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गौरतलब है कि इस देसी जीपीएस ‘नाविक’ की मदद से भारत को अपनी एक अलग पहचान मिलेगी।
‘द इंडियन रिजनल नेविगेशन सेटेलाइट सिस्टम’ (आईआरएनएसएस) की 7वीं सेटेलाइट आईआरएनएसएस-1जी को 28 अप्रैल 2016 को लॉन्च कर दिया गया था। अब नाविक के आखिरी टेस्ट चल रहे हैं और उम्मीद है कि 2018 में ये यूजर्स के लोगों में काम करता दिखेगा।
यूएस का जीपएस सिस्टम फिलहाल 24 सेटेलाइट के नक्षत्र पर काम करता है। भारत का नेविगेशन सिस्टम 7 लाइट के नक्षत्र पर काम करेगा, लेकिन वह यूएस से कही ज्यादा कारगर है। जहां, यूएस का जीपीएम 20-30 मीटर पर पोजिशन दिखाता है, नाविक की लिमिट 5 मीटर है।
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बता दें कि अमेरिका ने अपना जीपीएस सिस्टम साल 1973 में ही शुरू कर दिया। इस बीच 1999 में करगिल में भारत ने जब इसकी मदद मांगी तो अमेरिका ने साफ मना कर दिया। इसके बाद से ही भारत ने अपने नेविगेशन सिस्टम बनाए जाने पर काम शुरू कर दिया था। अमेरिका के अलावा रूस का ग्लोनास और यूरोपियन यूनियन का गेलिलियो नाम का अपना जीपीएस सिस्टम है।
वैज्ञानिक अनिल मिश्रा ने बताया कि देसी जीपीएस आने के बाद देश में कई चीजें बदलेंगी। 1420 करोड़ की लागत से बन रहे नाविक में खासियत है कि ये दो फ्रीक्वेंसियों पर काम करेगा, इतना ही नहीं मौसम बिगड़ने पर भी इसमें काम करने की क्षमता रहेगी।