एएसआई के सर्वे के दौरान उच्च हिमालयी क्षेत्रों में सैकड़ों सालों से आबाद जनजातियों के लोगों से जब बात की गई तो कई पुरातन परंपराओं का पता चला।
शोधकर्ता और एएसआई के विज्ञानी डॉ. मानवेंद्र सिंह बर्तवाल का कहना है कि जनजातीय परंपरागत ज्ञान को संरक्षित करने के लिए लोग ऐसा करते हैं। समय बदला लेकिन यह परंपरा आज भी उसी तरह चली आ रही है।
उनका कहना है कि माणा, नीती, बंपा, गमसाली, रेणीलाता, द्रोणागिरि, हर्षिल आदि जगहों के लोग बेशकीमती अतिदुर्लभ हिमालयी जड़ी-बूटियों का ज्ञान रखते हैं। उन्हें संभवत: संजीवनी बूटी के बारे में भी ज्ञान है।
बर्तवाल कहते हैं कि उच्च हिमालयी क्षेत्र के बाशिंदे इन जड़ी-बूटियों का बेहतर प्रयोग भी जानते हैं और दूसरों को फायदा भी पहुंचाते हैं, लेकिन जड़ी का स्थान नहीं बताते और न ही उसकी पहचान करवाते हैं।
कई किवदंतियां रामचरित मानस के काल से जुड़ी हुई हैं। द्रोणगिरि क्षेत्र के लोग पवन सुत हनुमान की आज भी पूजा नहीं करते। वह संजीवनी के लिए पूरा द्रोण पर्वत उखाड़ ले जाने से खफा हैं।
जड़ी-बूटियों की पहचान गुप्त रखने की परंपरा भी शायद इसी दौरान की मानी जाती है। इस ज्ञान को हासिल करना तप माना जाता है। बर्तवाल कहते हैं कि उन्हें उम्मीद है कि संजीवनी तक पहुंचने का रास्ता इन्हीं लोगों के बीच से निकलेगा।