दस्तक टाइम्स/एजेंसी: नई दिल्ली: : हिन्दुस्तान के सबसे बेहतरीन क्लब में मैं किसी अजनबी-सा भटकने लगा। एक अजनबी-सी शाम खुशगवार हो रही थी। दिल्ली की हवा क्लब के खुले आंगन में तेज़ होने लगी। हरी घास के आंगन में दुल्हा-दुल्हन से मिलने के बाद वहां आए रिश्तेदारों से मिलने लगा। किसी को पहले से नहीं जानता था मगर टीवी के कारण आप कहीं भी जाइये दो चार दर्शक तो रिश्तेदार बनकर घेर ही लेते हैं। एक अदद सेल्फी के लिए क्या नखरे करता सो सबको हां किये जा रहा था। यही सोच रहा था कि यहां जमा लोग कितने शालीन है। पैसा और हैसियत से आदमी की चाल-ढाल कितनी बदल जाती है। सजी-धजी औरतों की साड़ियां लहरा रही थीं और मर्दों के कोट के पल्ले हवा के झोंके से बाजू से लिपट रहे थे। चलने और बोलने का अंदाज़ किसी फैक्ट्री में तराशे गए हीरे की मानिंद था।
लोग मिलते जा रहे थे। कुछ शिकायतें कुछ तारीफें। एक सज्जन ने पकड़ लिया तो बात एटली और विस्टन चर्चिल के भाषण पर जा पहुंची। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली और विपक्ष के नेता चर्चिल के बीच भारत को आज़ादी देने के सवाल पर हुई बहस की चर्चा से लगा कि ऐसे कुलीन क्लबों की शामों में इतिहास के कितने पन्ने तैरते होंगे। सौ साल से भी पुराना क्लब है। शायद एटली और चर्चिल की बहस से पहले का ही बना होगा। पर ऐसे नागरिकों से मिलकर अच्छा ही लगता है कि कोई तो है जो बड़े कवियों या लेखकों की तरह मुखर नहीं है मगर रिटायरमेंट के बाद इंटरनेट की दुनिया में खोया रहता है। इतिहास के पन्नों को ढूंढता रहता है। कुछ पन्नों से और कुछ अपने तजुर्बों से हिन्दुस्तान को समझ रहा है। एक सज्जन ने बताया कि कैसे वे किसी पुरानी एयरलाइन कंपनी में काम करते थे। किस्सा सुनाने लगे कि कैसे आज के बड़े कद्दावर नेता पैरवी के लिए आए और किस तरह से एयरलाइन का बेड़ा गर्क किया। एयरलाइन की दुनिया में इस नेता का नाम किसी न किसी बहाने आ ही जाता है।
मैं धीरे-धीरे आश्वस्त होने लगा कि सुख समृद्धि के शिखर पर पहुंचकर भी कुछ लोग ज्ञान की तलाश में हैं। हर किस्से को बारीकी से परख रहे हैं। तभी एक आवाज़ आई। रवीश कुमार जी, एक सेल्फी मेरे साथ भी। मैं रौशनी के हिसाब से मुड़ गया और उनके फोन के लिहाज़ से थोड़ा झुक गया। सेल्फी पूरी होते ही जो बात कही उसने उस खुशगवार शाम की हर खुशफहमी को धुएं में उड़ा दिया। मैं जगह और दल का नाम नहीं ले रहा। पर जो आवाज़ आई उसे लिखने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। बस इतना ही तो पूछ था कि आपका परिचय।
“हम आपको बहुत पसंद करते हैं। मैं सर, अमुक दंगे का आरोपी हूं। जेल गया था। मुझे लगा कि कुछ गलत सुना तो दोबारा पूछ लिया।” कुर्ता पाजामा में वह शख्स उसी आत्मविश्वास के साथ बोल गए कि मैं जेल गया था। “दंगों में मेरा नाम भी आया था। मेरा भी स्टिंग हुआ था। पार्टी टिकट भी देने वाली है। ”
जब वे बोल रहे थे उनका बड़ा बेटा मेरे साथ अगली सेल्फी के लिए तैयार हो रहा था। अपने बेटे के लिए फ्रेम सेट करते हुए बोले जा रहे थे। मैंने तड़ से पूछ दिया कि आप तो बहुत खुश होकर बता रहे हैं कि जेल गया था। लड़के के बारे में पूछा तो कहा कि ये मेरा बेटा है। शर्मिले स्वभाव का लड़का पहले भी सेल्फी खिंचा गया था, लेकिन पिता को कैसे मना करता। पिता के सामने चुप ही रहा। मैंने हंसते हुए पूछ दिया कि ये भी जेल गया था? लेकिन पिता के चेहरे पर कोई असर ही नहीं हुआ। कहने लगे कि “राजनीति में जेल जाना कोई बड़ी बात नहीं है। हम पार्टी के लिए कई बार जेल जा सकते हैं। गए भी हैं। ”
बड़ी बात वो नहीं है कि कोई जेल गया है। पार्टी के लिए लाखों कार्यकर्ताओं ने जेल की यात्रा की होगी। एक ऐसी जगह जहां लोग खाते और हंसते समय इस बात का ख़्याल रख रहे थे कि ज़्यादा मुंह न खुले। दांत न दिखे। नैपकिन संभालकर मेज़ पर रख रहे थे और टूथ पिक से उठाकर काकोरी कबाब का स्वाद ले रहे थे। वैसी नफ़ीस महफ़िल में कोई शान से बताए और बताते समय उसके चेहरे पर झिझक तक न हो कि मैं दंगों के आरोप में जेल गया हूं। पढ़ते समय ध्यान रखियेगा कि जेल जाना दोष साबित होना नहीं है फिर भी क्या दंगों में जेल जाना भी विज़िटिंग कार्ड हो सकता है?
जिनके बुलावे पर गया था उनकी निजता का सवाल है वर्ना नाम लेकर लिख देता। लौटते वक्त सोचता रहा कि इसी महफिल में कोई ऐसा भी तो है, जो चर्चिल की बात कर रहा था। लेबर कालोनी पर मेरी रिपोर्ट को लेकर संवेदनशील था। फिर भी मेरे भीतर वही आवाज़ क्यों गूंज रही है। “ आपके साथ एक सेल्फी चाहिए, मैं फलां फलां हूं, फलां दंगों में जेल गया था, चुनाव लड़ने वाला हूं।”