सरकारी और सियासी चिंता से बचेगी मां नर्मदा
‘नमामि देवी नर्मदे’ नाम से करीब एक सौ साठ दिन चले इस आयोजन में साधु-संतों, सत्ताधारी दल के शीर्षस्थ नेताओं के अलावा फिल्मी कलाकारों और गायकों ने भी खूब धमाल मचाया और मजमा जुटाया। ‘नर्मदा सेवा यात्रा’ नदी संरक्षण का सबसे बड़ा आंदोलन हो न हो पर मीडिया के मुंह में विज्ञापन ठूंसकर उसकी बोलती बंद करने का सबसे बड़ा अभियान जरूर बन गया है। प्रदेश ही क्या देश-विदेश के प्रमुख मार्गों पर हर हफ्ते विशालकाय और आकर्षक नये-नये होर्डिंग, पोस्टर, बैनर चस्पा किए गए।
मध्य प्रदेश में बीते चौदह सालों से एक ही दल सत्ता पर काबिज है और उसमें भी लगातार मुख्यमंत्री बने रहने का नया रिकॉर्ड बनाने वाले शिवराज सिंह चौहान का नेतृत्व है। बावजूद इसके खनन माफियाओं ने जीवनदायिनी नर्मदा का सीना इस कदर छलनी कर दिया कि उसके अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा। हवा-हवाई वादों और लंबी-लंबी घोषणाओं की ‘काठ की हांडी’ शायद चौथी बार काम ना आये, लिहाजा इस बार नर्मदा माई की चिंता के बहाने समय से पहले ही सियासी बिसात बिछा दी गई है। अब सरकार ‘जनभागीदारी’ से एक नदी को बचाने की सरकारी कोशिश कर रही है, जिसे विश्व का सबसे बड़ा नदी संरक्षण अभियान बताया गया। नर्मदा की सेवा का झंडा-डंडा, बैनर, मंडली-टोली के साथ मुख्यमंत्री खुद पिछले डेढ़ सौ दिनों से एक यात्रा में न केवल खुद शामिल रहे, उनकी पूरी मशीनरी इस सेवा यात्रा में लगी रही। पुण्यसलिला नर्मदा के अस्तित्व को बचाने की खातिर प्रदेश में 11 दिसंबर से 15 मई तक नर्मदा सेवा यात्रा निकाली गई थी, उसके बाद नर्मदा मिशन की शुरुआत का एलान किया गया।
नर्मदा की उद्गमस्थली अमरकंटक में हुए समापन समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपरोक्ष रूप से नर्मदा के खनन पर चिंता जताई थी। देश के प्रधानमंत्री ने आयोजन का समापन करते हुए इस यात्रा को ऐतिहासिक करार दिया। ऐसी पहल का स्वागत किया जाना चाहिए, उनकी मंशा और नेकनीयत पर भी कोई सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए, परंतु नदी के मूल सवालों को छुए बिना यह तय कर पाना मुश्किल है कि यह मंशा, नीयत और नीति कहां तक सफल हो पाएगी। नर्मदा के किनारे खासतौर पर मुख्यमंत्री के गृह क्षेत्र में बीते बारह सालों से धड़ल्ले से रेत उत्खनन चल रहा है, तब भी जब वे नर्मदा माई की अविरल धार को टूटता देख विकल होकर नर्मदा सेवा यात्रा पर सपत्नी निकल पड़े थे। अब पांच दिन पहले प्रदेश कैबिनेट ने नर्मदा के किनारे होने वाले रेत खनन पर रोक लगाने का फैसला लिया है। मंत्री राजेंद्र शुक्ल की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई है, जिसकी वैज्ञानिक रिपोर्ट आने के बाद ही यह तय होगा कि कितनी रेत और किस तरह से निकाली जा सकती है? सरकार ने इसके लिए आईआईटी खड़गपुर से एक करार किया है। ‘नमामि देवी नर्मदे’ नाम से करीब एक सौ साठ दिन चले इस आयोजन में साधु-संतों, सत्ताधारी दल के शीर्षस्थ नेताओं के अलावा फिल्मी कलाकारों और गायकों ने भी खूब धमाल मचाया और मजमा जुटाया। ‘नर्मदा सेवा यात्रा’ नदी संरक्षण का सबसे बड़ा आंदोलन हो न हो पर मीडिया के मुंह में विज्ञापन ठूंसकर उसकी बोलती बंद करने का सबसे बड़ा अभियान जरूर बन गया है। प्रदेश ही क्या देश-विदेश के प्रमुख मार्गों पर हर हफ्ते विशालकाय और आकर्षक नये-नये होर्डिंग, पोस्टर, बैनर चस्पा किए गए। अनुमान है कि नमामि नर्मदे आयोजन को विश्वविख्यात बनाने के ऊपर 1500 करोड़ खर्च किए गए। अखबारों और देशी-विदेशी वेबसाइट्स की भी इस दौरान खूब मौज रही। बीबीसी और जर्मनी की दायचे वैले सरीखी वेबसाइट्स पर भी मप्र का जनसम्पर्क विभाग मेहरबान नजर आया।
जनसम्पर्क विभाग की सक्रियता इतनी कि नर्मदा की चिंता लॉस एंजेलिस के एयरपोर्ट पर भी दिखाई दी। सरकार से कोई यह नहीं पूछेगा कि नर्मदा सेवा यात्रा का विज्ञापन लॉस एंजेलिस के एयरपोर्ट पर क्या संदेश देना चाह रहा था। कमोबेश सभी आयोजन की सफलता का ढोल पीटने में मशगूल हैं। इस सब के बीच अमित शाह जबलपुर में कह गए कि नर्मदा को टेम्स नदी की तरह बना दिया जाएगा। शायद उन्हें मालूम नहीं, होशंगाबाद के बाबई में प्रदेश सरकार कोका कोला कंपनी का देश का सबसे बड़ा बोटलिंग प्लांट नर्मदा के किनारे लगवा रही है। नदी के प्रवाह को अविरल रखने का संकल्प लेने वालों ने समापन समारोह में पांच लाख लोगों को जुटाने का दावा किया। उनका दावा उनके संकल्प की गंभीरता को आईना दिखाने के लिए काफी है। एक नदी के उद्गम स्थल का पारिस्थितिकी तंत्र बहुत नाजुक होता है वह क्या पांच लाख लोगों की भीड़ झेल सकता है?
वल्र्ड रिसोर्सेज इंस्टीटयूट, वाशिंगटन के अनेक नदी बेसिन में कराए गए अध्ययन ‘पायलट एनालिसिस ऑफ ग्लोबल इको सिस्टम’ में नर्मदा को विश्व के सबसे ज्यादा संकटग्रस्त बेसिनों में से एक माना गया है जिनमें साल के सबसे शुष्क 4 माह में वार्षिक प्रवाह का 2 प्रतिशत से भी कम रह जाता है। इस मामले मे एनजीटी भी खामोश बना रहा जबकि उसने स्पष्ट किया था कि डेढ़ लाख से अधिक व्यक्ति अमरकंटक में इकट्ठा न हो, पिछली बार जब रविशंकर का बड़ा आयोजन यमुना किनारे हुआ तो एनजीटी की सक्रियता देखने लायक थी। लेकिन जब राष्ट्रवादी दल की सरकार कोई कार्य करती है तो क्या पर्यावरण और क्या नर्मदा का संकटग्रस्त बेसिन? नर्मदा यात्रा के सरकारी तामझाम और शोरगुल में नर्मदा के उन मूल सवालों से यह यात्रा किनारा कर गयी, जिनकी चर्चा केवल नर्मदा घाटी या मध्य प्रदेश में ही नहीं, दुनिया भर में होती है। नर्मदा सेवा यात्रा बनाम नर्मदा बचाओ आंदोलन के इस विरोधाभास में नर्मदा बेचैनी से न बहे, तो क्या करे! आखिर कैसे पर्यावरण के इतने बड़े मसले को और एक बहती नदी को बड़े-बड़े तालाबों में तब्दील कर देने की कहानी क्या किसी से छिपी है। इस पर सरकार ने अपना रवैया अब तक स्पष्ट नहीं किया है। नर्मदा घाटी में रहने वाली नर्मदा की संतानों के विस्थापन और उनकी आजीविका का मसला तो खैर अब एक अलग बातचीत है।
दूसरा मसला अवैध रेत खनन का है, जिस पर तमाम मीडिया से लेकर आंदोलन तक तो चेता ही रहे हैं, आम जन को भी यह सब सामान्य-खुली आँखों से दिख रहा है। इस पर भी नर्मदा के सेवादारों का गोलमोल जवाब है, क्यों़.़! आखिर क्यों इसी नर्मदा के किनारे सेवादार सरकार परमाणु बिजली संयंत्र लगाने की अनुमति दे रही है, जिस पर कई संगठन अंदेशा जता रहे हैं कि यह नर्मदा के पर्यावरण के अनुकूल नहीं है। आखिर ऐसे कैसे हो जाता है कि नर्मदा किनारे उसका दोहन करने के लिए बहुराष्ट्रीय शीतल पेय कंपनी को सरकार प्लांट लगाने की बाकायदा अनुमति देती है, उसके लिए जमीन का इंतजाम भी कर देती है। ऐसी किसी सेवा यात्रा निकालने पर किसी को भी क्या आपत्ति हो सकती है, लेकिन किसी भी रोग के इलाज से पहले उसका उचित परीक्षण करवा लेना चाहिए, वरना ऐसी स्थितियाँ घातक होती जाती हैं। गंभीर बात तो यह है कि रोग का परीक्षण करने वाले पर्यावरणविद, नेता-अभिनेता और सरकारी मेहमाननवाजी लूटने वाले तमाम लोग सरकार की मेहरबानी के तले नर्मदा सेवा यात्रा से कई बरस पहले से उठाए जा रहे इन सवालों से कन्नी काट जाते हैं।
जनता सारा नजारा मुँह बाये देख रही है। वो समझ नहीं पा रही कि जिनके हाथों उन्होंने प्रदेश की बागडोर सौंप रखी है, जो किरदार उन्हें अदा करना है उसमें वो नायक भी हैं, खलनायक भी हैं, पीड़ित भी हैं, पीड़ा देने वाले भी हैं और हरने वाले भी और वह आम जनता भी हैं। इतनी सारी भूमिकाएँ निभाना किसी भी नेता के लिए आसान काम नहीं है। मिसाल के तौर पर नर्मदा प्रदूषण के लिए कोकाकोला की यूनिट बाबई (होशंगाबाद) में लगाने की सरकार अनुमति भी देती है और उसे उसके प्रदूषण से नर्मदा माई को मुक्त कराने का अभियान भी चलाती है। प्रदूषण के मामले में तो नर्मदा का उद्गम अमरकंटक ताजा रिपोर्ट में प्रदूषित पाया गया है। लेकिन उससे अलग मुख्यमंत्री नर्मदा माई को शुद्घ करने के लिए अंतरराष्ट्रीय अभियान चलाते हैं। उनकी यह मुहिम गिनीज बुक में दर्ज हो, इसके लिए भी जमकर प्रयास किए गए। बड़े-बड़े नामचीन नेता उन्हें कलियुग का भागीरथ और जननायक जैसे अलंकरणों से नवाज रहे हैं। लेकिन सीएम बेहद शालीन हैं, वे खुद को इस तरह नवाजे जाने पर संकोच करते हैं। इसके पहले उन्होंने अपने विधायकों और नेताओं को धनसंपन्न होने के लिए कहा था लेकिन यह नुस्खा भी दिया था कि वे महँगी गाड़ी खरीदने, सोना पहनने और बड़े-बड़े घर लेने से बचें। उनकी इस अदा पर शायद न खाऊँगा, न खाने दूँगा जैसे नारे के जनक मोदी भी फिदा हुए लगते हैं। इसलिए वह बार-बार मध्यप्रदेश आते हैं। सीएम के साथ नर्मदा माई भी अपने सारे दुख भूल प्रसन्न होंगी क्योंकि वो माँ हैं और माँ बच्चों पर नाराज नहीं होती।
नर्मदा यात्रा खत्म हो चुकी है, पर सियासी और सरकारी पाखंडों का दौर अभी लंबा चलेगा। नर्मदा का मरना ही इन नेताओं और सरकारी तंत्र को जीवनदान दे सकता है। नर्मदा के उद्गम स्थल पर साल के जंगल ही उसके अस्तित्व का मूल है। लेकिन नैसर्गिक वन क्षेत्र को नष्ट कर धर्म के नाम पर आलीशान अट्टालिकाएं खड़ी कर ली गईं। अब नर्मदा किनारे दो चरण में 12 करोड़ पौधे लगाने की योजना पर काम चल रहा है। कोई पूछे इनसे नीबू, संतरे, अनार, अमरूद सरीखे पौधों से नर्मदा के प्रवाह को कैसे बचा पाएंगे। जीवनदायिनी नदी बचे ना बचे, नर्सरी मालिक, नेता और अफसरों का काम तो चल ही पड़ेगा। एक सवाल और, इतने पौधे आएंगे कहाँ से? करीब साढ़े 7 करोड़ की आबादी वाले प्रदेश में अगर इतनी तादाद में पौधे लगाए गए तो एक व्यक्ति के हिस्से में
डेढ़ पौधे का जिम्मा रहेगा। अगर यह हकीकत में है तो बड़ी बात है नहीं तो नेताओं को जैसे गप्प पसंद है वैसे यह वृक्षारोपण का अभियान भी गप्प की तरह ही होगा। इस बीच एक नया शिगूफा, नर्मदा को जीवित इंसान का दर्जा देने का। सिर्फ जीवित इंसान का दर्जा देने से बात नहीं बनने वाली। मूर्छित पड़ी संवेदनाओं को जगाये बिना मनुष्य प्रकृति को बचा पाएगा, यह एक खोखला दावा लगता है। इसलिए नर्मदा के बहाने पर्यावरण बचाने भर का दावा किसी टोटके जैसा लगता है। सरकार भी समझती है कि वह बचा लेगी, खुद अपने बूते बचा लेगी, इसके लिए तमाम जतन के साथ एक जतन यह भी हो जाता है कि नदी को जीवित मनुष्य का दर्जा दिया जाए। जिस नदी को लोग अपने प्राणों का आधार सदियों से मानते आ रहे हों, उस समाज में भी ऐसा कोई अधिकार एक और टोटका है। उसे मनुष्य से भी बढ़कर दर्जा दिया जाता रहा है, उसे खतरा तो असल में उन लोगों से है, जो खुद संवेदनशील और जिम्मेदार मनुष्य नहीं हैं, दुख इसी बात का है कि सरकार इन्हें पहचानते हुए भी नहीं पहचानती। यदि सचमुच नदी को जीवित मनुष्य होने से पहले के जितने सरकारी नियम-कानूनों का भी पालन कर लिया जाता, तो ऐसी कोई नौबत आती ही नहीं।