राष्ट्रपति चुनाव के बहाने एक बड़ी छलांग
उत्तर प्रदेश के लोग इस बात से जरूर खुश हो सकते हैं जबकि कोविंद जी का चुना जाना लगभग तय है, तब प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों पदों पर इस राज्य के प्रतिनिधि ही होंगे। उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुजन समाज पार्टी जिस तरह सिमट रही है और विधानसभा चुनाव में उसे लगभग भाजपा ने हाशिए पर लगा दिया है, ऐसे में राष्ट्रपति पद पर उत्तर प्रदेश से एक दलित नेता को नामित किए जाने के अपने राजनीतिक अर्थ हैं। दलित नेताओं में केंद्रीय मंत्री थावर चंद गहलोत भी एक अहम नाम थे, किंतु मप्र से आने के नाते उनके चयन के सीमित लाभ थे। इस फैसले से पता चलता है कि आज भी पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री की नजर में उत्तर प्रदेश का बहुत महत्व है। उत्तर प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में ऐतिहासिक विजय ने उनके संबल को बनाने का काम किया है। यह विजययात्रा जारी रहे, इसके लिए कोविंद के नाम का चयन एक शुभंकर संकेत है।
शायद यही राजनीति की नरेंद्र मोदी शैली है। राष्ट्रपति पद के लिए अनुसूचित जाति समुदाय से आने वाले श्री रामनाथ कोविंद का चयन कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर बता दिया है कि जहां के कयास लगाने भी मुश्किल हों, वे वहां से भी उम्मीदवार खोज लाते हैं। बिहार के राज्यपाल और अरसे से भाजपा-संघ की राजनीति में सक्रिय रामनाथ कोविंद पार्टी के उन कार्यकर्ताओं में हैं, जिन्होंने खामोशी से काम किया है। यानि जड़ों से जुड़ा एक ऐसा नेता जिसके आसपास चमक-दमक नहीं है, पर पार्टी के अंतरंग में वे सम्मानित व्यक्ति हैं। यहीं नरेंद्र मोदी एक कार्यकर्ता का सम्मान सुरक्षित करते हुए दिखते हैं।
बिहार के राज्यपाल कोविंद का नाम वैसे तो राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के बीच बहुत चर्चा में नहीं था। किंतु उनके चयन ने सबको चौंका दिया है। एक अक्टूबर,1945 को उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात में जन्मे कोविंद मूलत: वकील रहे और केंद्र सरकार की स्टैंडिंग कांैसिल में भी काम कर चुके हैं। आप 12 साल तक राज्यसभा के सदस्य रहे। भाजपा नेतृत्व में दलित समुदाय की उपस्थिति वैसे भी कम रही है। सूरजभान, बंगारू लक्ष्मण, संघ प्रिय गौतम, संजय पासवान, थावरचंद गहलोत जैसे कुछ नेता ही अखिल भारतीय पहचान बना पाए। रामनाथ कोविंद ने पार्टी के आंतरिक प्रबंधन, वैचारिक प्रबंधन से जुड़े तमाम काम किए, जिन्हें बहुत लोग नहीं जानते। अपनी शालीनता, सातत्य, लगन और वैचारिक निष्ठा के चलते वे पार्टी के लिए अनिवार्य नाम बन गए। इसलिए जब उन्हें बिहार का राज्यपाल बनाया गया तो लोगों को ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ। अब जबकि वे राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार घोषित किए जा चुके हैं तो उन पर उनके दल और संघ परिवार का कितना भरोसा है, कहने की जरूरत नहीं है। रामनाथ कोविंद की उपस्थिति दरअसल एक ऐसे राजनेता की मौजूदगी है जो अपनी सरलता, सहजता, उपलब्धता और सृजनात्मकता के लिए जाने जाते हैं। उनके हिस्से बड़ी राजनीतिक सफलताएं न होने के बाद भी उनमें दलीय निष्ठा, परंपरा का सार्थक संयोग है।
कायम है यूपी का रुतबा
उत्तर प्रदेश के लोग इस बात से जरूर खुश हो सकते हैं कि जबकि कोविंद जी का चुना जाना लगभग तय है, तब प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों पदों पर इस राज्य के प्रतिनिधि ही होंगे। उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुजन समाज पार्टी जिस तरह सिमट रही है और विधानसभा चुनाव में उसे लगभग भाजपा ने हाशिए लगा दिया है, ऐसे में राष्ट्रपति पद पर उत्तर प्रदेश से एक दलित नेता को नामित किए जाने के अपने राजनीतिक अर्थ हैं। जबकि दलित नेताओं में केंद्रीय मंत्री थावर चंद गहलोत भी एक अहम नाम थे, किंतु मध्यप्रदेश से आने के नाते उनके चयन के सीमित लाभ थे। इस फैसले से पता चलता है कि आज भी पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री की नजर में उत्तर प्रदेश का बहुत महत्व है।
उत्तर प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में ऐतिहासिक विजय ने उनके संबल को बनाने का काम किया है। यह विजययात्रा जारी रहे, इसके लिए कोविंद के नाम का चयन एक शुभंकर संकेत है। दूसरी ओर बिहार का राज्यपाल होने के नाते कोविंद से एक भावनात्मक लगाव बिहार के लोग भी महसूस कर रहे हैं कि उनके राज्यपाल को इस योग्य पाया गया। जाहिर तौर पर दो हिंदी हृदय प्रदेश भारतीय राजनीति में एक खास महत्व रखते ही हैं।
विचारधारा से समझौता नहीं
रामनाथ कोविंद के बहाने भाजपा ने एक ऐसे नायक का चयन किया है जिसकी वैचारिक आस्था पर कोई सवाल नहीं है। वे सही मायने में राजनीति के मैदान में एक ऐसे खिलाड़ी रहे हैं जिसने मैदानी राजनीतिक कम और दल के वैचारिक प्रबंधन में ज्यादा समय दिया है। वे दलितों को पार्टी से जोड़ने के काम में लंबे समय से लगे हैं। मैदानी सफलताएं भले उन्हें न मिली हों, किंतु विचारयात्रा के वे सजग सिपाही हैं। संघ परिवार सामाजिक समरसता के लिए काम करने वाला संगठन है। कोविंद के बहाने उसकी विचारयात्रा को सामाजिक स्वीति भी मिलती हुयी दिखती है। बाबा साहेब अंबेडकर को लेकर भाजपा और संघ परिवार में जिस तरह के विमर्श हो रहे हैं, उससे पता चलता है कि पार्टी किस तरह अपने सामाजिक आधार को बढ़ाने के लिए बेचैन है। राष्ट्रपति के चुनाव के बहाने भाजपा का लक्ष्यसंधान दरअसल यही है कि वह व्यापक हिंदू समाज की एकता के लिए नए सूत्र तलाश सके। वनवासी-दलित और अंत्यज जातियां उसके लक्ष्यपथ का बड़ा आधार हैं। जिसका सामाजिक प्रयोग अमित शाह ने उप्र और असम जैसे राज्यों में किया है। निश्चित रूप से राष्ट्रपति चुनाव भाजपा के हाथ में एक ऐसा अवसर था जिसके वह बड़े संदेश देना चाहती थी। विपक्ष को भी उसने एक ऐसा नेता उतारकर धर्मसंकट में ला खड़ा किया है, एक पढ़ा-लिखा दलित चेहरा है। जिन पर कोई आरोप नहीं हैं और उसने समूची जिंदगी शुचिता के साथ गुजारी है।
राष्ट्रपति चुनाव की रस्साकसी
राष्ट्रपति चुनाव के बहाने एकत्रित हो रहे विपक्ष की एकता में भी एनडीए ने इस दलित नेता के बहाने फूट डाल दी है। अब विपक्ष के सामने विचार का संकट है। एक सामान्य दलित परिवार से आने वाले इस राजनेता के विरुद्घ कहने के लिए बातें कहां हैं। ऐसे में वे एक ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं जिसे उसके साधारण होने ने ही खास बना दिया है। मोदी ने इस चयन के बहाने राजनीति को एक नई दिशा में मोड़ दिया है। अब विपक्ष को तय करना है कि वह मोदी के इस चयन के विरुद्ध क्या रणनीति अपनाता है।
(लेखक राजनीतिक विश्लषेक हैं)