राजपथ पर एक बौद्धिक योद्घा
-संजय द्विवेदी
वे हिंदी पत्रकारिता में राष्ट्रवाद का सबसे प्रखर स्वर हैं। देश के अनेक प्रमुख अखबारों में उनकी पहचान एक प्रख्यात स्तंभलेखक की है। राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर चल रही उनकी कलम के मुरीद आज हर जगह मिल जाएंगें। उप्र के उन्नाव जिले में जन्मे श्री हृदयनारायण दीक्षित मूलत: एक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। उनका सार्वजनिक जीवन और पत्रकारिता एक दूसरे से ऐसे घुले-मिले हैं कि अंदाजा ही नहीं लगता कि उनका मूल काम क्या है। उनका सार्वजनिक जीवन उन्नाव जिले की सामाजिक समस्याओं, जनसमस्याओं से जूझते हुए प्रारंभ हुआ। वे अपने जिले में पुलिस अत्याचार, प्रशासनिक अन्याय को लेकर लगातार आंदोलनरत रहे। इसी ने उन्हें राज्य की राजनीति का एक प्रमुख चेहरा बना दिया। जनता के प्रति यही संवेदनशीलता उनके पत्रकारीय लेखन में भी झांकती है। अब जबकि वे उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष बन चुके हैं तब उनके लिए यह कहना सार्थक होगा कि राजपथ पर एक बौद्घिक योद्घा की इस उपलब्धि पर उत्तर प्रदेश के लोग स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सन् 1972 में जिला परिषद, उन्नाव के सदस्य के रूप में अपना राजनीतिक जीवन प्रारंभ करने वाले श्री दीक्षित आपातकाल के दिनों में 19 महीने जेल में भी रहे। उप्र की विधानसभा में लगातार चार बार चुनाव जीतकर पहुंचे। राज्यसरकार में पंचायती राज और संसदीय कार्यमंत्री भी रहे। इन दिनों विधानपरिषद के सदस्य और भाजपा की उप्र इकाई में उपाध्यक्ष हैं। उन्होंने उस दौर में राष्ट्रवादी पत्रकारिता का झंडा उठाया, जब इस विचार को मुख्यधारा की पत्रकारिता में बहुत ज्यादा स्वीकारिता नहीं थी।
अब तक दो दर्जन पुस्तकों के माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति और उसकी समाजोपयोगी भूमिका का ही आपने रेखांकन किया है। संसदीय परंपराओं और राजनीतिक तौर-तरीकों पर उनका लेखन लोकतंत्र की जड़ों को मजबूती देने वाला है। एक लोकप्रिय स्तंभकार के नाते मध्य प्रदेश सरकार ने उनके पत्रकारीय योगदान को देखते हुए उन्हें गणेशशंकर विद्यार्थी सम्मान से अलंकृत किया। इसके अलावा राष्ट्रधर्म पत्रिका की ओर से भी उनको भानुप्रताप शुक्ल पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है।
श्री दीक्षित राजनीति की उस धारा के प्रतिनिधि हैं, जिसके लिए राष्ट्र सर्वोच्च है। राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत उनका लेखन समूचे समाज की आवाज बन गया है। वे ही हैं जो समय की शिला पर बैठकर हमें चेताते हैं और जड़ों से जोड़ते हैं। उनकी राजनीतिक शैली भी समता, समरसता और भावना की भावभूमि से जुड़ी हुयी है। अपनी विद्वता के बोझ से वे दबे नहीं हैं बल्कि और उदार हुए हैं। उनकी समूची चेतना इस राष्ट्र की जनभावना के प्रकटीकरण का माध्यम बन गयी है। अब जबकि वे उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष के रूप में एक बड़ी जिम्मेदारी से संयुक्त हो रहे हैं तब हमें यह मानना ही होगा कि आज उन सरीखा मनीषी एक सही आसंदी पर विराज रहा है। उत्तर प्रदेश जब एक व्यापक और राजनीतिक परिवर्तन से गुजर रहा है ऐसे में विधानसभा की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। वैसे भी उत्तर प्रदेश की विधानसभा 403 विधानसभा सदस्यों वाला सदन है जो देश में सबसे बड़ी विधानसभा है और देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य का प्रतिनिधित्व करती है। उत्तर प्रदेश विधानसभा में कई बार ऐसे दृश्य बने हैं जिसे संसदीय राजनीति के काले पन्नों में दर्ज किया गया है। माइक तोड़कर मारपीट जैसे दृश्य भी वहां देखे गए। अब जबकि देश की राजनीति में सुशासन और विकास के सवाल अहम हैं तो विधानसभाओं को भी व्यापक जिम्मेदारियों से युक्त करना होगा। संवाद को सार्थक बनाना होगा। विधानसभा का मंच जनता और सरकार के बीच चल रहे सार्थक विमर्शों का मंच बने यह जरूरी है। उत्तर प्रदेश की विधानसभा अपने नए अध्यक्ष के नेतृत्व में कुछ नए मानक गढ़े, नई परंपराओं का श्रीगणेश करे ऐसी उम्मीद तो हृदयनारायण दीक्षित जैसे व्यक्तित्व से की ही जानी चाहिए। फिलहाल तो उनसे जुड़े शब्द साधक और राजनीतिक कार्यकर्ता उन्हें शुभकामनाओं के अलावा क्या दे सकते हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)