क्रोध और घृणा पर ऐसे पाएं विजय
एजेंसी/ प्राचीन काल में हुए हमारे महात्मा धैर्य व करुणा के प्रतीक थे। उनमें करुणा न होती तो यह जगत सचमुच नरक-तुल्य ही होता। यह छोटी-सी कहानी बताती है कि करुणा से सभी तरह के अपराध क्षय हो जाते हैं।
एक बार एक राजा अपने पुत्र को ले कर एक गुरु के पास आया। जब राजा अपने दल-बल के साथ गुरु के आश्रम में पहुंचा तो वहां उसके स्वागत के लिए कोई न था। राजा को गुरु के समाधि से बाहर आने की प्रतीक्षा करनी थी। अत: ज्यों-ज्यों प्रतीक्षा का समय बढ़ता जाता, उसकी खीझ बढ़ती जा रही थी।
जब गुरु ने आंखें खोलीं तो राजा को वहां खड़े पाया और बड़ी विनम्रतापूर्वक उनके आगमन का आशय जानना चाहा। परन्तु राजा अब अपने क्रोध को संयमित न कर सका और बोल उठा कि तुम जानते नहीं कि जब राजा का आगमन हो तो उसका उचित आदर-सत्कार सहित स्वागत किया जाना चाहिए।
राजा जैसे तैसे शांत हुआ और अपने पुत्र को वहां प्रवेश दिलवाया, किन्तु भीतर अब भी क्रोध शेष था जो कि पुत्र के गुरुकुल में रहने के दौरान बना ही रहा। राजकुमार एक उत्तम छात्र था। अपनी विनम्रता, कर्मठता तथा गुरु-भक्ति द्वारा उसने सारे आश्रम का मन मोह लिया था।
जिस दिन आश्रम से विदा लेने का समय आया तो उसने गुरु को प्रणाम कर कहा, मेरे आभार के प्रतीक के रूप में मैं आपके चरणों में कुछ अर्पण करना चाहता हूं। कृपया आज्ञा कीजिये। यह सुन कर गुरु ने कहा, अब तुम राजमहल लौटो। उचित समय आने पर मैं दक्षिणा मांग लूंगा।
राजकुमार ने गुरु को सिर झुकाकर प्रणाम किया और विदा हुआ। पुत्र को देखते ही, इतने वर्षों से गुरु के प्रति राजा के भीतर दबा हुआ क्रोध भड़क उठा। उसने अपने सैनिकों को तुरन्त गुरु का आश्रम फूंक डालने की आज्ञा दे दी, किन्तु पुत्र को इस बात की भनक तक न लगने दी। राजा को खुश करने के लिए उन्होंने गुरु की पिटाई भी कर डाली तथा उनके शिष्यों को भी खदेड़ कर वन में भगा दिया।
शीघ्र ही युवराज के राज्याभिषेक का समय आ पहुंचा। राजसिंहासन पर आसीन होने के पूर्व राजकुमार उस स्थान पर पहुंचा, जहां कभी आश्रम हुआ करता था, तो चकित रह गया। थोड़ी देर खोजने के बाद उसे एक वृक्ष के नीचे गुरु जी ध्यानस्थ बैठे दिखाई दिए।
उसने उन्हें दंडवत प्रणाम कर अपने भावी राज्याभिषेक की सूचना दी। उसके पूछने पर कि आश्रम को क्या हुआ, गुरु ने बताया कि आश्रम नष्ट हो गया। तभी राजकुमार का ध्यान गुरु के सारे शरीर पर लगी चोटों की ओर गया।
अब वह समझ पा रहा था कि वास्तव में क्या घटित हुआ था। आश्रम के लोगों ने उसे सारी बात बताई। अब युवराज क्रोध से आग-बबूला हो उठा। उसे रोकने का प्रयत्न करते हुए गुरु ने कहा, पुत्र, अपने क्रोध को संयमित करो। आवेश के स्थान पर धैर्य करना सीखो। मैंने सोचा तुमने स्वयं पर संयम पा लिया है।
नहीं, गुरुदेव, मैं प्रतिशोध का प्यासा हूं। अंतत: गुरु ने हार मानते हुए कहा, ठीक है, उस वचन का स्मरण करो जो तुमने मुझे दक्षिणा के समय दिया था। राजकुमार घोड़े से उतर कर बोला, कृप्या कहिये, मैं आपको क्या दे सकता हूं? गुरु ने धैर्यपूर्वक उत्तर दिया, अपने पिता के कर्मों को क्षमा कर दो। गुरु ने पूछा, क्या तुम यह वचन निभाओगे?
राजकुमार ने तलवार को गुरु के चरणों में रख कर, दंडवत प्रणाम किया और कहा, कृपया मुझे विवेक शक्ति खो बैठने के लिए क्षमा कीजिये। मेरे पिता के पापों को धोने के लिए तो आपकी करुणा ही पर्याप्त है। उनके सब अपराध क्षय हो गए हैं। गुरु ने आंखों में आंसू सहित राजकुमार को गले लगा लिया।
गुरु उन्हें क्षमा कर देते हैं, जो उनकी हंसी उड़ाते हैं : तुम्हें हभी अपनी घृणा पर प्रेम द्वारा विजय पानी चाहिए तथा क्रोध को धैर्य द्वारा जीतना चाहिए। जब शिष्य का गुरु के चरणों में पूर्ण समर्पण होता है तो दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति न रह कर एक हो जाते है। तब परमात्मा-मात्र रह जाता है।
परमात्मा हमें सत्य के मार्ग पर ले चलें। गुरु उन्हें क्षमा कर देते हैं, जो उनकी हंसी उड़ाते हैं। इसी तरह तुम भी क्रोध तथा घृणा से मुक्त होना सीखो। ईश्वर करे कि तुहारे मन में धैर्य तथा प्रेम उमड़ आये।