वैदिक समाज में गाय और अश्व
हृदयनारायण दीक्षित : भारतीय जनमानस वैदिक काल से ही गाय के प्रति श्रद्धालु व अश्व के प्रति प्रेम से परिपूर्ण रहा है। दोनो पशु समृद्धि के प्रतीक रहे हैं। ऋग्वेद में दोनो की प्रतिष्ठा है। ऋग्वेद में पशुओं के प्रति भरपूर प्यार दिखाई पड़ता है। इनमें भी सर्वाधिक निकटता गायों व घोड़ों से है। यहां गायों घोड़ों का उल्लेख अनेक बार हुआ है। प्रकृति के सभी गोचर प्रपंच पृथ्वी, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र और शनि ग्रह भी गतिशील हैं। सभी पशु भी गतिशील हैं लेकिन गायों व घोड़े की गतिशीलता आश्चर्यजनक है। घोड़े की गतिशीलता और भी आश्चर्यजनक है। संभवतः इसीलिए वैदिक कवियों का ध्यान घोड़े की ओर ज्यादा है। ऋषि अपनी अश्वप्रियता का स्वभाव देवों में भी देखना चाहते हैं। मरूत्गण देव हैं। ऋग्वेद के अनुसार वे घोड़ो पर चलते हैं और घोड़ो से जुते रथ पर भी यात्रा करते हैं। प्रार्थना है कि वे घोड़े वाले रथ पर उसके पास आएं। (1.88.1) सुंदर वाहन से घर आने वाले अतिथि आधुनिक काल में भी सबका आकर्षण बनते है। महंगी कार वाला अतिथि सबका ध्यान खींचता है। हमारे एक परिचित घोड़ा पालते थे। उन्हें विवाह आदि के निमंत्रण मिलते थे। साथ में अनुरोध होता था कि घोड़ा भी साथ लाएं। वैदिक आर्यो का घोड़ो से आत्मीय सम्बंध दिखाई पड़ता है। सूर्य के रथ में भी सात घोड़े बताए गए हैं।
वैदिक समाज घोड़ो का प्रेमी है। गायों का भी प्रेमी है। गाय दूध देती है, बैल कृषि कर्म में उपयोगी थे। वे गाड़ी भी खींचते थे। उसे बैलगाड़ी कहते थे। बैलगाड़ी पुराना वाहन रही होगी। सूर्य पुत्री सूर्या मन की गाड़ी से चली थी। मन के रथ से नहीं। मन का रथ मनोरथ होता है। यह इच्छा का पर्यायवाची है। मन अश्व भी है। तेज रफ्तार चलता है। घोड़ा यात्रा के काम आता है। वह दुर्गम स्थान व रास्तों पर भी मौज में चलता है। युद्ध में भी घोड़ों का प्रयोग था, रथों में घोड़े जोते थे। थके घोड़ो को विश्राम के लिए सदा आक्सीजन देने वाले छायादार पीपल के पेड़ के नीचे बैठाया जाता था। इसीलिए पीपल का एक पुराना नाम ‘अश्वथ’ भी है। ऋग्वेद के अनुसार, “इन्द्र के पास गाय व घोड़े हैं, यव (जौ) भी है। (8.53.3) उपासक उनसे गाय, घोड़े और जौ प्राप्त की स्तुतियां करते हैं। (8.78.9) इन्द्र से मजेदार प्रार्थना है कि आप घोड़ा चाहने वाले को घोड़े दें और गाय प्रेमियांे को गाय दें।” (वही 6.45.6) वैदिक भारत में प्रचुर अश्व संपदा थी। घोड़ों का आयात नहीं हुआ। ‘वैदिक इंडेक्स’ के अनुसार सिंधु नदी के तट पर घोड़े थे और काफी महंगे थे। इसी तरह सरस्वती तट के घोड़े भी मूल्यवान थे। घोड़े मनुष्यों की यात्रा में सवारी के लिए उपयोगी थे। रथ खींचते थे। युद्ध में उनका उपयोग था। युद्ध में घोड़े भी लड़ते थे। घोड़ों से घोड़ो की भी भिड़ंत हो जाती थी। ऋग्वेद के एक मंत्र में अग्नि से कहते हैं “आपके संरक्षण व कृपा से युद्ध में घोड़े से घोड़े भिड़ गए और वीर से वीर।” (1.763.9) घोड़ा या घोड़ी सौन्दर्यबोध भी जगाते हैं। सिंधु ऋग्वेद की प्रख्यात नदी है “वह समुद्र की ओर घोड़ी की तरह तेज रफ्तार जाती है।” घोड़ी अति सुंदर भी लगती है। सूर्योदय के पहले की आभा ऊषा है।
ऊषा पर अनेक मंत्र हैं। ऊषा सुंदरी है “यह घोड़ी जैसी सुंदर है। यहां ऊषा की सुंदरता घोड़ी की सुंदरता से फीकी है। मध्य एशिया में भी घोड़े थे। डाॅ0 रामविलास शर्मा ने ध्यान दिलाया है कि “मध्य एशिया व यूरोप में घोड़े खेती के काम में लाए जाते थे। अब भी लाए जाते हैं।” (भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, खण्ड 1, प्रकाशन वर्ष 1997) भारत में घोड़ो से खेती के काम का उल्लेख नहीं है। पश्चिम एशिया और यूरोप के घोड़ों से भारतीय अश्वारोहण की प्रकृति भिन्न है। भारतीय इतिहास में गाय को अभूतपूर्व स्नेह व सम्मान मिला। वे अपनी उपयोगिता के कारण वैदिक समाज का अंग बनी। उन्हें प्रणाम व नमस्कार भी मिले। गायों को देवत्व भी मिला। गाय को ध्यान से देखना चाहिए। उसकी आंखों को और ध्यान से देख सकते हैं। गाय की आंखों में करूणा है। भारत के संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति निदेशक तत्वों में गो संरक्षण को स्थान दिया है। संविधान भारत के लोगों का अंतिम शपथ अभिलेख है और ऋग्वेद दुनिया का प्रथम ज्ञान अभिलेख। ऋग्वेद गो-चर्चा व स्तुतियों से भरापूरा है। एक मंत्र में गाय प्रीति की कल्पना का रूपक दिलचस्प है “बृहस्पति देवता ने गायों को चरने के लिए आकाश भेजा।” (2.24.14) निश्चित ही यहां काव्य की ऊंचाई है। गौएं आकाश नहीं जा सकती। यह ऋग्वेद के कवि ऋषि का उल्लास है गायों का पोषण और आदर ऋग्वैदिक समाज की विशेषता है। उसे मारा नहीं जा सकता। वह अघन्या अबद्धया है। (1.164.27)
गाय मनुष्यों की प्यारी है, वह देवों की भी बहुत प्यारी है। एक मंत्र में कहते हैं “यह रूद्रों की माता है, वसुओं की दुहिता है। आदित्यों की बहिन है। अमृत की नाभि है। यह अबध्य है।” (8.101.215) गाय सबको पोषण देती है। एक ऋषि अग्नि देवता को गाय का दूध अर्पित करना चाहते हैं लेकिन उनके पास गाय नहीं है। वे इन्द्र से कहते हैं “अघन्या गाय आपको दूध देती है।” संभवतः ये ऋषि इन्द्र की गाय के दूध से अग्नि की उपासना के इच्छुक थे। जान पड़ता है कि सभी देवों के पास गाएं हैं। यहां देवों को प्रतिष्ठित उच्च बोध वाला मनुष्य मान लें तो इसका अर्थ होगा कि सभी जनों के पास गाएं थी। अश्विनी देव भी गाय का दूध पीते हैं।
गाएं भी बोलती थीं। एक मंत्र के अनुसार वे सोम की स्तुति करती हैं। वैदिक कवियों की भाव प्रकट करने की अपनी काव्यशैली है। वे गाय के प्रति आदरभाव से युक्त हैं। गाय संरक्षण योग्य है। ऋग्वेद में वह अबध्य बताई गई है। अथर्ववेद (12.4) में कहते हैं “जो गाय के कान को पीड़ा देते हैं वे देवों पर प्रहार करते हैं।” कुछ लोग अपनी गाय की पहचान के लिए परिचय चिन्ह बनाते रहे होंगे। इसी सूक्त में उनको चेतावनी है “जो गाय पर परिचय चिन्ह बनाते हैं उनकी संपदा नष्ट हो जाती है। जिस गोपति के सामने कौआ गाय पर चोंच मारता है उसकी संताने मर जाती हैं। आगे (12.9) कहते हैं “गोघाती इस लोक व परलोक दोनो जगह दण्डनीय है।” गोहत्या के विरूद्ध भारत के मन की भावना सहज रूप में समझी जा सकती है। गाय और अश्व वैदिक समाज के दो सुंदर पशु हैं। ऋग्वेद से लेकर महाभारत और वर्तमानकाल तक गाय भारतीय संस्कृति और परम्परा में पूज्य है। तुलसीदास ने रामजन्म के कारण में से एक कारण गोसंवर्द्धन बताया – “विप्र धेनु सुर संतहित लीन्ह मनुज अवतार।” गीता में कृष्ण ने अर्जुन को अपने तमाम रूपों में से एक गाय रूप भी बताया। कृष्ण गोपाल थे। कौटिल्य ने भी ‘गोसंरक्षण’ को जरूरी बताया है। प्राचीन भारत गोपूजक था। गाय प्रतिष्ठा थी, गाय समृद्धि थी और ऐश्वर्य थी। चैथी सदी के चीनी यात्री फाहियान व 7वीं सदी हे्नसांग के निष्कर्ष हैं कि भारत में मांसाहारी नहीं हैं। गोसंरक्षण की संवैधानिक प्रतिबद्धता है। गोहत्या के विरूद्ध भारत में अनेक आन्दोलन हुए। गांधीजी ने गोहत्या बंदी को स्वराज का एक अंग बताया था। गाय भारतीय अर्थव्यवस्था की मां है, समाज व्यवस्था और सांस्कृतिक व्यवस्था का श्रद्धा केन्द्र।
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं)