कामदेव का कोई मंदिर नहीं, लेकिन यहां विराजे हैं कामदेव
उत्तराखंड में कामदेव की यह एकमात्र मूर्ति मानी जाती है। जिससे यह माना जाता है कि इस इलाके में कभी कामदेव का कोई मंदिर अवश्य रहा होगा। शास्त्रों में कहा गया है कि वसंत ऋतु के दौरान प्रकृति में उल्लास और मधुरता कामदेव के कारण ही आती है। चूंकि भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था इसलिए आमतौर पर कामदेव के पूजन की परंपरा नहीं रही है।
हिंदू धर्म में कामदेव को अशरीर माना जाता है। वह किसी विशेष अंग में न रहकर जीवन को ऊर्जावान और मधुर बनाने के लिए प्रकृति के बदलते स्वरूप में खुद के मौजूद रहने का अहसास कराते रहते हैं। कत्यूर घाटी में गरुड़ (बैजनाथ) के पास गढ़सेर गांव में खुदाई के दौरान पुरातत्व विभाग को 1984-85 में कामदेव की एक दुर्लभ मूर्ति मिली।
पुराविद कौशल किशोर सक्सेना बताते हैं कि इस स्थान पर तब मंदिर के अवशेष भी मिले थे जिससे यह माना जाता है कि यहां कामदेव का कोई मंदिर अवश्य रहा होगा। बैजनाथ (कत्यूर घाटी) को कत्यूर शासकों की राजधानी भी माना जाता है। इस इलाके में कत्यूर काल के कई मंदिर और मूर्तियां आज भी हैं।
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पत्थर की बनी कामदेव की यह मूर्ति दसवीं शताब्दी की है। यह मूर्ति शिल्प कला की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस मूर्ति में कामदेव कमल और ललित आसन में हैं। उनके दोनों तरफ उनकी पत्नियां प्रीति और रति को त्रिभंग मुद्रा में दर्शाया गया है। कामदेव के हाथों में मकरध्वज और धनुष है।
उनके माथे पर रत्नजड़ित मुकुट हैं। हिंदू शास्त्रों के मुताबिक प्रद्युम्न को कामदेव का दूसरा अवतार माना जाता है। उन्होंने भगवान कृष्ण और रुकमणि के पुत्र के रूप में जन्म लिया। इसी वजह से कुछ विद्वान इसे प्रद्युम्न की मूर्ति भी मानते हैं।