भरत मुनि का नाट्य शास्त्र प्राचीन ग्रंथ
हृदयनारायण दीक्षित : अभिनय असाधारण कला है। भारत में इसका उद्भव यूनानी नाटकों से प्राचीन है। ऋग्वेद में इसके मूल सूत्र हैं। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र प्राचीन ग्रंथ है। इसमें सुव्यवस्थित नाट्य कला का दिग्दर्शन है। स्वाभाविक ही इस विद्या का विकास हुआ है। भरत मुनि ने इसका श्रेय ब्रह्मा व शिव को दिया है। उन्होंने नाट्य शास्त्र को नाट्य वेद कहा है। ब्रह्मा और शिव आदि से भरत का अभिप्राय प्राचीन परंपरा से है। ‘नाट्य वेद’ का अभिप्राय नाटक की विद्या को वेद का भाग बताना है। बताते हैं कि नाटक की तैयारी पूरी हो जाने पर उन्होंने ब्रह्मा से आगे की कार्रवाई के सम्बंध में प्रश्न पूछा। ब्रह्मा ने कहा “इस समय अभिनय के लिए फिर से अच्छा अवसर आया है। असुरों पर देवों की विजय का इन्द्र ध्वज महोत्सव चल रहा है। इसी महोत्सव में नाट्य वेद का प्रयोग करना चाहिए।” (नाट्य शास्त्र, भरत मुनि, अध्याय 1.53-54) फिर से अच्छज्ञ अवसर का अर्थ है कि नाटक पहले भी थे। सो यह नाटक भी सम्पन्न हुआ। पुस्तक के अनुसार ब्रह्मा आदि देवों ने नाटक देखकर प्रसन्न्ता व्यक्त की। सबने नाटक के जरूरी उपकरण पुरस्कार में दिये।
देवों का उल्लेख कथावाचन की परंपरा है। असली बात है नाट्यकला का विकास। नाटक में असुरों की निंदा थी, देवों की प्रशंसा थी। देव प्रसन्न हुए। असुर क्रोध में आए। दूसरे देवासुर संग्राम की स्थिति बनी। असुरों के लिए नाटक बर्दास्त के बाहर था। विध्नकारी दैत्यों ने असुरों के साथ मिलकर नाटक पर हमला कर दिया। इन्द्र ने रक्षा की। (वही 69-70) विध्नकर्ताओं का भय तो भी था। ब्रह्मा ने विश्वकर्मा से कहा कि आप सुंदर नाट्यशाला बनाइए। उन्होंने नाट्यशाला बनाई। (वही 79-81) स्पष्ट है कि पहले नाट्यशालाएं नहीं थी। नाट्यशाला का निर्माण संभवतः नाटक में होने वाले उपद्रवों को ध्यान में रखकर किया गया है। नाटक विद्या के विकास का यह अगला चरण हैं
नाटक में विध्न का भय तब भी था। नाट्यशाला निर्माण से ही नाटक में होने वाले उपद्रवों से रक्षा संभव नहीं थी। नाट्यशास्त्र में रक्षकों की नियुक्ति का वर्णन बड़ा रोचक है। नाट्य मण्डप की रक्षा का भार चन्द्रमा को दिया गया। नेपथ्य क्षेत्र या यूनानी नाटकों वाले ग्रीन रूम की रक्षा का काम मित्र देव को, स्टेज की रक्षा का भार अग्नि को, वाद्य यंत्रों की रक्षा का भार अन्य देवों को मिला। स्तम्भों की रक्षा का भार मनुष्यों को दिया गया। (वही 84-94) यहां सारे देवता ऋग्वेद के हैं। व्यवस्था पूरी करने के बाद ब्रह्मा ने विध्नकर्ताओं से कहा, “आप नाट्य विनाश के लिए क्यों तत्पर हैं? विध्नकर्ताओं ने कहा कि हम और देव सृष्टि के प्रारम्भ में आपसे ही पैदा हुए हैं। लेकिन आपके नाट्य वेद में देवों की प्रशंसा और असुरों का अपमान है। (वही 101-104) इस कथन का अर्थ सीधा है। नाटक के प्रदर्शन से एक वर्ग क्रुद्ध था लेकिन क्रुद्ध वर्ग अलग नस्ल या प्रजाति नहीं था। असुर भिन्न नस्ल नहीं थे। असुरों ने ब्रह्मा से कहा कि “यथा देवस्त तथा दैत्यास्त्वतः सर्वे विनिर्गताः। (श्लोक 104) देव दैत्य एक परिवार से थे।
कला, गीत संगीत और काव्य मनुष्य को उदात्त बनाते है। संस्कृति मनुष्य को उदात्त बनाती है। अभिनय श्रेष्ठ कला है और नाटक का मुख्य भाग है। नाटक में सभी पक्ष होते हैं। उद्देश्यपूर्ण नाटक में सब कुछ होता है। भारतीय नाट्य परंपरा में नाटक का अंत सुखद होता है। नाट्य शास्त्र में नाटक की विषय वस्तु का विस्तार से उल्लेख है “नाट्य में संसार के सभी भावों का अनुकीर्तन है।” (वही 107) अनुकीर्तन ध्यान देने योग्य है। कीर्तन मूल है, अनुकीर्तन अनुसरण है। अभिनय प्रकृति के प्रपंचों का ही पुनसृजन है। आगे कहते हैं, “इसमें कहीं धर्म है, कहीं क्रीड़ा, कहीं अर्थ, कहीं हास्य, कही युद्ध कही काम तथा कहीं वध है।” (वही 108) यहां नाटक में सभी भाव व विषय समाहित हैं।
भारतीय नाट्य कला केवल संपन्नों का मनोरंजन नहीं है। बताते हैं “इसमें धर्म परायणों के लिए धर्म है। काम प्रवृत्तों के लिए काम है। उद्दंडो के लिए दंड है। वीरों के लिए उत्साह है। नाटक अबोध के लिए ज्ञानदाता है और विद्वानों के ज्ञान को बढ़ाने वाला है। इसमें संपन्नों के लिए विलास है। दुख पीड़ितों के लिए स्थिरता व व्याकुल चित्त के लिए धैर्य है। यह अनेक भावों से समन्वित विभिन्न अवस्थाओं वाला है। यह लोकव्यवहार का अनुकरण करने वाला है। (वही 109-112) नाटक का उद्देश्य स्पष्ट है। इसका सम्बंध लोकव्यवहार से है। लोक व्यवहार शब्द भी ध्यान देने योग्य है। नाटक में लोक व्यवहार की प्रमुखता है। लोक व्यवहार का अनुकीर्तन ऋग्वेद की परंपरा है। ऋग्वेद भी लोकमन और लोकप्रज्ञा की अभिव्यक्ति है। भारतीय मान्यता के अनुसार ऋग्वेद में सब कुछ है। भरी पूरी प्रकृति, प्रकृति के सभी प्रपंच, जीव वनस्पति, नदी पर्वत आदि हजारों विषय ऋग्वेद में हैं। मनुष्य जीवन के राग द्वैष, सुख स्वस्ति आनंद, दर्शन और भौतिक विज्ञान के महत्वपूर्ण सूत्र ऋग्वेद में हैं। भरत मुनि भी कहते हैं, “जो नाटक में न मिले, ऐसा कोई ज्ञान, शिल्प, विद्या, कला, योग या अन्य कोई कार्य नहीं है। नाटक में सभी शास्त्रों, सभी शिल्पों और सभी कार्यो का समावेश है इसलिए मैंने इसकी रचना की है।” (वही 117-18) भरत मुनि के अनुसार नाटक में पूरा संसार है। लोक और शास्त्र दोनो ही नाटक के अंग है। नाटक यथार्थ है, अध्यात्म नहीं है।
भरत मुनि शुद्ध संसारी नाट्य विषय लिख रहे थे। उनका ध्यान वेद की ओर से नहीं हटता। वेद इतिहास भी हैं और ज्ञान का संकलन भी। वे नाटक के प्रभाव का विवरण देते समय भी वेद, विद्या और इतिहास को याद रखते हैं। लिखते हैं “यह नाटक संसार में वेद, विद्याओं और इतिहास की गाथाओं की परिकल्पना करने वाला होकर विनोद आनंद का कत्र्ता होगा। यह नाट्य श्रुति, स्मृति, सदाचार और शेष अर्थो की कल्पना करने वाला लोकरंजक होगा।” (वही 122 व 23) भरत का ध्यान श्रुति (वेद) स्मृति और लोक से नहीं हटता। सदाचार का प्रवाह उनका व नाटक का ध्येय है। मनोरंजन इसका उपविषय है। मनोरंजन के रास्ते सदाचार का संवर्द्धन नाटक की प्रगतिशील भूमिका है।
प्राचीन काल के नाटक की अतिविकसित विधा आधुनिक काल का सिनेमा है। नाटकों का मंचन आधुनिक काल में भी चल रहा है लेकिन सिनेमा का विस्तार बड़ा है। भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में अभिनय के सभी मूल तत्व हैं। सिनेमा में भी ज्यादातर वही तत्व हैं। लेकिन तकनीकी के कारण सिनेमा का माध्यम ज्यादा शक्तिशाली है। सिनेमा के निर्माता नाटक या अभिनय के मूल उद्देश्यों के प्रति सजग नहीं जान पड़ते। सिनेमाई अभिनय में देह अभिव्यक्ति ज्यादा है, भाव अभिव्यक्ति कम है। किसी किसी स्तर पर सिनेमा में भी भाव अभिव्यक्ति का सुंदर घनत्व है लेकिन सदाचारहीन देह-प्रेम ज्यादा है। सिनेमा में भरत मुनि द्वारा अपेक्षित मर्यादा सौन्दर्य नहीं के बराबर है। यथार्थ के नाम पर बन रहे सिनेमा में समाज के योजक नेह सम्बंधों को तोड़ने में कोई हिचक नहीं है। भरत ने नाट्यशास्त्र में अभिनय के दौरान गीत, संगीत या नृत्य रखने के अवसर भी समझाएं हैं। सिनेमा में गीत नृत्य के उचित अवसर का ध्यान प्रायः नहीं होता। ‘आईटम सांग’ कभी भी, कहीं भी जोरजबर्दस्ती से घुसा हुआ ही जान पड़ता है।
भरत का उद्देश्य सांस्कृतिक है। तत्व बोध इतिहास बोध के रास्ते समाज के अंतर्मन का संस्कार है। ऋग्वेद के रचनाकार ऋषि प्रकृति के सत्य, शिव और सुंदर को ही काव्य मंत्री द्वारा पुनर्सृजित कर रहे थे। स्वाभाविक ही भारत की प्रेरणा ऋग्वेद है, बाद का वैदिक साहित्य है। गंधर्व विद्या है। शिव है, शिव का नृत्य है। वे शास्त्र से रस लेकर लोक को रसपूर्ण करते हैं। लोक रस के अतिरेक से शास्त्र को समृद्ध करते हैं। नया वेद नाट्य शास्त्र रचते हैं। सिनेमा न संस्कृति से रस लेता है और न ही भरत मुनि के नाट्य शास्त्र से ही प्रेरित होता है। मूल उद्देश्यों में अंतर है। सिनेमा का उद्देश्य अर्थाजन है। भरत का उद्देश्य लोक रंजन व संस्कृति संवर्द्धन है और इस आनंदी संस्कृति का मूल स्रोत ऋग्वेद है।
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)