अद्धयात्मदस्तक-विशेषफीचर्डसाहित्यस्तम्भ
रामराज्य : आशुतोष राणा की कलम से..{.भाग_४}
स्तम्भ: अयोध्या पीछे छूट चुकी थी, जनशून्य क्षेत्र आरम्भ हो चुका था। कैकेयी इस सत्य को जानती थीं कि जब कोई राज्य, राजा विहीन होता है तो असामाजिक तत्वों और अराजकता में वृद्धि होती है। इसलिए सतर्कता के साथ किंतु निर्भीकतापूर्वक कैकेयी आगे बढ़ रही थीं।
अयोध्या से नंदीग्राम की ओर जाने वाला यह मार्ग सबसे सुरम्य मार्गों में से एक था। मार्ग के दोनों ओर बड़े और घने वृक्ष रोपे गए थे जो ऊपर की ओर उठते हुए एक दूसरे से ऐसे मिल जाते की लगता जैसे पूरे मार्ग को पत्तों के वितान से ढाँक दिया गया हो। किंतु इस समय वे ऋतु परिवर्तन की मार झेल रहे थे वृक्षों से झड़े हुए पत्ते मार्ग पर बिखरे हुए थे। उन सूखे पत्तों को देखकर कैकेयी को वो दृश्य याद आ गया, जब एक दिन प्रातः काल महाराज दशरथ कैकेयी से हँसते हुए बोले थे- महारानी ये देखिए, मेरे केश अब श्वेत होने लगे हैं, मैं अब वृद्धावस्था की ओर बढ़ चला हूँ। इससे पहले कि मैं अशक्त होऊँ मुझे ये सारा राज काज राम के सशक्त हाथों में सौंप देना चाहिए। मैं आज ही इस विषय पर गुरुदेव वशिष्ठ और मंत्रिपरिषद से विमर्श करूँगा।
दशरथ के जाने के बाद कैकेयी ने आनंदमग्न होकर मंथरा से कहा- कुछ ही दिनों में रघुवंश के सिंहासन पर अभी तक का सबसे श्रेष्ठ राजा सुशोभित होगा। ये किसी भी स्त्री के लिए सर्वाधिक गौरवशाली क्षण होता है जब उसका पुत्र राज सिंहासन पर बैठता है।
ये कहते हुए कैकेयी ने अपने कंठ में धारण किया हुआ माणिक्य का हार निकाला और मंथरा को पहना दिया।
राम के राज्यारोहण की बात सुनकर कैकेयी का इतना प्रसन्न होना मंथरा को रास नहीं आ रहा था, वह चिंता से भरी हुई बोली- तुम्हारा पुत्र ? वह तो भरत है। जिसके भाग में महाराज ने राजसिंहासन नहीं राजछत्र लिख दिया, जिसे पकड़कर वो राम के पार्श्व में उपस्थित रहेगा। मुझे समझ नहीं आता कि इसमें इतना प्रसन्न होने की क्या बात है, जो महारानी ने अपना बहुमूल्य हार उतारकर मंथरा के गले में डाल दिया ?
कैकेयी ने बहुत मधुरता से कहा- अरी मंथरा, जो स्वयं के गर्भ से जन्म लेते हैं क्या वही पुत्र कहलाते हैं ?
मातृत्व दैहिक नहीं भावनात्मक अवस्था होती है। इसे गर्भ से जन्म लेने वाले माँसपिंड की सीमा में नहीं बांधा जा सकता।
माता का अर्थ बहुत व्यापक और गहरा होता है, धारण, कारण और तारण ये तीनों गुण जिसमें विद्यमान रहें वह माँ होती है। इसलिए चाहे आत्मा हो, महात्मा हो या परमात्मा हो सभी को स्वयं की पूर्णता के लिए माँ रूपी गुण को आत्मसात करना होता है।
कौशिल्या ने यदि राम को अपने गर्भ में धारण किया है तो कैकेयी ने राम के अंतर्निहित गुणों को अपने चित्त में धारण किया है।
कौशल्या, राम रूपी चेतना को शरीर युक्त करने के कारण उसकी माता है, तो कैकेयी उसकी चेतना को शरीर से मुक्त कर उसकी चेतना के परिष्कार उसके विस्तार में सहायक होने के कारण उसकी माता है।
कौशल्या ने राम के शरीर को धारण किया है तो कैकेयी ने राम के संकल्प को धारण किया है।
जन्म देने वाली माता आवश्यक नहीं कि वह अपनी संतान के गुणों और उसकी क्षमता के परिष्कार का हेतु हो ? माँ और मातृत्व ये दोनों एक जैसे होते हुए भी भिन्न अवस्थाएँ होती है, माँ को प्रेम का ज्ञान होता है तो मातृत्व को ज्ञान से प्रेम होता है।
कौशल्या राम के जन्म का हेतु हैं, तो मैं उसके जीवन की आधार हूँ।
तूने भी तो मुझे जन्म नहीं दिया किंतु मेरे प्रति सदा ही माता के भाव से भरी रही, तो क्या मेरे प्रति तेरे प्रेम और समर्पण को मुझे मात्र इसलिए संदेह की दृष्टि से देखना चाहिए क्योंकि तूने मुझे जन्म नहीं दिया ?
मंथरा ने बहुत शुष्क स्वर में कहा- माता होने और राजमाता होने में बहुत अंतर होता है महारानी। मैं चाहती हूँ कि आप राजमाता के पद पर प्रतिष्ठित हों। और ये तभी सम्भव है जब राजकुमार भरत अयोध्या के सिंहासन पर बैठें।
कैकेयी मंथरा के मुख से इस विचार को सुनकर ठहाका मारते हुए हँस पड़ीं, फिर स्वयं को नियंत्रित करते हुए बोलीं- चल ठीक है, कैकेयी राजमाता बन गई.. इससे मुझे क्या लाभ होगा बता ?
मंथरा ने कहा- आपका प्रभाव बढ़ेगा महारानी। सब कुछ आपके नियंत्रण में रहेगा।
कैकेयी ने कहा- प्रभाव तो मेरा आज भी सबसे अधिक है। महाराज दशरथ से लेकर मेरी दोनों बहनें व मेरे चारों पुत्र सभी मेरे प्रभाव को मान देते हैं। अपने ऊपर मेरे नियंत्रण को वे कभी भी चुनौती नहीं देते।
मैं सम्पूर्ण राज्य पर आपके प्रभाव और शक्ति के बढ़ने की बात कर रही हूँ महारानी।
मंथरा के कथन को सुनकर कैकेयी ने एक भेदक दृष्टि उसपर डाली और एक विराम के बाद बोलीं- मंथरे, तब तो मुझे स्वयं ही सिंहासन पर बैठ जाना चाहिए ? अच्छा होगा मैं राजभवन की अपेक्षा राजसभा से ही सम्पूर्ण तंत्र को नियंत्रित करूँ, और अपने बढ़े हुए प्रभाव का प्रत्यक्ष सुख भोगूँ ?
क्या पता राजमाता होते हुए कभी मेरा पुत्र मेरी ही किसी आज्ञा की अवहेलना कर दे और मैं उसके प्रति रोष से भरकर उसका नाश कर दूँ ? क्या कहती हो ? मुझे महाराज से स्वयं के लिए ही ये राजपाठ माँग लेना चाहिए ?
क्योंकि जब मुझे ही अपनी इच्छाओं को पूरा करना है ? अपने प्रभाव को बढ़ाना है ? तो प्रभावशाली राजमाता होने से अधिक लाभदायक शक्तिसम्पन्न राजा होना होगा ?
मंथरा ने अचकचा कर कहा ये कैसे सम्भव है ? ये कभी हो ही नहीं सकता। कैकेयी ने भी उसी स्वर में कहा- तो फिर ये भी सम्भव नहीं है मंथरा, ये भी कभी नहीं हो सकता।
कैकेयी का कल्याण, उसका यश राजमाता होने में नहीं, अपितु राम की माता होने में है। मैंने अपने पुत्रों को, अपने परिवार को कभी खंडित दृष्टि से नहीं देखा, मेरे लिए मेरे पति, मेरे पुत्र, मेरा परिवार उस अखंड ब्रह्म का ही स्वरूप हैं, और अखण्ड को खंडित दृष्टि से देखना ही पाखण्ड होता है। कैकेयी सब कुछ हो सकती हैं किंतु पाखण्डी नहीं।
हमारी देह में दिखने वाला और ना दिखने वाला प्रत्येक अंग महत्वपूर्ण होता है, सभी का अपना विशेष महत्व होता है, यदि हमारी देह के सभी अंग एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए मात्र स्वयं के महत्व को स्थापित करने में लग जाएँ तो यह प्रलय के जैसा होगा, जो मात्र हमारे ही नहीं सम्पूर्ण सृष्टि के विनाश का कारण होगा।
मंथरा, महाराज दशरथ सत्य ही यथा नाम तथा गुण हैं। वैसे देखा जाए तो इस धरती पर जन्म लेने वाला प्रत्येक मनुष्य दशरथ ही होता है। हमारा देह रूपी रथ, पाँच तत्व और पाँच इंद्रियों के योग से बना दशरथ ही तो है, किंतु इसके बाद भी प्रत्येक मनुष्य के जीवन में राम रूपी ज्ञान, लक्ष्मण रूपी वैराग्य, भरत रूपी भक्ति, और शत्रुघन रूपी साहस का अभाव रहता है, क्योंकि हम परमात्मा प्रदत्त इस शरीर रूपी दशरथ को भुला देते हैं, और अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करने के स्थान पर हम अपनी इंद्रियों से नियंत्रित होने लगते हैं।
महाराज दशरथ की हम तीन रानियाँ हैं, जिनमें कौशल्या अपने प्रत्येक कार्य को कुशलता से सम्पन्न करना चाहती हैं, उनके जीवन में कौशल का, युक्ति का विशेष महत्व है इसलिए वे सबसे अधिक कुशल हैं।
मैं कर्म की शक्ति में विश्वास रखती हूँ इसलिए सबसे अधिक कर्मठ हूँ और सुमित्रा भक्ति को महत्व देती है इसलिए वो सबके प्रति मित्रता के भाव से भरी रहती हैं वे सबसे अधिक सहृदय है।
जैसे महाराज दशरथ ने हम तीनों के साथ सुंदर संतुलन बनाकर रखा है यदि वैसा ही संतुलन प्रत्येक मनुष्य अपने अंदर अवस्थित कुशलता अर्थात युक्ति, कर्मठता अर्थात शक्ति, और मित्रता अर्थात भक्ति रूपी भावों से बनाकर रखे तो इस संसार की प्रत्येक देह में राम का अवतरण हो जाएगा, तब इस संसार की प्रत्येक देह ही अयोध्या हो जाएगी। अयोध्या का अर्थ ही होता है जहाँ युद्ध नहीं होता, या जिसे युद्ध में जीता ना जा सके। हमारा जीवन भावों का समर नहीं भावों का सागर है, इसलिए इसे भवसागर कहा जाता है।
ये किसी स्त्री का सबसे बड़ा सुख होता है की उसका पति, उसके पुत्र उसके अनुकूल हो। किसी माता का आनंद स्वयं को शक्तिसंपन्न करने में नहीं होता, अपितु उसकी संतानों को शक्तिशाली बनाने में होता है।
भरत भावुक है और राम संवेदनशील। राज्य की कुशलता के लिए राजा को भावुक नहीं संवेदनशील होना चाहिए। भावुक व्यक्ति स्वानुभूति को परानुभूति बनाने में विश्वास करता है और वहीं संवेदनशील व्यक्ति परानुभूति को भी स्वानुभूति बना लेता है।
कैकेयी ने हँसते हुए कहा- तू सत्य ही अपने नाम को चरितार्थ कर रही है। अपने नाम मंथरा का अर्थ जानती है ?
जी महारानी, जो मंथर गति से चले वो मंथरा।
मंथर गति से कौन चलता है ? कैकेयी के इस प्रश्न पर मंथरा चुपचाप उसे देखती रही, उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
कैकेयी ने मुस्कुराते हुए कहा- हमारी बुद्धी जब चिंता से युक्त होती है तब वह अति मंथर गति से चलती है, हमारी चिंता युक्त बुद्धि को ही मंथरा कहा जाता है।
लेकिन जब वही बुद्धी चिंतन से युक्त होती है तब त्वरा कहलाती है।
किंतु ये सब तुझे समझ नहीं आएगा, क्योंकि ना तो तूने विवाह किया और नाही किसी संतान को जन्म दिया।
कैकेयी के वचनों से मंथरा व्यथित होते हुए बोली- महारानी मैंने तुम्हारे जीवन के लिए अपने सम्पूर्ण जीवन की आहुती दे दी, क्या इसलिए कि तुम इस प्रकार के वचनों से मेरे हृदय को विदीर्ण कर दो ?
तू दुखी होगी लेकिन आज कहती हूँ, सुन- तू कैकेयी के सुख में अपनी सुरक्षा देखती थी। और मैं राम की सुरक्षा को ही अपना सुख मानती हूँ।
तेरे लिए कैकेयी की सेवा स्वयं के अधिकारों, स्वयं की शक्ति के विस्तार का हेतु था, और मेरे लिए राम के अधिकारों, उसकी शक्ति का विस्तार समाज की सेवा का हेतु है।
मंथरा, तेरे इन विचारों को जानने के तू मेरी सहानुभूति की पात्र है किंतु सम्मान की अधिकारी नहीं है। और कैकेयी आधिकारिक स्वर में बोलीं- मुझे एकांत चाहिए, जब तेरी आवश्यकता होगी मैं तुझे बुला लूँगी। ~#आशुतोष_राणा#क्रमशः•••