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सरोवरनगरी को हरियाली से रंगने वाली झाड़ियों पर छाया संकट

सरोवरनगरी की धरा को हरियाली से रंगने वाली झाड़ियों के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है। सात किमी के क्षेत्र में करीब 90 फीसद झाड़ियां कम हो चुकी हैं।

नैनीताल: सरोवरनगरी की धरा को हरियाली से रंगने वाली झाड़ियों के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है। तीन दशक पहले तक हरा-भरा दिखने वाला शहर अब बदरंग नजर आने लगा है। आलम यह है कि टांकी बैंड से लेकर तल्लीताल तक सात किमी के क्षेत्र में करीब 90 फीसद झाड़ियां कम हो चुकी हैं। वैज्ञानिक न केवल इसे पर्यावरण के लिए खतरा बता रहे हैं, बल्कि इनका संरक्षण न होने पर भयावह परिणाम भुगतने की चेतावनी भी दे रही हैं।

तेजी से बढ़ती आबादी और अंधाधुंध भवन निर्माण का सरोवरनगरी पर बुरा असर पड़ा है। किलमोड़ा, घिंघारू, कोरियारा, हिसालू, बिच्छू घास, बरबेरी, सेपीएम, पालंग पत्ती, निगाल व हल्दू घास जैसे कई ऐसी प्रजातियां हैं जो पूरे नैनीताल में पाई जाती हैं। टांकी बैंड से लेकर तल्लीताल तक लगभग सात किमी के क्षेत्र में यह बहुतायत में पाई जाती हैं। हैरानी की बात है कि इस क्षेत्र में अब ये झाड़ियां 90 फीसद तक कम हो चुकी हैं।

यही नहीं कुदरती रूप से पनपने वाले छोटे पौधों का न पनपना भी समस्या बन चुका है। बांज, देवदार, सुरई, बुरांश, तिलौंज व पुतली समेत कई प्रजातियों के पौधों के पनपने की संख्या न के बराबर पहुंच चुकी है। कुमाऊं विश्वविद्यालय के डीएसबी परिसर के वनस्पति वैज्ञानिक प्रो. ललित तिवारी के अनुसार भवनों के साथ मार्गों के निर्माण में झाड़ियों का कटना स्वभाविक है, लेकिन जो झाड़ियां बची हैं उनका संरक्षण बेहद जरूरी है। हालांकि नगर के पश्चिमी क्षेत्र की झाड़ियां सुरक्षित हैं। इसका कारण यहां विकास कम होने के साथ नमी की मात्रा अधिक है।

पर्यावरण की सेहत के लिए अच्छा नहीं

आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान (एरीज) के पर्यावरणीय वैज्ञानिक डॉ. नरेंद्र सिंह का कहना है कि झाड़ियों के रूप में हरियाली का कम होना पर्यावरण की सुरक्षा के लिए सुखद संकेत नहीं हैं। बारिश के लिए हरियाली बेहद महत्वपूर्ण है। तेजी से घट रही हरियाली पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है।

सीवर में बरबाद होता है लाखों लीटर पानी

पर्यावरण प्रेमी स्नोव्यू निवासी व्यवसायी गोविंद लाल का कहना है कि इस क्षेत्र में हरियाली कम होने का एक कारण पानी का बड़ी मात्रा में सीवर लाइन में चले जाना है। पहले लोग खुले में बर्तन साफ करने के साथ नहाते भी थे।

इससे काफी मात्रा में नमी जमीन को मिल जाती थी और छोटी प्रजातियां की वनस्पतियां खूब पनपती थी। अब यह पानी रोजाना लाखों लीटर सीवर में चला जाता है।

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