दस्तक-विशेष

सिसकता पूर्वांचल

उप्र का पूर्वी हिस्सा साल दर साल बाढ़ और जापानी इंसेफेलाइटिस यानि दिमागी बुखार के कहर का शिकार होता रहा है और यह आज भी जारी है। हुक्मरानों ने अब तक इस दिशा में सिर्फ कागजी और चुनावी कदम ही उठाये हैं। इसके साथ ही राजनैतिक दलों ने अपने लाभ के लिए इस क्षेत्र के अपराधियों को खुले मन से राजनीतिकरण करने से भी गुरेज नहीं किया। गोरखपुर में मासूमों की मौत के बाद आंसू सूखे भी नहीं थे कि उप्र के ही फर्रूखाबाद में एक बार फिर ऑक्सीजन की कमी से 30 दिन में 49 बच्चों की मौत हो गयी। साफ है कि गोरखपुर काण्ड से हुक्मरानों ने कुछ नहीं सीखा और 49 और बच्चों की मौत हो जाने के बाद सिर्फ लकीर पीटी गयी और जिलाधिकारी, सीएमओ और सीएमएस को हटा दिया गया। इसके अलावा सीएमओ, सीएमएस और चिकित्सकों के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज करायी गयी और पूरे मामले की जांच के लिये शासन स्तर के अधिकारियों को भेजे जाने का ऐलान हुआ। सरकारी प्रवक्ता के मुताबिक 20 जुलाई से 21 अगस्त, 2017 के बीच जिला महिला चिकित्सालय फर्रूखाबाद में प्रसव के लिए 461 महिलाएं भर्ती हुईं, जिनके द्वारा 468 बच्चों को जन्म दिया गया। इनमें 19 बच्चे स्टिलबॉर्न थे।

-जितेन्द्र शुक्ल देवव्रत

जिस देश में एक मामूली और गरीब दलित परिवार में जन्मा बालक राष्ट्रपति बन जाता है। इतना ही नहीं रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने वाले का पुत्र देश का प्रधानमंत्री हो सकता है। इस बात का जिक्र इसलिए किया जा रहा है जिससे यह साफ हो सके कि भारत में जन्म लेने वाला हर नवजात देवों के आशीर्वाद से अपना भाग्य लिखाकर इस धरा पर आता है। लेकिन देश का यही भविष्य ईश्वरीय कम मानव निर्मित आपदा के चलते समय से पहले काल के गाल में समा जाये तो इसकी जिम्मेदारी किन कंधों पर डाली जाये, यह यक्ष प्रश्न जरूर है। आजादी के 71 साल का जश्न इन्हीं झंझावतों के बीच मनाया गया। लेकिन कम से कम देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में आजादी के इतने साल बाद भी जो कुछ घट रहा है उसके लिए अभी तक यहां शासन करने वाले ही नहीं वर्तमान में भी सत्तासुख भोग रहे लोग भी अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्वी भू-भाग का यह वह क्षेत्र है जहां मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का जन्म हुआ था। यह वह क्षेत्र है जिसकी कि देश की जीडीपी में 8.24 फीसदी की हिस्सेदारी है लेकिन इस इलाके की ओर सत्ताधारी दलों की आंखें बंद ही रहीं। नतीजा यह हुआ कि पूर्वी उप्र का यह हिस्सा जिसके तहत 20 जिले आते हैं, समय के साथ विकसित होने के बजाए विकास की दौड़ में पिछड़ता ही चला गया। यही वजह रही कि यहां से ही सबसे ज्यादा पलायन भी हुआ। उप्र का पूर्वी हिस्सा साल दर साल बाढ़ और जैपनीज इंसेफेलाइटिस यानि दिमागी बुखार के कहर का शिकार होता रहा है और यह आज भी जारी है। हुक्मरानों ने अब तक इस दिशा में सिर्फ कागजी और चुनावी कदम ही उठाये हैं। इसके साथ ही राजनैतिक दलों ने अपने लाभ के लिए इस क्षेत्र के अपराधियों को खुले मन से राजनीतिकरण करने से भी गुरेज नहीं किया। यह एक और वजह रही कि इस क्षेत्र की जनता के बीच अमीर और गरीब का फासला भी सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता ही चला गया।

मामला चाहे दिमागी बुखार का हो या फिर बाढ़ का, इन्हें प्राकृतिक आपदा कहकर पल्ला आसानी से झाड़ा तो जा सकता है और अपनी छवि बचाने के लिए आंकड़ों का जाल भी फेंकने से गुरेज नहीं किया जाता। लेकिन यदि केवल बच्चों की मौत के वास्तविक आंकड़े देखे जायें और उसके बाद जिम्मेदारों के ‘एक्शन’ को देखा जाये तो बहुत कुछ स्वत: ही स्याह-सफेद हो जाता है। एक से 30 अगस्त 2017 तक यानी सिर्फ आठ माह में अब तक 399 बच्चों की मौतें हो चुकी हैं। इस बार मौत के आंकड़े ने पिछले 12 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया। बीते दस वर्षों के आंकड़ों पर यदि नजर डाली जाये तो वह कुछ ऐसे दिखेंगे-साल 2006 में 431 मौतें, 2007 में 516, 2008 में 458, 2009 में 525, 2010 में 514, 2011 में 636, 2012 में 531, 2013 में 616, 2014 में 622, 2015 में 446 तथा 2016 में 446 बच्चों की असमय मृत्यु हो चुकी है। साफ है कि साल दर साल मौतें होती रहीं और उपाय के नाम पर सिर्फ भाषणबाजी हुई। क्या नौनिहालों की जानें बचाने के सार्थक उपाय नहीं किए जा सकते थे। अभी गोरखपुर में मासूमों की मौत के बाद आसूं सूखे भी नहीं थे कि उप्र के ही फर्रूखाबाद में एक बार फिर ऑक्सीजन की कमी से 30 दिन में 49 बच्चों की मौत हो गयी। साफ है कि गोरखपुर काण्ड से हुक्मरानों ने कुछ नहीं सीखा और 49 बच्चों की मौत हो जाने के बाद सिर्फ लकीर पीटी गयी और जिलाधिकारी, सीएमओ और सीएमएस को हटा दिया गया। इसके अलावा सीएमओ, सीएमएस और चिकित्सकों के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज करायी गयी, हालांकि चिकित्सकों के खिलाफ एफआईआर बाद में वापस ले ली गई। और पूरे मामले की जांच के लिये शासन स्तर के अधिकारियों को भेजे जाने का ऐलान हुआ। सरकारी प्रवक्ता के मुताबिक 20 जुलाई से 21 अगस्त, 2017 के बीच जिला महिला चिकित्सालय फर्रूखाबाद में प्रसव के लिए 461 महिलाएं भर्ती हुईं, जिनके द्वारा 468 बच्चों को जन्म दिया गया। इनमें 19 बच्चे स्टिलबॉर्न (पैदा होते ही मृत्यु हो जाना) थे। जबकि 449 बच्चों में से जन्म के समय 66 क्रिटिकल बच्चों को न्यू बॉर्न केयर यूनिट में भर्ती कराया गया, जिनमें से 60 बच्चों की रिकवरी हुई, शेष 06 बच्चों को बचाया नहीं जा सका। इसके अलावा, 145 बच्चे विभिन्न चिकित्सकों एवं अस्पतालों से जिला महिला अस्पताल, फर्रूखाबाद के लिए रेफर किए गए, जिनमें से 121 बच्चे इलाज से स्वस्थ हो गए। इस प्रकार 20 जुलाई से 21 अगस्त, 2017 के बीच 49 नवजात शिशुओं की मृत्यु हुई, जिसमें 19 स्टिलबॉर्न बच्चे भी हैं। यह सब तो ठीक है सरकार की ओर से आंकड़े दे दिए गए लेकिन समय रहते व्यवस्था हो जाती तो यह दिन नहीं देखने पड़ते। ठीक यही स्थिति बाढ़ को लेकर भी है। इस बार भी पूर्वांचल में मानसूनी बारिश औसत ही रही लेकिन फिर भी पानी कहर बनकर टूटा। पड़ोसी देश नेपाल से आये पानी ने तबाही मचायी। लाखों हेक्टेयर फसल बर्बाद हुई, एक सौ से अधिक की जनहानि हुई, पशुधन की हानि का तो अब तक आंकलन किया ही नहीं जा सका है। यह बर्बादी भी पहली बार नहीं हुई और इससे उप्र का पूर्वी हिस्सा ही नहीं पड़ोसी राज्य बिहार भी प्रभावित होता रहा है। नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी परियोजना अब तक परवान नहीं चढ़ सकी है। लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बाढ़ग्रस्त लखीमपुर जिले का जब दौरा किया तो उन्होंने इस जिले को बाढ़ से बचाने के लिए यहां आ रहा अतिरिक्त पानी गोमती नदी में ‘डायवर्ट’ करने के आदेश दिए हैं। अब देखना है कि अधिकारी इसमें कितनी तत्परता दिखाते हैं।

जब केन्द्र या फिर किसी भी राज्य की सरकारों पर किसी मुद्दे को लेकर आरोप लगते हैं तो तुरन्त ही आंकड़ों का सहारा लेकर स्वयं को सही और पूर्ववर्ती सरकारों पर ही सारा ठीकरा फोड़ती रही हैं। लेकिन वास्तविकता का सामना कोई नहीं करने को तैयार होता है। यूं तो देश में 2015 में पांच वर्ष से कम आयु के लगभग 10.8 लाख बच्चों की मौत हुई थी। यह आंकड़ा प्रतिदिन 2,959 मृत्यु या प्रत्येक मिनट में दो मृत्यु का है। इनमें से बहुत से बच्चों की मृत्यु ऐसे कारणों से हुई थी जिनसे उन्हें बचाया जा सकता था यानि उनका उपचार संभव था। ताजा उपलब्ध डेटा, सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम स्टैटिस्टिकल रिपोर्ट-2015 के अनुसार, देश में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर (यू5एमआर) एक विशिष्ट वर्ष में पैदा हुए एक बच्चे की पांच वर्ष की आयु तक पहुंचने से पहले मृत्यु की संभावना-वर्ष 2015 में प्रति एक हजार जीवित जन्मों पर 43 मृत्यु की थी। बाल मृत्यु दर को स्वास्थ्य और देश के कल्याण के लिए एक बड़ा संकेत माना जाता है, क्योंकि बाल मृत्यु दर पर प्रभाव डालने वाले कारण पूरी जनसंख्या के स्वास्थ्य पर भी प्रभाव डालते हैं। वर्ष 2015-16 के दौरान, जब अर्थव्यवस्था 7.6 प्रतिशत की वृद्धि दर के साथ पांच वर्षों में सर्वश्रेष्ठ दर के रिकॉर्ड के साथ वृद्धि के चार्ट पर ऊपर जा रही थी, वर्ष 2015 में 43 के यू5एमआर ने भारत को ब्रिक्स देशों में सबसे नीचे और दक्षिण एशिया में तीसरे सबसे खराब स्थान पर पहुंचा दिया था। हालांकि, इसमें वर्ष 2008 में 69 की दर से 26 अंकों का सुधार था। असम और मध्य प्रदेश जैसे कुछ भारतीय राज्यों में अफ्रीका के घाना से भी खराब यू5एमआर दर्ज की गई थी।

स्वास्थ्य मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2016-17 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2012 के डेटा के हवाले से बताया गया है कि पांच वर्ष से कम आयु में ज्यादातर मृत्यु के कारण नवजात शिशु संबंधी रोग (53 फीसदी), निमोनिया (15 फीसदी), डायरिया संबंधी बीमारियां (12 फीसदी), खसरा (3 फीसदी) और चोटें या दुर्घटनाएं (3 फीसदी) थे। ‘सेव द चिल्ड्रन’ के मुताबिक दो-तिहाई से अधिक नवजात शिशुओं की मृत्यु पहले महीने में ही हो गई। इनमें से 90 फीसदी मृत्यु निमोनिया और डायरिया जैसे आसानी से बचे जा सकने वाले कारणों से हुई। उपलब्ध आंकड़ों से स्पष्ट है कि, पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की अधिक मृत्यु ग्रामीण क्षेत्रों में हुई (प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 48 मृत्यु), जबकि शहरों में यह आंकड़ा 28 का था।
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के राज्यमंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते ने 28 जुलाई, 2017 को लोकसभा को बताया था कि सरकार ने 2009 में कम प्रदर्शन करने वाले जिलों की प्राथमिकता क्षेत्रों के तौर पर पहचान की है, जहां प्रति व्यक्ति अधिक फंडिंग की व्यवस्था की जाएगी। तकनीकी सहायता दी जाएगी और नए दृष्टिकोणों को अपनाने के साथ गंभीरता से निगरानी की जाएगी। कुलस्ते ने बाल मृत्यु दर को घटाने के लिए जननी सुरक्षा योजना और जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम जैसी राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत कोशिशों की जानकारी दी, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में बच्चों को जन्म देने वाली सभी गर्भवती महिलाओं को बच्चे के जन्म से पहले मुफ्त जांच, जन्म के बाद देखभाल और बीमार शिशुओं के एक वर्ष की आयु तक उपचार के लिए पात्र बनाती हैं। उन्होंने बताया था कि सरकारी सुविधाओं में नवजात शिशुओं की देखभाल के लिए विशेष यूनिट भी बनाई गई हैं। जवाब में कहा गया, व्यापक प्रतिरक्षण कार्यक्रम के तहत, सरकार टीबी, पोलियो, टिटनस और खसरा जैसी जीवन के लिए खतरनाक बीमारियों से बचाव के लिए मुफ्त टीके उपलब्ध कराती है। यूनिसेफ ने वर्ष 2016 के लिए अपनी ‘द स्टेट ऑफ द वल्ड्र्स चिल्ड्रन रिपोर्ट’ में कहा है, 2015-16 में दुनिया भर में लगभग 59 लाख बच्चों की मृत्यु- 16,000 प्रतिदिन- निमोनिया, डायरिया, मलेरिया, दिमागी बुखार, टिटनस, खसरा, घाव का बिगड़ना जैसी उन बीमारियों से हुई जिनसे बचा जा सकता था या उपचार हो सकता था।

वर्ष 2012 में डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के अनुसार, दुनिया भर में हर वर्ष अनुमानित तौर पर 15 मिलियन अपरिपक्व जन्म होते हैं। अफ्रीका और दक्षिण एशिया में 60 फीसदी से अधिक अपरिपक्व जन्म के मामले पाए जाते हैं। 3.5 मिलियन के आंकड़ों के साथ भारत अपरिपक्व बच्चों के जन्म की सूची में सबसे उपर है। 1.17 मिलियन के साथ चीन और 0.77 मिलियन के साथ नाइजीरिया दूसरे और तीसरे स्थान पर है। यदि जन्म के समय शिशु का वजन 2.5 किलो (5.5 पाउंड) से कम होता है तो उसे एलबीडब्लू कहा जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार अपरिपक्व बच्चा वह होता है जो गर्भावस्था के 37 सप्ताह के पूरा होने से पहले जीवित पैदा होता है। जनगणना कार्यालय द्वारा 2010-13 मौत सांख्यिकी कारणों की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में, ऐसे सभी शिशुओं में से जिन्होंने जन्म के बाद से 29 दिन पूरे किए, उनमें से 48.1 फीसदी एलबीडब्लू और अपरिपक्व जन्म से पीड़ित थे। एक साल के भीतर के आयु के बच्चों के लिए यह आंकड़े 35.9 फीसदी थे और 0 से 4 वर्ष आयु वर्ग में यह संख्या 29.8 फीसदी था। इन दो कारणों से 0-4 वर्ष के आयु वर्ग के बीच के बच्चों की सबसे अधिक लोगों की मृत्यु हुई है। लेकिन 1 से 4 साल के बीच हुई मौतों की वजह शिशु मृत्यु के 10 प्रमुख कारणों से अलग थे। इससे एक बात साफ है कि अपने देश में 0-1 वर्ष का वक्त बच्चों के लिए सबसे ज्यादा असुरक्षित है।

इन सब आंकड़ों को ध्यान में रखते हुए अब चर्चा करते हैं पूर्वी उप्र में फैली जानलेवा बीमारी जापानी इनसेफेलाइटिस (जेई) या दिमागी बुखार की। दरअसल यह हंगामा तब परवान चढ़ा जब पूर्वी उप्र का केन्द्र गोरखपुर के बाबा राघव दास (बीआरडी) मेडिकल कॉलेज में इसी साल अगस्त के महीने में मात्र छह दिनों में 63 मरीजों की मौत हुई है जिसमें कई बच्चे इनसेफेलाइटिस की चपेट में थे। साल 1978 में भारत में पहली बार इस बीमारी का पता चला था और अब तक इस बीमारी से करीब 15,500 मौतें हो चुकी है। उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह के अनुसार, बीते तीन साल में हर दिन औसत 17 से 18 बच्चों की मौत होती है। ये मामले अगस्त के महीने में ज्यादा हो जाते हैं। 2016 के अगस्त महीने में 587 बच्चों की मौत हुई थी जबकि 2015 में 668 बच्चों का जीवन नहीं बच पाया। वास्तव में हर साल जुलाई से लेकर दिसंबर तक काल बनने वाली यह बीमारी एक मादा मच्छर क्यूलेक्स ट्राइटिनीओरिंकस के काटने से होती है। इसमें दिमाग के बाहरी आवरण यानी इन्सेफेलान में सूजन हो जाती है। कई तरह के वायरस के कारण ब्रेन में सूजन के कारण हो सकते हैं। कई बार बॉडी के खुद के इम्यून सिस्टम के ब्रेन टिश्यूज पर अटैक करने के कारण भी ब्रेन में सूजन आ सकती है। यह बीमारी सबसे पहले जापान में 1870 में सामने आई जिसके कारण इसे ‘जापानी इंसेफेलाइटिस’ कहा जाने लगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2014 के आंकड़ों के अनुसार, दुनिया में विशेष तौर पर सुदूर पूर्व रूस और दक्षिण पूर्व एशिया में इस रोग के कारण प्रति वर्ष करीब 15 हजार लोग मारे जाते हैं।

साल 2006 तक इनसेफेलाइटिस का जिम्मेदार सिर्फ मच्छरों को माना जाता था। उसके बाद कुछ शोधों से पता चला कि सभी मामले दिमागी बुखार के नहीं थे। कई मामलों में वहां जलजनित एंटेरो वायरस की मौजूदगी पाई गई। वैज्ञानिकों ने इसे एईएस यानि एक्यूट इनसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) का नाम दिया। पूर्वांचल में कुछ समय में दिमागी बुखार के मामलों में तो कमी आई है, लेकिन एईएस के मामले बढ़े हैं। इस बीमारी के लक्षण भी दिमागी बुखार जैसे ही होते हैं। इस बीमारी से निपटने के लिए साल 2006 में पहली बार टीकाकरण कार्यक्रम शुरू हुआ। 2009 में पुणे स्थित नेशनल वायरोलॉजी लैब की एक इकाई गोरखपुर में स्थापित हुई, ताकि रोग की वजहों की सही पहचान की जा सके। टेस्ट किट उपलब्ध होने के चलते दिमागी बुखार की पहचान अब मुश्किल नहीं रही, लेकिन इन एंटेरो वायरस की प्रकृति और प्रभाव की पहचान करने की टेस्ट किट अभी विकसित नहीं हो सकी है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, देवरिया, कुशीनगर और बिहार के मुजफ्फरपुर, वैशाली जैसे इलाकों में छोटे-छोटे बच्चों में ‘जापानी इंसेफेलाइटिस’ (जेई) के रूप में यह पिछले दो दशकों से अधिक समय से दहशत का प्रतीक बन गया है। हालांकि यह बीमारी ओड़िशा और असम में भी विकराल रूप धारण कर चुकी है। पिछले साल ओड़िशा में इस बीमारी से 50 से ज्यादा लोग मारे गए थे। इसके अलावा 2014 में असम में इस बीमारी से 272 लोगों की मौत हुई थी।

साफ है कि जेई के चलते पूर्वांचल साल दर साल अपने नौनिहालों को खो रहा है। मासूमों की मौतें पहले भी हुईं और इस साल भी मौतों की दर पूर्ववर्ती सरकारों के समान रही। हालांकि उप्र की वर्तमान सत्ता पर इस समय योगी आदित्यनाथ काबिज हैं, जो कि गोरखपुर का ही भारतीय संसद में बीते करीब दो दशक से प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। इतना ही नहीं बतौर सांसद योगी आदित्यनाथ ने संसद में सबसे ज्यादा जेई से जुड़े सवाल उठाये। सरकारी तौर पर कोई न कोई कदम तो उठा ही होगा लेकिन स्वयं योगी आदित्यनाथ ने अपने स्तर से इस बीमारी का दमन करने की हमेशा कमान संभाली है लेकिन हालातों के आगे वे भी एक निश्चित सीमा तक ही प्रयास कर सके और आंशिक सफलता ही हासिल कर पाये। मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने गोरखपुर दौरे पर योगी ने कहा है कि स्वच्छता जेई, एईएस बीमारी से बचाव के लिए एक अच्छा उपाय है। जेई, एईएस बीमारी के पीछे प्रमुख कारण गंदगी एवं दूषित जल है। स्वच्छता से जेई, एईएस के विषाणुओं को पनपने से रोकने में काफी मदद मिलेगी, जिससे मासूम बच्चों की असमय होने वाली मौत पर काबू पाया जा सकेगा। यही वजह है कि सूबे में सरकार बनने के बाद योगी ने इंसेफेलाइटिस बीमारी से बचाव के लिए 38 जनपदों में 93 लाख बच्चों का टीकाकरण कराया। इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री ने इसी साल 31 दिसम्बर तक की समय सीमा में गोरखपुर को तथा अगले साल दो अक्टूबर, 2018 तक प्रदेश को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) करने की समय सीमा तय कर रखी है। साफ है कि तमाम प्रयासों एवं टीकाकरण के बावजूद देश का भविष्य पूर्वांचल में असमय काल के गाल में समा रहा है। पूर्वी उप्र में बच्चों को दुनिया देखे बिना ही इस बीमारी ने विदा करने में बड़ी भूमिका साल दर साल निभा ही रही है लेकिन वहीं दूसरी ओर इन नौनिहालों के अलावा उनके परिजनों के लिए भी हर साल इस क्षेत्र में आने वाली बाढ़ किसी बड़ी त्रासदी से कम नहीं है। समस्या केवल यही नहीं कि लाखों लोग बाढ़ का सामना कर रहे हैं, बल्कि यह भी है कि उनके घर गिर गए हैैं और मवेशियों को भी नुकसान पहुंचा है। राहत और बचाव के कितने भी उपाय किए जाएं, बाढ़ के कहर को एक सीमा तक ही कम किया जा सकता है। जो इलाके बाढ़ से उबर रहे हैं वहां अब बीमारियों के प्रकोप का खतरा उभरने को है। यह भी सभी ने देखा होगा कि जब कभी किसी इलाके में बाढ़ का पानी गंभीर संकट पैदा कर देता है तो यदा-कदा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों का हवाई दौरा करते दिखते हैैं। इससे बाढ़ की गंभीरता के बारे में तो पता चल जाता है, लेकिन यह मुश्किल से ही जानकारी मिलती है कि बाढ़ से बचने के लिए क्या स्थाई उपाय किए जा रहे हैं? हालांकि यह भी कटु सत्य है कि उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में बाढ़ ने तबाही मचाई हुई है तो दूसरी तरफ बुंदेलखंड में सूखे से लोग परेशान हैं।

पूर्वांचल के महराजगंज, बस्ती, गोरखपुर आदि जिलों के कई गांवों में लोगों के अनाज बाढ़ के पानी बह गए तो वहीं बुंदेलखंड में करीब साढ़े चार लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में बोई गई खरीफ की फसल बारिश नहीं होने से खराब होने के कगार पर पहुंच गई है। तेज बारिश और नेपाल से पानी छोड़े जाने के कारण पूर्वांचल और अवध के 16 जिलों में पानी घुस गया है। अब तक मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। गोरखपुर के कैंपियरगंज में अलगढ़पुर बांध, महराजगंज जिले में बनदेइया बांध बाढ़ के पानी के कारण टूट चुका है। पांच सौ से ज्यादा गांव बाढ़ के पानी से घिर गए और लोग जीवन बचाने की जद्दोजहद कर रहे हैं। इसी तरह देवरिया जिले के परसिया देवार में घाघरा नदी बांध को तोड़ चुकी है। मऊ जिले में घाघरा का जलस्तर खतरे के निशान से 70 सेमी ऊपर आ गया है। पूर्वांचल में बाढ़ का सर्वाधिक असर सिद्धार्थनगर, महराजगंज, कुशीनगर और गोरखपुर जिले में दिखा लेकिन अब सन्तकबीरनगर और देवरिया में भी खतरा बढ़ता दिख रहा है। दोनों मण्डलों में 100 से अधिक गांव बाढ़ से घिर चुके हैं, यह सरकारी आंकड़े चीख-चीखकर बयां कर रहे हैं। स्वयं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का मानना है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में बाढ़ की विभीषिका का मुख्य कारण नेपाल की नदियां हैं। इससे स्थायी निजात के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नेपाल के पीएम व भारतीय राजदूत से बातचीत हो रही है। जल्द ही कोई पुख्ता कार्ययोजना तय हो जाएगी जिस पर बहुत जल्द प्रयास भी शुरू होंगे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार पूर्वी उप्र में बाढ़ से अब तक करीब 10 करोड़ रुपये मूल्य की खड़ी फसल का नुकसान भी हुआ है। बाढ़ से प्रभावित 22 जिलों में सबसे ज्यादा जिले पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं तराई के क्षेत्र में आते हैं, जिसमे प्रमुख जिले हैं बलरामपुर, श्रावस्ती, गोरखपुर, मऊ, मिर्जापुर, गोंडा, सीतापुर, फैजाबाद, पीलीभीत, बस्ती, आजमगढ़, बिजनौर आदि हैं। बाढ़ से करीब 2,500 गांव प्रभावित हैं, जिसमें से 1,200 से अधिक का संपर्क दूसरे इलाकों से पूरी तरह से कट गया। बाढ़ का पानी निरंतर हो रही बारिश और निकटवर्ती नेपाल में हो रही बारिश की वजह से पानी के बहने से निचले इलाकों में जमा हो रहा है, जिससे हालत और विकट हो गए हैं। जहां एक ओर, लोग बाढ़ से परेशान हैं, वहीं प्रभावित इलाकों में अब बीमारियों का खतरा भी मंडराया। हालांकि योगी सरकार ने बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में राहत एवं बचाव कार्यों के लिए सेना के अतिरिक्त, पीएसी और एनडीआरएफ के जवानों को तैनात किया है, जो चौबीसों घंटे काम पर लगे हैं। इन जवानों ने अब तक करीब 50,000 लोगों को बाढ़ से सुरक्षित निकाला है, और 20,000 से भी अधिक लोगों को राहत शिविरों में पहुंचाया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, योगी सरकार ने अब तक बाढ़ से प्रभावित लोगों में 44 लाख रुपये राहत राशि के रूप में वितरित की।

वास्तव में पूर्वांचल हमेशा से बीजेपी का गढ़ रहा है। लोकसभा और यूपी की विधानसभा चुनावों में बीजेपी को सबसे ज्यादा सीटें इसी इलाके से मिलीं। लोकसभा में आजमगढ़ से जीते मुलायम सिंह यादव को छोड़ दें तो सभी सीटें बीजेपी के खाते में गयी थीं। वहीं विधानसभा चुनावों में पूर्वांचल के 25 जिलों की 141 सीटों में से 111 सीटें बीजेपी की झोली में आयीं। 25 में से 10 जिले तो ऐसे थे जहां किसी और दल का खाता ही नहीं खुला। दरअसल बीजेपी की नजर पूर्वांचल की सीटों पर पहले से ही थी यही वजह थी कि मोदी की रैली सबसे ज्यादा पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में हुई और मोदी अंत में तीन दिन तक वाराणसी में ही टिके रहे। उधर, योगी आदित्यनाथ जापानी बुखार से लड़ने के लिए एक अदद एम्स की मांग को लेकर लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे थे। जिसके चलते 2011 में यूपीए सरकार ने संसद में इस बात का आश्वासन दिया था कि एक्यूट इन्सेफलाइटिस सिंड्रोम से लड़ने के लिए गोरखपुर में जल्द से जल्द एम्स जैसा संस्थान बनेगा। 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद भी पूर्वांचल की इस त्रासदी को रोकने के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया।

मोदी सरकार ने 2016 में 750 बेड वाले एम्स अस्पताल के निर्माण को मंजूरी दी। पीएम नरेंद्र मोदी ने खुद जुलाई 2016 में एम्स की नींव रखी थी। लेकिन एम्स 2019 से पहले बनने की हालात में नहीं है। ऐसे में 950 बेड वाला बीआरडी मेडिकल कॉलेज ही पूर्वांचल के लोगों का एकमात्र सहारा है। गोरखपुर में एम्स को लेकर हुई देरी के लिए सिर्फ बीजेपी सरकार ही जिम्मेदार नहीं है। दरअसल इसको लेकर योगी अखिलेश को भी निशाने पर ले चुके हैं। योगी आदित्यनाथ ने अखिलेश यादव पर एम्स के लिए जमीन ना देने का आरोप लगाया था। चुनाव से पहले उन्होंने कहा था कि अखिलेश सरकार जान बूझकर एम्स गोरखपुर के लिए विवादित जमीन दे रही है जिसके चलते एम्स निर्माण का रास्ता अटका हुआ है। गोरखपुर में एयर फोर्स के पास महादेव झारखंडी के टुकड़ा नंबर दो में गन्ना शोध संस्थान की 112 एकड़ जमीन पर गोरखपुर का एम्स प्रस्तावित है। काफी राजनीतिक आरोपों-प्रत्यारोपों और विवादों के बाद इस जमीन को एम्स के लिए चुना गया। एम्स जिस जमीन पर बन रहा है उस जमीन की कीमत करीब 700 करोड़ रुपए है। लेकिन प्रदेश सरकार ने इस जमीन को केंद्र सरकार को एम्स बनाने के लिए जनहित में केवल 90 रुपए में दी है। एक रुपए सालाना किराया दर पर यह जमीन 90 साल के लिए लीज पर दी गई है। लीज जरूरत पड़ने पर बढ़ाई भी जा सकती है। इन सारे तथ्यों से साफ है कि जापानी बुखार और नेपाल से छोड़े गए पानी के कारण आयी जल त्रासदी पूर्वी उप्र के भविष्य को साल दर साल निगल रही है और सरकारों की निष्क्रियता देश के भविष्य का समय से पहले गला घोंट रही है। ल्ल

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