती हैं। मन मिलते हैं। प्रीति खिलती है। रीति मिलती है। बुद्धि और भाव का संगम होता हैै। संगम भी परस्पर संगमन करते हैं तब पृथ्वी आकाश की प्रीति में उगता है तीर्थराज। ऐसी प्रीतिपूर्ण आस्था का विकास सदियों में होता है। आस्था अंधविश्वास नहीं है। सहस्त्रों आंखें वर्षानुवर्ष देखती हैं। पत्थर सघन रजकण की निर्मिति है। बुद्धि, तर्क करती है, वितर्क करती है। इन्द्रियबोध उन्हें पत्थर ही देखता है लेकिन भाव विह्वल होता है। पत्थर में देवता दिखाई पड़ते हैं। पत्थर पूजने वाले अंध श्रद्धालु नहीं है। वे पत्थर के भीतर प्राकृतिक संवेदन पाते हैं। मूर्ति उपासना में पदार्थ नहीं भाव की ही महत्ता है। मूर्तियां मनुष्य गढ़ते हैं। वे बाजार में बिकती हैं। उन्हें कोई प्रणाम नहीं करता। आस्थालु बाजार से मूर्ति लाते हैं। पुरोहित मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा का कर्मकाण्ड करते हैं। मूर्ति गढ़ने और उनमें प्राण भरने का काम मनुष्य ही करते हैं। प्राण जीवन का आधार है। जब तक प्राण तब तक प्राणी। मूर्ति निष्प्राण होती है। मनुष्य उनमें प्राण भरते हैं, फिर स्वयं उपासना भी करते हैं। मूर्ति स्थूल माध्यम से सूक्ष्म देखने का उपकरण है। इसीलिए मंदिर में जाने को मूर्ति देखना नहीं कहते। दर्शन करना कहते हैं। तीर्थ भी ऐसे ही है। तीर्थ अज्ञेय के प्रति जिज्ञासा की मनोदशा निर्मित करते हैं। प्रयाग में सैकड़ों वर्ष से करोड़ों लोग आ रहे हैं। उनकी प्रीति, ऋद्धा, नीराजन, स्वस्तिवाचन से प्रयाग में एक विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण हो गया हो तो आश्चर्य क्या है? ऐसा विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र संपूर्ण सुचालक संवेदनशील को ही स्पर्श करता है। कुचालक इससे वंचित रह जाते हैं संभवत:।

हृदयनारायण दीक्षित

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