दस्तक-विशेषसाहित्य

प्रेरणा कहीं और से नहीं अपने ही भीतर से आती है

न्यूयॉर्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में हिन्दी भाषा और साहित्य की प्रोफेसर सुषम बेदी जी का नाम प्रवासी-साहित्य लेखन में अपरिचित नहीं है। परदेस में रहते हुए भी अपनी भाषा और साहित्य के प्रति उनका सृजनात्मक समर्पण अनुकरणीय है। साहित्य की प्राय: सभी विधाओं पर, चाहे वह कविता हो, कहानी हो, उपन्यास हो, नाटक हो, निबन्ध हो, आलोचना या आत्मकथा ही क्यों न हो आपकी लेखनी समग्र संवेदनशीलता, दक्षता और विद्वता के साथ चलती है। सुषम जी गायन और रंगमंच से भी गहरे जुड़ाव रखतीं हैं। बहुआयामी व्यक्तित्व की स्वामिनी सुषम बेदी के व्यक्तित्व से जुड़े अनेकानेक पहलुओं पर बातचीत कर रही हैं, दस्तक टाइम्स की साहित्य- संपादिका डॉ़ सुमन सिंह

डॉ. सुमन सिंह

आपको कब लगा कि आपके भीतर एक सर्जक छुपा है?
सर्जक नहीं कहूंगी, बहुत बड़ा शब्द है। पर लखनऊ की बात है, 9वीं कक्षा में स्कूल की आधी छुट्टी के वक्त किसी कोने में अकेले बैठ जाना और कविता लिखना याद है। उन दिनों अपनी हिंदी टेक्स्टबुक में कवितायें पढ़ा करते थे तो तभी कविता लिखने का मन हो उठा था। कॉपी-बस्ते में साथ रहती और जब मन में कुछ घुमड़ता, लिख डालती। दसवीं में मैंने एक उपन्यास लिख डाला था जो अब खो चुका है। उसे मैंने एक सहेली को पढ़ने को दिया था। वह मुझसे एक क्लास आगे थी और बहुत अच्छी गायिका थी। उसके प्रति मन में बहुत सम्मान था इसलिये उसको दे दिया था लेकिन उसने उस समय लौटाया नहीं और बाद में मैं पिता जी के साथ बंगाल लौट गयी थी क्योंकि उनका तबादला वहाँ हो गया था। अपने लिखे हुए को मैं परिवार और सभी से छुपाकर रखती थी। डर लगता था कि मेरे भीतर की दुनिया कहीं एक्सपोज न हो जाय।  कविताओं की कॉपी मेरे साथ रही और जब बीए करने दिल्ली आयी तो पहले वह कॉपी दिखाने में भी शर्म आती। दरअसल वे थीं भी बड़ी अपरिपक्व। 9वीं में आखिर क्या लिखा होगा। दिल्ली में ही फिर कुछ कवितायें और कहानियाँ लिखीं जिनको महाविद्यालय और राज्य स्तर की प्रतियोगिताओं में पुरस्कार भी मिले। जब तक पढ़ती रही, लिखती रही फिर लिखना छूट गया। मन में लिखने की बात उठती पर पता नहीं क्यों सालों तक लिखा नहीं गया। इस बीच शादी हुई, बच्चे हुए, कॉलेज में भी पढ़ाया। जिंदगी की आपाधापी में वक्त फिसलता गया। कुछ छिटपुट लिखा पर व्यवस्थित ढंग से कुछ नहीं।
व्यवस्थित लेखन कब से शुरू हुआ, आप किस रचना को प्रारंभिक-प्रेरक रचना मानती हैं?
मेरे लिये भारत से बाहर आना मेरे लेखन के लिये शुभ रहा। यहाँ सारा का सारा वक्त मेरा ही था। नयी दुनिया, नये अनुभव, अकेलापन और सारे के सारे नये जगत को बस अपने भीतर ही समोना था। फिर से लिखने की बेचैनी जोर पकड़ने लगी । पहले मेरे पति का तबादला बेल्जियम, ब्रसल्स में हुआ था। वहीं पर मेरे लेखन का दुबारा जन्म हुआ। वहीं से अपने पुनर्जन्म के बाद पहली कहानी ‘जमी बर्फ का कवच’ मैंने श्रीपतराय द्वारा संपादित पत्रिका ‘कहानी’ में भेजी। सुन रखा था कि नयी कहानी के बड़े-बड़े लेखकों की पहली कहानी वहीं छपी थी। श्रीपतराय ने बहुत जल्द जवाब दिया। मुझे लिखा-‘कहानी जानदार है। इसे जल्द ही छापूंगा। लिखती रहो, लिखने से हाथ खुलता है।’ उनके ये शब्द सचमुच मेरे लेखन को जीवन देने वाले थे। क्योंकि मैंने महसूस किया कि मुझे हिचकना नहीं, लिखते रहना है तभी बेहतर लिख सकूंगी। वरना इतने साल मुझे लिखने से कहीं यह बात भी रोक देती थी कि इतना सब कुछ तो पहले से ही लिखा जा चुका है,अब मैं भला क्या नया दे सकूंगी। इस कारण जो भी विचार मन में आता उसे वहीं दबा देती। उसके बाद एक और कहानी लिखी पर कहानी फिर रुक गयी, लेख लिख रही थी। अवरोध इसलिये आया कि अपनी पीएचडी खत्म करनी थी और हम बेल्जियम से अमरीका आ रहे थे।1979 में हम न्यूयार्क आ गये तो फिर से वक्फा पड़ा लेखन की प्रक्रिया में। हर साल एकाध कहानी ही लिखी जाती। नयी जगह में सेटल होने में समय लगता है, लगा। लेकिन लिखने की उमड़-घुमड़ भीतर होती रही। सन 85 दिसंबर में कब से भीतर घुमड़ते हुए उपन्यास ने जोर पकड़ा और बाहर आने की धमकी दी। लिखना शुरू किया तो रुक नहीं पायी लिखती रही जब तक खत्म नहीं हुआ। उसके बाद से तो बस लिखती ही चली आ रही हूँ। अभी ‘हवन’ खत्म नहीं हुआ था कि दूसरे उपन्यास की रूपरेखा जहन में तैयार होने लगी। वह खत्म हुआ तो तीसरा उपन्यास ‘इतर’ लिखने की बेचैनी। अभी किताबघर से 2017 में आया उपन्यास ‘पानी केरा बुदबुदा’ मेरा नवां उपन्यास है।
सब रचते-सिरजते कभी ऐसा लगा कि छूटते समय और बदलते परिदृश्य को आप उस तरह से नहीं थाह पा रही हैं, जिसको समय की नब्ज पकड़ना कहते हैं। मतलब इस बाधा रहित लेखन में मन मुक्त होकर अनवरत लिखता रहा या कहीं कोई सामाजिक-वैचारिक या कि भौगोलिक (प्रवासी होने के कारण) अवरोध भी आया?
अगर छूटने का भाव महसूस हुआ तो यही कि भारत का समय और स्पेस दोनों ही मुझसे छूट गये हैं। वहाँ के तेजी से होते बदलावों को भौंचक्की सी देखती हूं पर जहां रहती हूं और जिस दुनिया में जी रही हूं, उसकी पकड़ ढीली नहीं होने देती। लेकिन अब मैं भारत के बारे में लिखती नहीं। मेरे चौथे उपन्यास ‘कतरा-दर-कतरा’ की जमीन भारत ही है। मुझे लगता है वह मेरा बहुत सशक्त उपन्यास है पर उस पर ध्यान कम ही लोगों का जाता है क्योंकि वह प्रवासियों की कहानी नहीं है। लेकिन उसमें मैंने पुरुष की सेक्सुएलिटी, सपनों और दर्द को उठाया है जो अपने समय से आगे का ही विषय था। आज भी वह सच भारत का है। जब भारत में आकर रहने लगती हूं तो बहुत जल्दी-जल्दी छूटे हुए को वापिस पकड़ने की कोशिश भी बनी रहती है। एक बात और है, भारत में एक साथ एक नहीं कई समय और कई तरह के स्पेस बसते हैं। मैं समय से बाहर नहीं हो सकती। कोई न कोई समय तो मेरा रहेगा ही। यही बात स्पेस की भी है। पर बहुत हद तक यह सच कई दूसरे देशों का भी है, अमेरिका का भी। हाँ, जहाँ तक अमेरिका में रहकर यहाँ के जीवन के बारे में लिखने की बात है तो उसकी भी सीमायें जरूर हैं। हम अमरीकी भारतीय जीवन को उकेरते भर हैं, एक गोरा या काला अमरीकी क्या जीता है, उसके बारे में कम लिखते हैं। शायद वहाँ मेरे मन में अक्सर प्रमाणिकता का सवाल उठ जाता है। इसलिये मैं उन्हीं विषयों को अपने कथा लेखन में उठाती हूं जिन पर अपना पूरा अधिकार समझती हूं और जिनकी बारीक सच्चाइयों को मैं प्रमाणिक तौर पर प्रस्तुत कर सकती हूँ।
महिला रचनाकार होने के नाते क्या महिला केंद्रित विषयों पर लेखन को आपने प्राथमिकता में रखा या कि यह भी अन्य विषय की तरह ही स्वत: आपके लेखन में आता रहा? आपकी किन-किन कृतियों में स्त्री सजग-सचेत रूप में आयी है?
स्त्रियाँ मेरे लगभग हर उपन्यास का केन्द्रीय पात्र हैं। मैंने औरत को संघर्षों से दिन-रात जूझते पाया है। इसलिये उसे उपन्यासों में एक विधवा के रूप में रोजमर्रा की रोटी जुटाने और बच्चों को पालने के साथ -साथ अपनी इच्छाओं और सामाजिक सम्मान के लिये लगातार लड़ने दिया है (हवन की गुड्डो), लौटना में अपनी अस्मिता को तलाशती मीरा नैतिक मान्यताओं को लगातार चुनौती देती हुई अपना रास्ता बनाती है, पर उसकी मानवीयता बीमार पति को छोड़ने को राजी नहीं। मेरे महिला चरित्र हाड़-मांस के बने इंसान हैं। उनमें इच्छायें, आकांक्षायें, प्रेम, त्याग, स्वार्थ, आत्मरति सभी कुछ है। ‘गाथा अमरबेल की’ की शन्नो अपनी सहज स्त्री समझ से बड़े परिवार के बीच रहती हुई अपने सरवाइवल के तौर-तरीके सीख-समझ जाती है। ‘नवाभूल की रसकथा’ की केतकी प्रेम करते हुए भी अपने ‘व्यक्ति’ अपने ‘निज’ के प्रति पूरी सचेत है और खुद को कभी बहने नहीं देती। ‘मोरचे’ की तनु तो लगातार पुरुष से बराबरी की लड़ाई लड़ रही है। ‘मैंने नाता तोड़ा’ की रितु आत्मग्लानि से मुक्त होने की कोशिश करती हुई आखिरकार कुछ तो निजात पा ही जाती है। मेरे नये उपन्यास ‘पानी केरा बुदबुदा’ की नायिका आजाद जीवन जीने की खोज में पता नहीं कितने कष्ट उठा रही है।  स्त्री का मेरे लेखन के बीचों बीच होना सहज ही था। अंदर से लिखने की प्रेरणा मुझे स्त्री से ही मिलती रही। मेरे आलोचक मुझसे कहते हैं कि आपके उपन्यासों में स्त्रियाँ ही सशक्त पात्र है, पुरुष अक्सर कमजोर होते हैं। ‘गाथा अमरबेल की’ की मुख्यपात्रा उस अमरबेल की तरह है जो पुरुषों को सोखकर ही अपना जीवन पाती है।
महिला विमर्श और देस-परदेस में स्त्रियों की दशा पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
सुमन, बात यह है कि महिलाओं को अपनी लड़ाई तो हमेशा ही जारी रखनी होगी। यह अन्याय तो हर देश के समाज की स्त्रियों के साथ हुआ है कि हर तरह से औरत को दोयम श्रेणी का माना जाता है। अमेरिका जैसे विकसित देश में भी यह लड़ाई न खत्म हुई है न होगी। कानून बनते भी हैं तो उनका पालन नहीं होता। धर्म भी औरत का सबसे बड़ा शत्रु है। दरअसल धार्मिक सिद्घांत बनाकर ही पुरुष आज तक औरत को अपने कब्जे में रख पाया है। ईश्वर की सच्ची पूजा पति की पूजा है, अभी भी वहां पति परमेश्वर बना हुआ है। अमेरिका में कैथोलिक धर्म वाले औरत को गर्भपात का अधिकार नहीं देते, उसके भीतर ऐसा करने से पाप की भावना भर दी जाती है। यहाँ पर औरतों की तनख्वाह मर्दों से कम होती है क्योंकि यह माना जाता है कि वे पुरुषों के बराबर काम नहीं कर सकतीं। पुरुष जब तक औरत का साथ नहीं देगा, हर कहीं लड़ना होगा औरत को। हर मोर्चे पर। औरत अगर बराबरी की मांग करती है तो पुरुष को मानना होगा कि औरत उसके बराबर है और वैसे ही उसका सम्मान करे जैसे वह उसका करती है। इसके लिये तूतू -मैंमैं की जरूरत नहीं। हमें अपने बच्चों में यह समझ पैदा करनी है कि लड़की और लड़का एक से अधिकार लेकर इस दुनिया में आये हैं और उनको वह मिलना चाहिये। उनकी इच्छा का सम्मान होना चाहिये। बात परिवारों से शुरू होती है अगर हमारी औरतें ही बच्चों को इस तरह से पालें तभी पुरुष भी बदलेंगे। पर भारत में हालत यह है कि पहले तो औरत को मार ही देंगे और अगर बेटा-बेटी दोनों घर मे हैं तो बेटा जो माँ-बाप को करता देखेगा वही तो उसका भी नजरिया बनेगा। इसलिये आगे की पीढ़ियों की सोच को बदलने के लिये परिवार की महिला को अपनी भूमिका बदलनी होगी। कुछ बदलाव दिख भी रहे हैं लेकिन उनकी गति बहुत मद्घिम है।
भारतीय महिला रचनाकारों में आपको सर्वाधिक प्रिय कौन हैं और क्यों है?
जब मैं कॉलेज में पढ़ रही थी तो मेरा परिचय कृष्णा सोबती के लेखन से हुआ। मुझे उनकी किताबें एक कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कार स्वरूप मिली थीं। उनकी भाषा, उनकी बोल्डनेस और कहने के तरीके ने मुझे बहुत प्रभावित किया। आज तक उनको पढ़ना मुझे बहुत सुखदायी लगता है। उनकी ‘ए लड़की’ को यहाँ कोलंबिया में अपने हिंदी साहित्य के छात्रों को पढ़ाया भी। यूँ मन्नू भंडारी को भी बहुत शौक से पढ़ती रही हूं और पसंद किया है। ‘यही सच है’ बड़ी प्रिय कहानी थी। राजी सेठ के लेखन में भी अनुभूितयों की बहुत बारीकी पाती हूं। ‘दायरे’ कहानी में ऐसी ही बारीकी है। मृदुला गर्ग के ‘चितकोबरा’ की भाषा और प्रवाह आनंददायी था। यहां आने के बाद जो भारतीय लेखिका मुझे बहुत भायीं वे थीं, इस्मत चुगतई। उनकी बोल्डनेस और कृष्णा सोबती के निडर बेबाक और सशक्त लेखन की दरअसल तुलना की जा सकती है। ममता कालिया भी सशक्त लेखिका हैं और छोटी-छोटी बातों के जरिये से बड़ी बात कहती हैं। नासिरा शर्मा की कहानियों से मुस्लिम जीवन का परिचय मेरे लिये महत्वपूर्ण रहा है। नये लिखने वालों में मनीषा कुलश्रेष्ठ की ‘कठपुतलियां’ अच्छी लगी।
आपको सर्वाधिक प्रेरणा किससे मिली?
प्रेरणा कहीं से आती नहीं, अपने भीतर ही होती है। मन होता है कुछ कहने को, कुछ लिखने को, वही असली प्रेरणा होती है। बाकी बहुत तरह की स्थितियाँ, घटनायें या व्यक्तियों से मिलना उसे ट्रिगर कर सकता है या कोई कह दे (जो आपकी नजर में महत्वपूर्ण है) कि आप अच्छा लिखती हैं तो उससे आत्मविश्वास जग जाता है या पक्का होने लगता है। जो आपको बेखटका लिखने के लिये प्रेरित कर सकता है वरना प्रेरणा तो भीतर ही कहीं होती है।
लेखन के अतिरिक्त आपकी अन्य रुचियाँ क्या-क्या हैं?
जब कॉलेज में पढ़ रही थी तो हर संस्था में टांग अड़ायी हुई थी। वाद-विवाद प्रतियोगिता में भी हिस्सा लिया, गाने की प्रतियोगिता में भी, नाटक में भी। संगीत (गायन) भी सीखा तीन साल तक और बचपन से ही गाती थी। सब कहते मेरा गला अच्छा है और मुझे भी लगता कि मैं अच्छा गा लेती हूँ। शास्त्रीय, सुगम, फिल्म संगीत, गजल, ठुमरी सबका आनंद लेती हूं। सभी का शौक है। नाटक मंच पर कम किये, पढ़ाई का समय बचा रखने के लिये पर रेडियो और दूरदर्शन में लगभग हर हफ्ते ही कुछ न कुछ करती रहती। हिन्दी-उर्दू दोनों में नाटक किये और अमेरिका आकर अंग्रेजी मंच, फिल्म और टीवी सीरियल में काम कर रही हूं। संगीत और नाटक मेरे साथ हमेशा से जुडे़ रहे हैं और मेरे लिये सृजनात्मकता के वे चैनल भी बहुत अहम हैं।
भविष्य को लेकर योजनाएँ बनाने में यकीन रखती हैं?
नहीं, क्योंकि मुझे लगता है हम क्षणों में ही जिंदा रहते हैं। बस जो है उसी को जी लें, जितना भी किसी के लिये भला कर सकते हैं कर दें और ईमानदारी से जियें। ईमानदारी बनी रहे अपने प्रति भी और दूसरों के प्रति भी। वरना इंसान योजनायें चाहे बनाता रहे, हमेशा कहां फलती हैं वे। मेरी सबसे बड़ी यही योजना होती है कि गर्मी की छुट्टियों में यूरोप जाऊँगी और दिसंबर में भारत। इससे ज्यादा कुछ नहीं।

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