राष्ट्र की अस्मिता का बोध कराने वाला होना चाहिए संविधान
बृजनन्दन राजू
स्तम्भ : आजादी के बाद दुर्भाग्य से देश के तत्कालीन नेताओं के मन में भारत को भारत जैसा बनाने की कल्पना नहीं थी। वह भारत को अमेरिका, ब्रिटेन और रूस जैसा बनाना चाहते थे। उसी आधार पर शुरूआती प्रयास भी हुए। वहीं संविधान भी अन्य देशों की नकल कर बनाया गया। जिसके कारण बहुत सारी विसंगतियां आज भी विद्यमान हैं। यह जरूरी नहीं है कि जो कानून इंग्लैण्ड व अमेरिका के लिए जरूरी है वैसा ही कानून भारत में बनाया जाय। लेकिन यह गलती हमसे हुई। हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत का संविधान बनाने के लिए विश्व के कई देशों की यात्राएं की और वहां के संविधान विशेषज्ञों से भेंट की। उसी आधार पर देश का संविधान बनाया गया लेकिन उन संविधान निर्माताओं ने देश के विभिन्न हिस्सों में रह रहे लोगों की राय लेने या उनसे मशविरा करने की जरूरत नहीं समझी।
अमेरिका व इंग्लैण्ड के आदमी को क्या पता होगा भारत के बारे में। यह तो अच्छे से यहां की मिट्टी में पले बढ़े व यहां की संस्कृति व परम्परा में रचे बसे लोग ही बता सकते हैं। हर देश की अपनी अलग—अलग प्रकृति,संस्कृति व भौगोलिक स्थिति होती है। इसलिए एक ही नियम सभी स्थान पर लागू नहीं हो सकते। भारत के नेताओं को भारत के विचार संस्कार और संस्कृति का संरक्षण करने वाला संविधान बनाना चाहिए था। वहीं संविधान सभा में शामिल अधिकांश सदस्य विदेशों में पले बढ़े व वहां की संस्कृति में रचे बसे थें उनकी दृष्टि में पश्चिम की संस्कृति ही उत्कृष्ट थी। उसी आधार पर उन्होंने पश्चिम के चश्मे से भारत को देखा और उसी आधार पर संविधान का मसौदा तैयार किया। परिणाम स्वरूप कुछ खामियां भी हैं। प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने मन की वेदना को प्रकट करते हुए कहा था कि जिस संविधान को हमने अंगीकार किया है वह पश्चिमी संविधान की नकल मात्र है। उसमें नया कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर को भी मात्र संविधान के तीन वर्ष लागू होने के बाद ही भारतीय संविधान के दोषपूर्ण पक्ष की अनुभूति होने लगी थी। क्योंकि किसी भी देश व राष्ट्र का संविधान राष्ट्र की अस्मिता का परिचय देने वाला होता है। इसलिए भारत के संविधान में भारतीयता का जो पुट होना चाहिए उसका अभाव जरूर खटकता है।
संविधान में देश का नाम भारत की जगह इण्डिया लिखकर हजारों वर्षों के हमारे गौरवशाली इतिहास को विस्मरण कराने का प्रयास हुआ। यह अंग्रेजों की चाल थी जिसको हमारे नेता समझ नहीं पाये। संविधान के अनुच्छेद एक में उल्लिखित इण्डिया दैड इज भारत मानसिक दासता का प्रतीक है। सम्पूर्ण भारतीय वाड्मय में एवं अभिलेखों में इस देश का नाम भारत आर्यावर्त तथा जम्बूद्वीप है। भारत नाम पुरातन और सनातन है। भारत नाम से राष्ट्र के स्वर्णिम अतीत की याद आती हैं तथा मन में गौरव की अनुभूति होती है। नाम का महत्व होता है। अंग्रेज इस देश को इण्डिया बनाने में लगे थे। हमने इण्डिया बनाकर गलती की। लार्ड मैकाले की योजना सफल हुई। परिणाम यह हुआ कि भारत का संविधान लागू होने के इतने लम्बे कालखण्ड के बाद भी अंग्रेजी का वर्चस्व् देश में हैं। तमाम प्रयास के बावजूद आज तक न्यायालयों की भाषा हिन्दी नहीं हो सकी। सरकारी विभागों की वेबसाइट अंग्रेजी में तो हैं लेकिन हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में नहीं है। उच्च शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी ही है। इस मानसिकता को त्यागना होगा। अंग्रेजी में ही हम प्रगति कर सकते हैं इस भाव को मन से निकालना होगा। साथ ही सरकार को मातृभाषा को बढ़ावा देना होगा।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। बशर्ते वह समयानुकूल होना चाहिए। जो व्यक्ति संगठन,संस्था या राष्ट्र अपने को समय के अनुकूल नहीं ढ़ालते वह नष्ट हो जाते हैं। संविधान में आवश्यक संशोधन किसी भी राष्ट्र की सजीवता को प्रमाणित करता है। अम्बेडकर के जीवनकाल में भी कई बार संशोधन हो चुके हैं। आज यदि संशोधन आवश्यक है तो करना चाहिए। सभी देशों में संविधान की समीक्षा, संशोधन परिवर्तन आदि समय समय पर होते रहते हैं। विश्व के अधिकांश देशों के संविधान या तो ईसाइयत, इस्लाम या कम्युनिस्टों की छाया में चल रहे हैं। इसलिए वहां मानक तय है कि इससे इतर नहीं जा सकते। लेकिन भारतीय संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। भारत में इस्लाम व ईसाइयत के लिए जितनी सहूलियतें हैं वह अन्य देशों में नहीं हैं। भारत का संविधान बहुत ही लचीला है। भारतीय संविधान के उद्देशिका में लिखा है कि हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न् समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय विचार अभिव्यक्ति विश्वास धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति् की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता को सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत करते हैं। लेकिन इतने वर्षों बाद भी हम सभी नागरिकों को सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं दिला सके और न ही आर्थिक समानता ला सके। सामाजिक समरसता का विचार करते हुए आर्थिक संतुलन बनाये रखना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। वहीं विचार स्वातंत्रय के नाम पर कुछ राष्ट्रविरोधी तत्व समाज में जहर घोलने का काम कर रहे हैं। भारत के संविधान का अधिकांश भाग ब्रिटिश कानून से लिया गया है। ब्रिटिश संसद कोई भी कानून पारित करती है तो उसे कहीं भी चुनोती नहीं दी जा सकती। लेकिन भारत में यदि संसद कानून बनाती है तो उसे न्यायालय में चुनौती दी जाती है। यह हमारे संविधान की कमजोरी भी है। वर्तमान केन्द्र सरकार नागरिकता संशोधन जैसा कानून बनाती है तो उसको भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाती है। वहीं संसद द्वारा पारित कानून को कुछ राज्य सरकारें कह रही हैं हम अपने यहां सीएए लागू नहीं करेंगे।
संसदीय प्रणाली में मजबूत विपक्ष का होना बहुत जरूरी है लेकिन वर्तमान का विपक्ष बेवजह विरोध कर रहा है। सीएए के विरोध के नाम पर जनता को गुमराह किया जा रहा है जबकि स्पष्ट है कि इसमें परिवर्तन अब नहीं होने वाला है। वहीं राज्य सरकारें भी इस कानून को लागू करने के लिए बाध्य हैं क्योंकि नागरिकता संबंधी मसलों पर राज्य सरकारों की नहीं चलती है।
भारत की न्याय प्रणाली बहुत ही जटिल है। आम आदमी को न्याय मिलना कठिन हो रहा है। इसमें सुधार करना होगा। हमारी न्याय प्रणाली सरल तथा शीघ्र न्याय दे सकने वाली होनी चाहिए। इस दिशा में भी समीक्षा आवश्यक है। भारतीय प्रशासनिक सेवा अपने भार से दबी हैं उसका भार कुछ हल्का करने की जरूरत है। वहीं पुलिसिया कानून में भी बड़े बदलाव की जरूरत है। वहीं जनसंख्या नियंत्रण पर ‘एक समुचित और सुविचारित जनसंख्या नीति बनाई जानी चाहिए। वैसे वर्तमान केन्द्र सरकार ने संप्रभुता को चुनौती देने वाले अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का ऐतिहासिक काम किया है। वहीं राष्ट्र की अस्मिता से जुड़े राम मंदिर जैसे महत्वपूर्ण विषय भी संविधान के दायरे में हल हुए। आजादी के बाद लम्बे समय तक देश पर कांग्रेस ने राज किया। लेकिन कांग्रेस ने हमारे मानबिन्दुओं की उपेक्षा की। कांग्रेस के राज में एक समय ऐसा भी आया जब लोकतंत्र का गला घोंटा गया। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गयी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल थोपकर लोकतंत्र के सभी स्तम्भ को ध्वस्त कर दिया। ऐसी विकट परिस्थिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लोकतंत्र का रक्षक बना। जेपी के नेतृत्व में देशभर में आन्दोलन खड़ा किया गया। आपातकाल में 1,63,900 लोग सत्याग्रह कर जेल गये। 35 हजार संघ के स्वयंसेवक पुलिस द्वारा बंदी बनाये गये। वहीं 63 स्वयंसेवकों ने बलिदान भी दिया।
आजादी के बाद भारत के सांस्कृतिक ऐतिहासिक पक्ष की निरन्तर उपेक्षा की गयी। भगवान राम और श्रीकृष्ण इस राष्ट्र की सनातन संस्कृति के प्रेरणा पुरूष हैं। संविधान निर्माताओं ने उनको संवैधानिक रूप से स्वीकार किया। श्रीराम का रामराज्य दुनिया के लिए प्रेरणादायी है। गांधी जी ने भी रामराज्य की कल्पना की थी। संविधान निर्माताओं ने भारतीय संविधान की मूल प्रति में हर अध्याय के प्रारम्भ में कोई न कोई चित्र छापा गया था। यह चित्र हमारी गौरवशाली सांस्कृति विरासत के प्रतीक हैं। संविधान की मूल प्रति में वैदिक काल में चलाए जा रहे गुरुकल,भगवान श्रीराम का लंका विजय के बाद का चित्र, अर्जुन को गीता का उपदेश देते भगवान श्रीकृष्ण,भगवान बुद्ध, महावीर, सम्राट विक्रमादित्य और हमारी ज्ञान परम्परा के प्रतीक नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय के चित्र थे। भगवान नटराज, अपनी तपस्याा द्वारा गंगा को धरती पर लाने वाले तपी भागीरथ और देवभूमि हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं का चित्र था लेकिन संविधान की प्रति से यह चित्र धीरे—धीरे कब और कैसे गायब हो गये पता ही नहीं चला।
(लेखक प्रेरणा शोेध संस्थान नोएडा से जुड़े हैं।)