दस्तक-विशेषदिल्ली

मुंबई से भी अहम दिल्ली नगर निगम के चुनाव!

राम शिरोमणि शुक्ल
अभी लोग बनारस के क्योटो बनने का इंतजार ही कर रहे हैं कि अब दिल्ली वालों को लंदन बनने का सपना दिखा दिया गया है। यह चुनाव का समय है और जब चुनाव आता है तो लोगों के लिए बड़े-बड़े सपने दिखाए जाते ही हैं। वे कितना पूरा होते हैं, इसे मापने का न किसी के पास समय होता है और न कोई इसका मौका देता है। इस पचड़े में पड़ने के पहले ही कई नए पचड़े फैला दिए जाते हैं ताकि उसमें पुराना भूल जाएं और नए के फेर में उलझ जाएं। दिल्ली वाले भी मुफ्त बिजली-पानी और अच्छी शिक्षा तथा अच्छा उपचार पा चुके हैं तो यह भी मान ही सकते हैं कि अब उनकी राजधानी लंदन जैसी भी हो सकती है। जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बनारस को क्योटो बना दिया और जैसे अब उत्तर प्रदेश के नए-नए मुख्यमंत्री बने योगी आदित्य नाथ उत्तर प्रदेश को अपराध मुक्त बना देने वाले हैं।
यह सब उसी तरह हो जाएगा जैसे भारत को कांग्रेस मुक्त बना दिया गया। जब चुनाव होता है तो यह सब होता ही है, लेकिन इस सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यह उभर कर सामने आ रहा है कि नगर निगम के चुनाव इतने महत्वपूर्ण कैसे होते जा रहे हैं, जो कभी एकदम स्थानीय हुआ करते थे। दिल्ली नगर निगम चुनावों की महत्ता का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी यह कह रहे हैं कि वहां भाजपा प्रचंड बहुमत से जीतेगी। भाजपा नीतीश की या उनकी पार्टी की कोई गठबंधन वाली पार्टी नहीं है। कभी थी। अब नहीं है तो उनके इस कथन के निहितार्थ निकालने का यह उपयुक्त अवसर नहीं है। इसके बावजूद यह तो कहा ही जा सकता है कि दिल्ली नगर निगम चुनाव में कुछ ऐसा जरूर है जिसकी वजह से नीतीश कुमार जैसा अनुभवी नेता इस तरह की बात कह रहे हैं।
वैसे अगर नीतीश कुमार न भी कहते और उनके कथन को किनारे भी कर दिया जाए, तब भी दिल्ली नगर निगम के चुनाव को हलके में नहीं लिया जा सकता। इसे मुंबई नगर निगम चुनावों के संदर्भ में देखा और समझा जा सकता है। पहले भी मुंबई नगर निगम के चुनाव हुए हैं, लेकिन तब वे स्थानीय स्तर चाहे जितने महत्वपूर्ण होते रहे हों, राष्ट्रीय स्तर पर उनको लेकर बहुत चर्चाएं नहीं हुआ करती थीं। इस बार इसके ठीक विपरीत हुआ। यह इसलिए हुआ क्योंकि इस बार लंबे समय से गठबंधन में रहीं दो पार्टियां शिवसेना और भाजपा ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। चुनाव के पहले भी शिवसेना और भाजपा के बीच खूब लड़ाई हुई। दोनों ही पार्टियां अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश में थीं। यहां तक कयास लगाए जाने लगे थे कि दोनों पार्टियों का लंबे समय से चला आ रहा गठबंधन टूट भी सकता है और शिवसेना खुद को महाराष्ट्र और केंद्र सरकार से खुद को अलग भी कर सकती है। हालांकि इसकी संभावना तब जताई जा रही थी जब शिवसेना मुंबई नगर निगम में भारी बहुमत हासिल कर लेती और भाजपा पीछे छूट जाती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दोनों ही पार्टियों का अच्छा प्रदर्शन रहा। शेष कांग्रेस, एनसीपी और राज ठाकरे की पार्टी को एक तरह से मतदाताओं ने नकार ही दिया।
चुनाव के बाद मजबूरी में ही सही वहां गठबंधन कायम रह गया है। लेकिन अलग चुनाव लड़ने की गूंज पूरे देश में सुनाई देती रही। वहां मुख्य विवाद इसको लेकर था कि भाजपा खुद को यह मानकर चल रही थी कि केंद्र से विधानसभाओं (कुछ को छोड़कर) तक उसका विजय का सिलसिला जारी है तो वह मुंबई नगर निगम चुनाव भी जीत लेगी। शिवसेना यह बताना चाहती थी कि वहां वह बड़ी ताकत है और उसके बिना भाजपा ज्यादा कुछ नहीं कर पाएगी। परिणामों से पता चला कि इस अर्थ में भाजपा वाकई ज्यादा कुछ नहीं कर सकी कि बहुमत हासिल कर लेती, लेकिन वह शिवसेना से थोड़ा ही कम रही। मजबूरी में ही सही उसे मेयर पद शिवसेना को देना पड़ा। लेकिन वह यह जरूर साबित करने में सफल रही कि अब उसकी स्थिति शिवसेना के भरोसे रहने से काफी आगे निकल चुकी है और भाजपा अपने बूते भी मुंबई नगर निगम पर कब्जा कर सकती है। उसे लोगों का व्यापक समर्थन हासिल है। वह शिवसेना की पहले की तरह मोहताज नहीं रह गई है।
दिल्ली नगर निगम के चुनाव अन्य कारणों से भी काफी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि यह दिल्ली विधानसभा के ही चुनाव थे जो लोकसभा चुनावों के तत्काल बाद हुए थे। लोकसभा चुनाव में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला था और उसके नेतृत्व में केंद्र में एनडीए गठबंधन की सरकार बनी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता लोगों के सिर पर चढ़कर बोल रही थी। यह आम समझ बनी थी कि मोदी अपराजेय बनकर उभरे हैं और निकट भविष्य में अब भाजपा को कोई हरा नहीं सकता। ठीक ऐसे ही समय में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए थे। तब इस चुनाव में उस कांग्रेस का तो एकदम से सफाया ही हो गया था जिसकी लगातार तीन बार वहां सरकार थी। भाजपा का भी कहा जा सकता है कि एक तरह से सूपड़ा साफ हो गया था। उसे कुल तीन सीटें ही मिल सकी थीं। मोदी के विजय रथ को तब नई-नई ही बनी आम आदमी पार्टी (आप) ने रोक दिया था। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में इस पार्टी को दिल्ली की जनता ने अपार समर्थन दिया और वह सत्ता पर काबिज हो गई। यह भाजपा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के लिए बहुत करारा झटका था। अब दिल्ली नगर निगम के चुनाव इस झटके का हिसाब लेने के लिहाज से अहम हो गया है। हालांकि दिल्ली के तीनों नगर निगमों में अभी भाजपा का ही कब्जा है।
भाजपा के लिए कई अन्य कारणों से भी दिल्ली नगर निगम के चुनाव काफी अहम हो जाते हैं। अभी हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसे सिर्फ एक राज्य पंजाब में हार का सामना करना पड़ा है। भाजपा इससे संतोष कर सकती है कि पंजाब में वह मुख्य पार्टी नहीं थी। वहां वह अकाली दल की सहयोगी पार्टी थी। इसलिए वहां की हार अकाली दल की हार है। इसके अलावा चारों राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भाजपा की सरकार बन चुकी है। उत्तर प्रदेश में तो उसे प्रचंड बहुमत मिला जबकि उत्तराखंड में भी वह बहुमत के साथ सत्ता में आ गई। गोवा और मणिपुर में उसे बहुमत नहीं मिला, इस कारण कुछ विवाद भी रहे। इसके बावजूद सत्ता मिल चुकी है। ऐसे में उसके लिए दिल्ली नगर निगम चुनावों को फिर से जीत लेना बहुत जरूरी हो गया है। इससे एक तो वह यह साबित कर सकेगी कि आप का करिश्मा खत्म हो चुका है, दूसरे यह भी कि वह अपराजेय हो चुकी है। यह अलग बात है कि तीनों नगर निगमों में सत्ता विरोध बहुत व्यापक है। इसकी जानकारी भी भाजपा नेतृत्व को है। इसीलिए इन चुनावों से कुछ समय पहले ही दिल्ली को नया प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सांसद मनोज तिवारी के रूप में दिया गया। मनोज तिवारी दिल्ली से ही सांसद हैं, लोकप्रिय गायक हैं, बिहार से हैं, ब्राह्मण हैं। यहां यह ध्यान में रखने की बात है कि दिल्ली में बिहार और पूर्वांचल के लोगों की अच्छी खासी तादाद है जो चुनावों में बहुत निर्णायक साबित होती है। हालांकि मनोज तिवारी अपने बयानों के चलते विवादों में भी पड़ते नजर आ रहे हैं, इसके बावजूद भाजपा यह मानकर चल रही है कि वह इन चुनावों में काफी अच्छा प्रदर्शन करेगी और विधानसभा चुनाव में करारी हार का बदला ले लेगी। आम आदमी पार्टी और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए विधानसभा चुनाव के बाद यह सबसे बड़े इम्तहान जैसा हो गया है। इन चुनावों से यह अंदाजा लगाया जा सकेगा कि क्या दिल्ली की जनता अभी भी इन्हें उसी तरह समर्थन दे रही है या उसके किसी तरह की कमी या इजाफा हुआ है। यह इसलिए क्योंकि पिछले करीब ढाई सालों में आप सरकार के कार्य व्यवहार को भी दिल्ली के लोग समझ रहे होंगे। तीनों निगमों के साथ दिल्ली सरकार के साथ विवाद भी काफी गहरे रहे हैं। यह स्वाभाविक भी थे क्योंकि नगर निगमों में भाजपा का कब्जा था। अब जब आप खुद पहली बार इस चुनाव में जा रही है, तो पुराने विवाद और नए वादे-दावे भी कसौटी पर होंगे। इन चुनावों में आप और केजरीवाल को बहुत सारे सवालों के जवाब भी देने होंगे जो विधानसभा चुनाव के दौरान नहीं थे। उनके अपने परफामार्मेंस के भी सवाल भी होंगे। अभी-अभी हुए विधानसभा चुनावों में आप ने पंजाब और गोवा में चुनाव लड़ा लेकिन वहां अपने दावों के अनुरूप वह प्रदर्शन नहीं सकी। केजरीवाल का दावा था कि दोनों ही जगहों पर उन्हें बहुमत मिलेगा और उनकी सरकार बनेगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। वैसे हर पार्टी ही जीत के दावे करती है, इसलिए दावों को लेकर बड़ा सवाल नहीं हो सकता। यह सवाल लोगों, आप और केजरीवाल के लिए भी अवश्य महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या वह दिल्ली विधानसभा चुनाव जैसे परिणाम हासिल करने वाली पार्टी की तरह अभी भी है अथवा नहीं।
दिल्ली के मुख्यमंत्री ने अपने एक वक्तव्य से भी नगर निगम चुनावों को महत्वपूर्ण बना दिया है। उन्होंने मांग की है कि ये चुनाव बैलेट से कराए जाएं न कि ईवीएम से। हालांकि लगता नहीं कि उनकी मांग मानी जाएगी क्योंकि चुनाव आयोग पहले ही कह चुका है कि ईवीएम फुलप्रूफ है। लेकिन एक बहस तो चल ही निकली है। जैसा कि ऐसी हर मांग पर कह दिया जाता है कि हार के डर से इस तरह की मांग की जा रही है। इस मांग पर भी यही कहा जा रहा है। लेकिन एक चर्चा तो हो ही रही है। दूसरी सबसे बड़ी केजरीवाल ने यह भी कह दी है कि अगर इन चुनावों में आप को जीत मिली तो दिल्ली को लंदन बना देंगे। उनके इस बयान की भी काफी तीखी आलोचना हुई है। भाजपा ने उन्हें निशाने पर लिया। अब वे इस लायक होंगे और इसे कर पाएंगे, यह तो चुनाव के बाद पता चलेगा। लेकिन यह जरूर पता चलेगा कि विधानसभा चुनावों के दौरान जो वादे उन्होंने किए थे, वे पूरे हुए या नहीं और जनता ने इसे किस रूप में लिया। विपक्ष के उन हमलों के बारे में उन्हें जवाब देना पड़ेगा कि उन्होंने दिल्ली को बेसहारा छोड़कर पंजाब और गोवा में सारा ध्यान लगा दिया। आप के मंत्रियों पर लगे आरोपों से भी आप और केजरीवाल को जूझना पड़ेगा। केंद्र और उपराज्यपाल के साथ लगातार विवाद तो विपक्ष के एजेंडे में रहेंगे ही। ऐसे में आप और केजरीवाल के लिए सिर्फ एक ही चीज बचती है। वह यह कि उन्होंने दिल्ली के लोगों से किए वादे पूरे किए अथवा नहीं। इन चुनावों से यह भी पता चलेगा कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नोटबंदी के फैसले के विरोध का दिल्ली की जनता पर कैसा और कितना असर रहा है।

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