भविष्य के युद्धों के लिए सही आकार सेना की क्षमता को मजबूती देगा
यह नई दिल्ली में कड़ाके की सर्दियों की सुबह है. जनरल बिपिन रावत चमकीला नीला ब्लेजर और कत्थई रंग की फौजी टाई पहने हैं. वे मजाक में कहते हैं कि अगर यूनिफॉर्म न पहनी हो तो उन्हें पहचानना वाकई मुश्किल हो जाता है. 4 राजाजी मार्ग पर उनके सरकारी आवास आर्मी हाउस का माहौल और कुछ भी हो, अनौपचारिक तो कतई नहीं. वर्दीधारी कारिंदे चाय लाते हैं और उनकी सुरक्षा में तैनात विशेष बल के जवान पहरेदारी कर रहे हैं. जनरल रावत अपने पसंदीदा प्रोजेक्ट के बारे में बात करते हैं, जिसमें सेना को नए सिरे से ढालने और सही आकार में लाने की इतनी बड़ी कसरत अमूमन पहली बार चलाई जा रही है. वे उम्मीद जाहिर करते हैं कि इससे तादाद घटेगी और सेना की लडऩे की क्षमता में इजाफा होगा. सेना प्रमुख एक विस्तृत साक्षात्कार में एग्जीक्यूटिव एडिटर संदीप उन्नीथन को दोटूक बता रहे हैं कि सेना में यह कायापलट क्यों वक्त की जरूरत है और इससे सेना को कैसे नया रंग-रूप मिलेगा. प्रस्तुत हैं बातचीत के अंशः
प्र. आपने जो सुधार प्रक्रिया शुरू की है, उसका मकसद क्या है?
इसके तीन मकसद हैं—हमारी क्षमताओं को मजबूत करके भविष्य के युद्धों के लिए तैयार होना, ज्यादा चुस्त-दुरुस्त बनना और हमारे बजट का बेहतर प्रबंधन करना.
भारतीय सेना को भविष्य में जिस तरह का युद्ध लडऩा पड़ सकता है, उनकी परिकल्पना आप कैसे करते हैं?
हिंदुस्तान की उत्तरी सरहदें अस्थिर हैं और कुछ हद तक पश्चिम की सरहदें भी, जहां पाकिस्तान के रूप में एक ऐसा दुश्मन हमारे सामने है जिसके साथ हम तालमेल नहीं बिठा पाए हैं. लिहाजा सरहदों पर हमें अपनी मौजूदगी बनाए रखनी है, हम चौकसी घटा नहीं सकते. हमें सैन्य टुकडिय़ों की जरूरत है, जो हमारी आंख और कान हैं, जो हमेशा के लिए सरहदों पर तैनात नहीं की गई हैं पर अगर ऐसे हालात पैदा होते हैं तो मोर्चे पर बनी रहें. हम मानवबल आधारित सेना हैं. दूसरा नजरिया यह है कि जंग की फितरत बदल रही है. भविष्य की जंग कैसे लड़ी जाएंगी? पहले छोटी-छोटी कार्रवाइयों की जंग होती थी जो लंबी चलती थीं और जो टिका रहता था वह विजेता होता था. अब जंग उस तरीके से नहीं लड़ी जाएंगी. दुश्मन अलहदा तरीकों से जंग को अंजाम देंगे, ऐसी जंग जिनमें कोई संपर्क या आमना-सामना नहीं होगा—साइबर जंग, मनोवैज्ञानिक जंग और कानूनी जंग.
हमें तकनीक का फायदा उठाना है—अंतरिक्ष आधारित प्रणालियां और लंबी दूरी की निगरानी प्रणालियां. अगर आपको सूचनाओं का मुकाबला करना है और मनोवैज्ञानिक जंग लडऩी है, तो आपके सैन्य बलों में ऐसे संगठन होने चाहिए जो ऐसे मसलों से निपट सकें. सेना के भीतर कुछ संगठन बेकार हो चुके हैं. सही आकार में लाने का यह काम सैन्य बलों की क्षमताओं को मजबूत करने, उन्हें ज्यादा चुस्त-दुरुस्त बनाने और भविष्य की जंग के लिए तैयार करने के लिए हो रहा है. तो जहां हमें आमने-सामने और दूर की लड़ाई के लिए तैयार होना होगा, वहीं हमें तकनीक को आत्मसात करना होगा. रणनीति और ढांचों को नई साइबर जंग और अंतरिक्ष आधारित तत्वों के साथ नए सिरे से संगठित करना होगा.
तो क्या इसका मतलब यह है कि आपको सरकार से मौजूदा बजट आवंटन से ऊपर और ज्यादा रकम नहीं मिलने जा रही है?
योजनाएं हैं जिन्हें सरकार की मंजूरी मिली है और जिनके लिए आश्वासन मिला है. ऐसी जरूरतों के लिए सरकार को हमें रकम देनी होगी. कल अगर राफेल आने जा रहे हैं तो आपको उनका भुगतान करना होगा. हमें बड़ी तादाद में होवित्जर मिलेंगी, उनके लिए रकम मुहैया करनी होगी.
नई चुनौतियों का सामना करने के लिए सेना कब तक तैयार हो जाएगी?
सेना मुख्यालय के पुनर्गठन सरीखे कुछ बदलाव फौरन शुरू हो जाएंगे. साइबर युद्ध और अंतरिक्ष आधारित प्रणालियों के लिए हमें नए वर्टिकल की दरकार है. समानांतर ढांचों की भी ताकि एक एजेंसी दूसरी एजेंसी से बात कर सके. हमें यह भी देखना है कि हम दूसरी दो सेनाओं से अपने को कैसे अच्छी तरह जोड़ते हैं. नौसेना, सेना और वायु सेना इस मामले में अलग नहीं हैं. हम समान प्रणालियों पर काम कर रहे हैं और हमारा अंतिम लक्ष्य समान है. अगर अंतिम लक्ष्य साझा है तो हम पूछ यह रहे हैं—हम एक साथ क्यों नहीं जुड़ सकते?
तो इसके साथ आप समन्वय की प्रक्रिया शुरू करने जा रहे हैं?
हां, इससे (पुनर्गठन से) समन्वय (अन्य सेनाओं के साथ) की प्रक्रिया भी शुरू होगी. यह इसे देखने का हमारा तरीका है. इस तरीके से हम जुड़ेंगे भी और जॉइंटमैनशिप को भी पूरा करेंगे. यह भी नए सिरे से ढालने की इस प्रक्रिया का हिस्सा है.
क्या अन्य सेनाएं साथ आ रही हैं?
हां, वे आ रही हैं. हम मुख्यालयों के भीतर संयुक्त स्टाफ रखने के प्रस्तावों पर आगे बढ़ रहे हैं. संयुक्त स्टाफ रखने का मतलब यह है कि सेना, नौसेना और वायु सेना के मुख्यालयों में एक-दूसरे का स्टाफ होगा. यह आगे का रास्ता है. फिलहाल मुख्यालय में संयुक्त स्टाफ यानी इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ (आइडीएस) है, पर क्या हम कमान और कोर में संयुक्त स्टाफ नहीं रख सकते? हम इसी की पड़ताल में लगे हैं. मुख्यालय में स्टाफ रखना तो अगले 4-5 महीनों की समय सीमा में हो जाएगा.
सेना बख्तरबंद गाडिय़ों, तोपों और पैदल सेना को मिलाकर इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप (आइबीजी) की अवधारणा पर काम कर रही है. यह कैसे काम करेगा?
आइबीजी एक ऐसी अवधारणा है जिसके हमें सिलसिलेवार परीक्षण करने होंगे. हम सैन्य टुकडिय़ों से कह रहे हैं कि वे अभ्यास आयोजित करके देखें कि यह किस तरह कारगर होगी. हमने उन्हें एक खाका दिया है और उन्हें (उसके अनुरूप) अभ्यास आयोजित करने होंगे और फिर वे सुधारों के साथ हमारे पास आएंगे कि इसमें कैसे बदलावों की जरूरत है. हमें दिए गए लक्ष्य, भूभाग और कार्रवाई के माहौल के मद्देनजर हरेक आइबीजी को देखना होगा.
जब जंग लडऩे की बात आएगी तो कोल्ड स्टार्ट क्या अब भी विकल्प है?
कोल्ड स्टार्ट क्या है? कोल्ड स्टार्ट खुद सक्रिय होकर बेहद तेज रक्रतार से आगे बढऩा है. ऐसा हो चुका है और अगर आप देखें कि पहले हम कहां थे, तो तमाम चीजें आगे बढ़ी हैं. यह (कोल्ड स्टार्ट का सिद्धांत) कहता है कि आप तब तक कोल्ड स्टार्ट नहीं कर सकते जब तक सिस्टम्स को सरहद पर नहीं ले जाते. यह लगातार चलने वाली चीज है और अब भी हो रही है.
आप जिन तमाम सुधारों पर जोर दे रहे हैं, क्या सरकार उनमें आपके साथ है?
हमें पूरी उम्मीद है. असल में मैं पुनर्गठन के बारे में इतनी बेबाकी से बोलता हूं तो इसीलिए कि सबको पता चले कि सेना के भीतर कुछ हो रहा है. मुझे पूरा यकीन है कि हर कोई यह बात समझता है कि यह हमारे संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल, बजट के बेहतर प्रबंधन और दक्षता में सुधार लाने के लिए है. अगर इसके साथ ये तीन सिद्धांत जुड़े हैं तो मैं नहीं सोचता कि इसका (सरकार की तरफ से) कोई विरोध होगा.
फिलहाल आपका ज्यादातर बजट राजस्व खर्च में चला जाता है और पूंजी केवल 17 फीसदी है. क्या आपको सरकार से गारंटी मिली है कि अगर राजस्व के खर्च कम कर लें, तो ज्यादा पूंजी मिलेगी?
इसे जरा ठीक उलटा करके देखें. आज अगर मैं सैन्य बल में महज 10,000 कटौती कर लूं, तो इसका मतलब होगा 10,000 कम तनख्वाहें, 10,000 कम पेंशन…तो पूंजी के अनुपात में राजस्व अपने आप बदल गया है. गारंटी एक अलग मसला है. हां, मुझे पूरा यकीन है कि सरकार हमारी सहायता करेगी. जब हम उनसे कहेंगे कि ‘‘हम आधे रास्ते आ गए हैं, क्या आप भी तैयार हैं?ʼʼ तो मुझे यकीन है कि वे समझेंगे.
अपने उत्तराधिकारियों के बारे में क्या कहेंगे, वे इन प्रस्तावों का समर्थन करते हैं?
तभी तो मैंने यह काम अकेले नहीं किया. मौजूदा आर्मी कमांडरों को इसमें साथ लिया है. उनमें से ज्यादातर मेरे उत्तराधिकारी के सहयोगी भी रहने वाले हैं. मैंने सेवानिवृत्त दिग्गज सैनिकों की बिरादरी को भी साथ लिया है और उनके साथ इस पर चर्चा की है. यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो दबे-छिपे ढंग से की जा रही हो. सेना में ढेरों चीजें की गई हैं जो सेना मुख्यालय में फैसले लिए जाने के बाद नीचे की जमातों तक पहुंची हैं. इसे हम इस तरह नहीं कर रहे हैं. आज हर कोई जानता है कि कुछ हो रहा है. लोगों को लगता है कि यह (सुधार) अच्छा नहीं है, तो उन्हें साफ-साफ अभी कह देना चाहिए.
इस पुनर्गठन की रोशनी में माउंटेन स्ट्राइक कोर क्या अब भी अहम है?
हां, यह बेहद कीमती है. यह आगे बढ़ रही है. हम माउंटेन स्ट्राइक कोर को भी नए सिरे से ढाल रहे हैं, ताकि इसे ज्यादा से ज्यादा चुस्त और ज्यादा सक्षम बना सकें. मुझे लगता है, पहाड़ों में आपको फोर्स के भीतर ज्यादा चुस्ती-फुर्ती, ज्यादा तेजी से बदलने की क्षमता चाहिए होती है. इसलिए इसे नए सिरे से ढालते हुए हम इसके आकार में कतरब्यौंत कर रहे हैं, हम लॉजिस्टिक्स की ढेरों चीजों को कम कर रहे हैं. 1962 में देश खासकर सरहदी इलाकों में इतना ज्यादा विकसित नहीं था. आज हम जो वाहन खरीदते हैं—मारुति या टाटा—उनके बिक्री केंद्र की सुविधाएं वहां सरहद पर ही मौजूद हैं… इसलिए खुद मरम्मत की सुविधाएं खड़ी करने के बजाए हम उनकी सेवाएं सरहद पर सीधे ले सकते हैं. हम बहुत सारा काम आउटसोर्स करने की सोच रहे हैं. हमारी कुछ इमारतें, ऑर्डनेंस फैक्टरियां, बेस वर्कशॉप वगैरह…देखना होगा कि क्या हम इनमें सिविलियन मॉडल को शामिल कर सकते हैं.
कितने सैनिकों की कटौती की जाएगी, 1,00,000 या ज्यादा?
आंकड़े आखिर में तब पता चलेंगे जब हम परीक्षणों का सिलसिला खत्म कर लेंगे. आपने जिस आंकड़े का जिक्र किया, वह इस बात पर निर्भर करेगा कि कितने परीक्षण कामयाब होते हैं. तो वांछित आखिरी पायदान वह (1,00,000 से ज्यादा) है, मगर हम वहां पहुंचेंगे या नहीं, मुझे नहीं पता. अगर हमारे सारे परीक्षण कामयाब होते हैं, तो हम 1,50,000 के आंकड़े की तरफ देख रहे हैं. मगर नई बढ़ोतरियों की भी जरूरत है. तो जहां हम बचत कर रहे हैं, वहीं इसमें से कुछ नई बढ़ोतरियों में वापस चली जाएंगी. तो आखिर में आंकड़ा इसका दो-तिहाई हो सकता है.
किन बदलावों की तरफ देख रहे हैं?
हम अफसर काडर के पुनर्गठन की सोच रहे हैं, प्रोमोशन की संभावनाओं को बेहतर बनाना चाहते हैं. हमारा पिरामिड जैसा ढांचा है और इसकी वजह से किसी न किसी तरह यह बात मन में उठती है कि अफसर पीछे छूटते जा रहे हैं. हम सेवा शर्तों में सुधार लाने के तरीकों को भी देख रहे हैं. एक जवान 18-20 साल की उम्र में सेना में आता है और 15 साल तक काम करता है, फिर घर लौट जाता है, पेंशन कमाता है. हम देख रहे हैं कि क्या उसे 35-37 साल के बाद भी रख सकते हैं. बेहतर स्वास्थ्य देखभाल की बदौलत आज हमारी आबादी की जिंदगी ज्यादा लंबी हो रही है.