हिंदी को विश्व भाषा बनने की मुश्किलें
सांस्कृतिक और भाषा का द्वंद विश्व संस्कृति में अनादिकाल से ही देखने को मिला है। इसी क्रम में हिंदी को लेकर अनेक प्रकार के मत-मतांतर सामने आते रहे हैं। अपने देश में हिंदी को भाषायी आधार पर संवैधानिक दर्जा दिये जाने की मांग भी काफी पुरानी है और औचित्ययुव्त है। संख्या की दृष्टि से देखे तो दुनिया में तीसरे नबंर पर बोली जाती है। यहां बताना जरूरी है कि यह केवल उŸार भारत के राज्यों तक ही सीमित नहीं है बल्कि विदेशी धरती पर भी यह वैचारिक आदान-प्रदान,राजकाज और अन्य व्यवहारिक चीजों का आधारस्तंभ है। इस आधार पर अब यह मांग भी जरूरी है कि हिंदी विश्व भाषा बने। वह अपने गुणों के आधार पर विश्व भाषा बन भी जायेगी,लेकिन उसके पहले कुछ मुश्किलें राजनैतिक और प्रशासनिक इच्छाशव्ति की है। हम इस पूरे प्रसंग में इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर दृष्टि डालेंगे जो इस प्रकार है।
कहा जाता है कि चीनी और अंग्रेजी के बाद हिंदी दुनिया की तीसरी बड़ी भाषा है लेकिन यह मान्यता अब पुरानी पड़ गयी है। इस मान्यता का आधार यह था कि चीनी बोलने वालों की संख्या एक अरब से भी ज्यादा है और अंग्रेजी अमरीका, ब्रिटेन आस्ट्रेलिया,न्यूजीलैंड और आधे कनाडा के अलावा लगभग 50 राष्ट्रकुल देशों में भी बोली जाती है। इन्ही तथ्यों के आधार पर हिंदी को तीसरे स्थान पर बिठा दिया जाता है। यदि इन तर्को की ठीक से परीक्षा करे तो इस नतीजे पर पहुंचेगें कि विश्व में हिंदी बोलने और समझ्ाने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है और उसका स्थान सर्वप्रथम होना चाहिये। हिंदी का व्याकरण और उच्चारण के लिये चीनी को अपनाना जितना कठिन है गैर हिंदियों के लिये हिंदी अपनाना उतना ही सरल है। अब अग्रेंजी को लें, अंग्रेजी दुनिया के सिर्फ चार देशों में बोली जाती है जिनकी आबादी लगभग 50 करोड़ है। इन देशों में भी सभी लोग अंग्रेजी नहीं बोलते। अपेले अमरीका में चार करोड़ हिस्पानी भाषी हैं। उनके अलावा चीनी, भारतीय,जापानी आदि अन्य भाषा-भाषायी लगभग एक करोड़ हैं। ये सब अपनी मातृ भाषाओं को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहें हैं अंग्रेजी गढ़ ग्रेट ब्रिटेन में भी लाखों स्कॉट और वैल्श लोग अंग्रेजी के दबदबे का विरोध करते हैं। हिंदी का इतिहास लगभग एक हजार साल पुराना है लेकिन अगर पाली और प्राकृत में उसका मूल खोजने लगें तो वह ढ़ाई हजार साल तक पीछे जा सकती हैं।
जरा विचार करें कि पिछले हजार दो हजार साल में कितने लोग भारत में पैदा हुए होंगे। यह हिसाब अरबों-खरबों तक पहुंच जाएगा। जिस भाषा को खरबों लोग सैकड़ो वर्षो से बोलते लिखते चले आ रहे हैं क्या उसे पिछड़ी हुई भाषा माना जा सकता है? आज तक हिंदी का कोई विशाल शब्दकोष नहीं बना है। यदि लोक प्रचलित शब्दों को ही लिपिबृद्ध कर लिया जाए तो कम से कम पचास लाख शब्द बनेगें। दुनिया की कौन सी अन्य भाषा है,जिसके पास हिंदी से अधिक शब्द हैं? इस सब विशेषताओं के बावजूद हिंदी विश्व भाषा नहीं है, यह स्वीकार करने मे हमें क्यों हिचकना चाहिये? यह सत्य है कि जो भाषा अपने ही घर में अनाथ है,उसे हमें विश्वनाथ बनाने चले हैं। यह सपना हैं। यह भी एक विचार है लेकिन विचार को वास्तविकता का रूप कैसे दिया जाए यह हमारी वास्तिविकता का रूप कैसे दिया जाए यह हमारी मुख्य चिंता है। यह चिंता उन भाषाओं की भी रही है जो आज विश्व भाषा के नाम से जानी जाती हैं।
अभी तीन चार सौ साल पहले तक लंदन की अदालतों में अंग्रेजी बोलने पर जुर्माना होता था। अंग्रेजी को अंग्रेजी का रूतबा हासिल करने के लिये सदियों तक लड़ना पड़ा। हिंदी की लड़ाई को तो अभी पैंसठ साल ही हुए हैं। यदि इस लड़ाई में हिंदी हार गयी तो वह विश्य भाषा कभी नहीं बन सकती है। विश्व भाषा बनने के पहले हिंदी को भारत भाषा बनने के पहले हिंदी को भारत भाषा बनना होगा। प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विष्णु सखाराम खाड़ेकर ने लिखा है कि राष्ट्रभाषा उसी देश की मिट्टी से निर्माण होना चाहिए। इस वजह से हिंदी को हमने राष्ट्रभाषा के नाम से सम्मानित किया। इस महाकाय देश में प्राचीन काल से ही आसेतु हिमाचल आते जाते समय इस हिंदी का ही सहारा लेना पड़ा। कई भारतीय भाषाएं साहित्य की दृष्टि से संपन्न होते हुए भी वह दर्जा प्राप्त नहीं कर सकीं। डॉ. वी.के. आर.वी.राव ने भी यही कहा था कि भाषा किसी भी राष्ट्र की अनिवार्य विशेषता है और अगर भारत को राष्ट्र बनाना है तो हिंदी ही उसकी राजभाषा हो सकती है। इसलिये डॉ. राममनोहर लोहिया विश्वास के साथ कह सकते है थे कि जनतंत्र और अंग्रेजी साथ-साथ नहीं चल सकते। समस्त भारतीय भाषाओं के बीच हिंदी न केवल एक संपर्प सेतु है बल्कि अपने काम में भी उसमें समूचा देश बोलता है। वह एक प्रकार से भारत की सांस्कृतिक अस्मिता को, समग्र अस्मिता को स्वर देने वाली भाषा है। यह चमत्कार कैसे संभव हुआ होगा आप सोचिए कि भाषा का आधुनिक रूप खड़ी बोली जो कि महज 100-150 वर्षो में उपजी और सारे देश में छा गई,कैसे यह संभव हुआ कि 150 साल के अंदर उसने ऐसी क्षमता अर्जित कर ली कि अंग्रेजी साहित्य ने जिन दूरियों को लांघने में 400-500 साल लगाए थे इतना वैविध्य सृजन करने में हिंदी ने सौ साल के अंदर वो सारी दूनियां फलांग ली। विश्व कवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने एक रूपक द्वारा प्रांतीय और राष्ट्रभाषा के संबंध को स्पष्ट करते हुए लिखा था।
‘‘ आधुनिक भारत की संस्कृति एक विकसित शतदल के समान है। जिसका हरेक दल एक-एक प्रांतीय भाषा और उसकी साहित्य संस्कृति है। किसी एक को मिटा देने से उस कमल की शोभा नष्ट हो जाएगी। हम चाहते है कि भारत की सब प्रांतीय बोलियां जिसमें सुंदर साहित्य की दृष्टि हुई है अपने-अपने घर में रानी बनकर रहें।‘‘
लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं का माध्यम देशी भाषाओं को बनाने का आंदोलन गत् दस वर्षो से चल रहा है। जब तक नेतागण विपक्ष में होते हैं वह इस आंदोलन का समर्थन करते हैं मगर सŸाा की कुर्सी पर बैठते ही तोते ही तरह आंखें बदल लेते है। अखिल भारतीय सेवाओं के उच्च अधिकारियों का ज्यादातर अंग्रेजी से लगाव होना स्वाभाविक ही है। देश का शासन तंत्र यही वर्ग चलाता है इसलिये शासन की भाषा अंग्रेजी ही है। जहां तक सेवाओं का संबंध है पुरानी पीढ़ी देश की स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी हुई थी इसलिये उन्हें लोक भाषाओं से मोह था। खास बात तो यह है कि गैर हिंदी पहुंचाने के लिये हिंदी का ही सहारा लिया। महात्मा गांधी गुजराती होते हुए भी भाषण हिंदी में ही देते थे। पाठकों को इस बात से शायद हैरानी हो कि नेता जी सुभाषचंद बोस गैर हिंदी भाषी थे। वह अंग्रेजी पब्लिक स्कूल में पढ़े थे मगर उन्होंने आजाद हिंद फौज के काम काज का माध्यम सिर्फ हिंदी को बनाया। वह आजाद हिंद फौज के सैनिकों को हिंदी में ही संबोधित करते थे। राजगोपालाचार्य ने दक्षिण भारत को राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के माध्यम से हिंदी के प्रचार के लिये शानदार काम लिया। डॉ. राम मनोहर लोहिया के हिंदी प्रेम को कौन नहीं जानता। उनके चेले हिंदी का ही इस्तेमाल करने में गौरव अनुभव करते थे। देश के दुर्भाग्य से आज के नेताओं के सिर पर अंग्रेजी का भूत बुरी तरह से सवार है। जो लोग संसद की कार्यवाही कवर करते हैं वह इस तथ्य से बखूबी वाकिफ हैं कि गैर हिंदी भाषी सांसद तो हिंदी बोलना पंसद करते हैं जबकि हिंदी प्रदेशों से निर्वाचित सांसद अंग्रेजी में भाषण देने के बावले हो रहे हैं। भले ही उनमें अंग्रेजी अशुद्ध हो।
देश की विभिन्न देशें भाषाओं के साहित्य को हिंदी में अनुवाद किया जाना भी जरूरी है। इससे राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ होगी। हिंदी के साहित्यकारों और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के बीच तालमेल बढ़ाना भी नितांत जरूरी है। हिंदी को सरकारी भाषा के अतिरिव्त जन जन की भाषा बनाने की दिशा में ठोस प्रयास होने चाहिये। सही मायनों में देखा जाये तो भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए हर कदम उठाना जरूरी हो गया हैं इससे हमारी राष्ट्रीय स्मिता और पहचान दोनों मजबूत होंगे। ऐसे में भौगोलिक सीमाओं की संकीर्णता से ऊपर उठकर वैचारिक और भावानात्कम आकाशमंडल का निर्माण किया जाना आज की आवश्यकता प्रतीत होती है।