उत्तर प्रदेशदस्तक-विशेष

भाजपा की राह आसान नहीं

बृजेश शुक्ल
जहां एक ओर अखिलेश यादव के लिए करो या मरो की लड़ाई है, मायावती के लिए यह अस्तित्व बचाने की लड़ाई है, तो वहीं भाजपा के लिए यह चुनाव उसके 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में दिशा और दशा तय करेगा। लेकिन भाजपा के लिए यह चुनाव बहुत आसान नहीं बचा। पार्टी की रणनीति में कहीं न कहीं चूक हुई है, उसके राह में कई रोड़े आये हैं। प्रदेश के चुनावी दौरे के हर मोड़ पर यह साफ दिखा कि जो भाजपा आसानी से चुनावी धारा को पार कर सकती थी, उसने टिकट वितरण के नाम पर ही भारी चूक कर दी है। यह तब हुआ है, जब पार्टी यह दावा कर रही थी कि वह तमाम जांच पड़ताल के बाद ही प्रत्याशियों को टिकट देगी। उत्तर प्रदेश के चुनावी रणभूमि में इस बार निष्ठाओं का कोई महत्व नहीं बचा। इस बहस के बीच और बाहरियों को बड़ी संख्या में टिकट दिये जाने के बाद भाजपा चुनावी मैदान में उतर चुकी है, उसे लगता है कि जो दांव उसने खेला है, वह पार्टी की नैया पार लगा देगा। लगभग तीन दर्जन ऐसे जिले हैं, जहां टिकट वितरण गलत हुआ है। इसका असर उसके चुनावी अभियान में पड़ रहा हैं। लेकिन क्या पार्टी कार्यकर्ता अपने प्रत्याशियों के साथ खड़े है, क्या असर हो रहा है बाहरियों को टिकट देने का। चुनाव परिणामों पर इसका क्या असर होगा, क्या पार्टी को इसके परिणाम भुगतने होंगे या इस नई रणनीति से वह बेहतर परिणाम हासिल कर लेगी। यदि चुनावी माहौल पर नजर डालें तो साफ लगता है कि भाजपा नेताओं का बहुत सा समय इस बात में गुजर गया कि कैसे नाराज कार्यकर्ताओं को मनाया जाये।
जिताऊ के नाम पर जो रेवड़ियां बांटी गईं, उसका बड़ा हिस्सा बाहरी ले गये। यह विडम्बना ही है कि भारतीय जनता पार्टी जैसे दल जो चाल और चरित्र की बात करते थे, अब अपना दांव किसी भी जिताऊ पर लगाना चाहते हैं। भाजपा के मुख्यालय में देवरिया से आये एक कार्यकर्ता राकेश सिंह कहते हैं- “अब भाजपा जैसे दल भी धर्मशाला हो गये हैं, जहां पर उन लोगों की पूछ ज्यादा है, जो बाहुबली भी हैं और धनबली भी। जब जीतने का ही पैमाना होगा, तब आप ऐसो पर ही दांव लगायेंगे।” इस चुनाव में राजनीति का जो चरित्र उभरा है वह भय पैदा करता है और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति हमारी कमजोरी को भी दर्शाता है। जब मैंने चुनावी सर्वेक्षण के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश से अपनी यात्रा शुरू की, तब लगा कि राजनीति में धन और बल कितना महत्वपूर्ण हो गया है। इस मुद्दे पर भाजपा कार्यकर्ताओं में गहरी नाराजगी है और इसका प्रभाव पार्टी के चुनाव प्रबंधन पर भी पड़ा है। वैसे तो आयातित नेताओं को टिकट देने में कोई दल पीछे नहीं है। हर जगह इसी बात का शोर है कि कार्यकर्ता पीछे डाल दिये गये हैं। हर दल को दूसरे दलों के नेताओं में ज्यादा कूबत दिखती है, अपने दल के नेता उन्हें कमजोर लगते हैं। इन तमाम दांवों- प्रतिदावों के बीच चुनावी माहौल ज्यों ज्यों बन रहा है, पार्टी कार्यकर्ता फिर एकबार मोदी के नाम पर अपनी पार्टी के साथ ही खड़े हो रहे हैं।
आगरा में पार्टी ने सपा सरकार के मंत्री रहे अरिदमन सिंह को शामिल किया, उनकी पत्नी पक्षालिका सिंह अब बाह से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रही है। बाह क्षेत्र का दौरा करने पर साफ लगता है कि भाजपा ने बिना आंकलन के उन्हें अपनी पार्टी में शामिल किया, लेकिन अब धीरे-धीरे कार्यकर्ता पार्टी के साथ जुड़ने लगे। वास्तव में भाजपा कार्यकर्ताओं में मोदी को जिताने का जो जुनून है वह पार्टी की तमाम गलतियों पर भारी पड़ रहा है। एक परिवर्तन साफ दिखता है वह है अति पिछड़े वर्ग में। जो अतिपिछड़ा वर्ग सपा और बसपा के बीच बंटा था, वह अब भाजपा के साथ आ खड़ा हुआ है। फिरोजाबाद में रामेश्वर मौर्य कहते हैं कि अति पिछड़ा वर्ग की मजबूरी है कि कहां जाये, जब बसपा आती है, तो एक जाति के थानेदार थानों में दिखने लगते है, जब सपा आती है, तो एक दूसरी जाति के थानेदार थानों में बैठे मिल जाते है।ं आखिर सामाजिक न्याय की बात करने वाले पूरे वर्ग की बात क्यों नहीं करना चाहते। इससे लोग निराश हुए हैं और अति पिछड़े वर्ग के लोग दूसरी तरफ देख रहे हैं। इसका लाभ बीजेपी को मिल रहा है। 2014 में जैसी मोदी लहर थी वह अब नदारत है। तब सिर्फ लोग मोदी के नाम पर वोट देना चाहते थे, जातियां पृष्ठभूमि में चली गई थी। अब विधानसभा चुनाव में जातीय समीकरण एक बार फिर प्रभावी दिख रहे हैं। इस जातीय समीकरण का तोड़ भाजपा के पास नहीं है। आगरा के बाह में ही लोकसभा चुनाव में ब्राह्मण भाजपा के साथ खड़े थे। इस चुनाव में बसपा ने ब्राह्मण प्रत्याशी खड़ा कर दिया है इसलिए बड़ी संख्या में वोट बसपा को जा रहा है। बाह के ही रामू शर्मा बताते हैं कि बसपा के प्रत्याशी ब्राह्मण है। वह अपने लोगों के लिए संघर्ष करते रहते हैं। इसलिए ब्राह्मण हाथी को वोट देगा। जब लोकसभा चुनाव आयेगा, तब फिर मोदी के साथ खड़ा हो जायेगा। लेकिन यह दिक्कत केवल भाजपा के साथ नहीं है। यह समस्या तो बसपा और सपा के साथ भी है। बसपा और सपा में इस बात की होड़ रही कि कौन कितने मुस्लिम प्रत्याशी उतारता है। रोज अपनी-अपनी संख्या बताई जाती रही। मुस्लिम वोट के लिए जो होड़ चली उससे भाजपा को फायदा हुआ है। रूहेलखण्ड में यह साफ-साफ नजर आता है। बरेली के भोजीपुरा में बब्लू कश्यप कहते हैं कि हम लोग तो समाजवादी पार्टी के समर्थक थे, कभी हाथी को वोट दे देते थे, कभी साइकिल को, लेकिन किसी के मुँह से आपने कश्यप, बिंद, कुम्हार, आदि जातियों का नाम सुना। नहीं सुना न। यहां तो सब मुसलमान मुसलमान रट रहे है। इसलिए इस बार न सपा को वोट दूंगा, न बसपा को, इन दलों को हमारे वोट की जरूरत नहीं है। जिनके वोट की जरूरत है, वहीं देंगें। भाजपा ने किसानों के कर्ज माफी व आगे से ब्याज मुक्त कर्ज देने का वादा कर कांग्रेस के इस मुहिम को कुंठित कर दिया है, जो राहुल गांधी ने अपनी खाट यात्रा के दौरान चलाया था। किसानों का कर्ज माफ, बिजली बिल हॉफ के नारे को भाजपा ने लपक लिया है।
बुन्देलखण्ड के हमीरपुर में देवेन्द्र सिंह कहते हैं कि लोगों को लगता है कि दिल्ली में जिसकी सरकार है, उसके कर्ज माफी वादे पर ज्यादा भरोसा किया जा सकता है। लेकिन इन तमाम स्थितियों के बावजूद भाजपा की चुनौती कठिन है। मुस्लिम मतदाता भाजपा को हराने के लिए एकजुट हैं। यह तथ्य चौंकाता है कि 403 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा ने एक भी सीट पर मुस्लिम प्रत्याशी नहीं उतारा। वास्तव में सबका साथ, सबका विकास का दावा करने वाली भाजपा के नेताओं को उत्तर देना ही पड़ेगा कि यह उनका कैसा साथ है। सिर्फ इस उत्तर से काम नहीं चलने वाला कि वह सबका साथ, सबका विकास चाहते हैं। फिर यदि मुस्लिम समाज भाजपा के प्रति उद्वेलित होता है तो इसमें आश्चर्य कैसा। 

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