फेसबुक ने बदली तो है औरत की दुनिया
सदियां बीतीं पर अभी भी इन्ही विचारधाराओं का पालक-पोषक है हमारा यह भारतीय समाज। देवी की उपासना में लीन, पुजारियों-पंडों से भरे मंदिर में भी स्त्री के साथ छेड़खानी की जा सकती है। राह चलते, बस में, ट्रेन में,भरी भीड़ में, निर्जन में उसे अपशब्द कहे जा सकते हैं। जननांगों को लक्ष्य करके गालियां बकी जा सकती हैं। इससे भी मन ना भरा तो सार्वजनिक स्थलों पर भी छुआ-छेड़ा जा सकता है। इसके बाद भी यदि तबियत मचली तो बलात्कार किया जा सकता है। यह सारी छूट ले रखी है पुरुष ने और आने वाली संतानों में भी बेखटके इन कुकृत्यों के बीज आनुवांशिक रूप से आते गए ।
इधर एक व्यंग्य-चित्र देखने को अधिक मिला, जिसमें एक युवती अपने शिशु के पैरों को एक हाथ से पकड़े है और दूसरे हाथ से फेसबुक पर चैट कर रही है। बच्चा रोता-बिलखता दिखाया गया है और मां इत्मीनान से मुस्कराते हुए चैट कर रही है। इस सचित्र चुटकुले का कैप्शन था ‘देखिये यह है आधुनिक मां’ यह देश भर में वायरल हुआ होगा और इस आधुनिक मां के चरित्र पर महान संस्कारी आत्माएं जार-जार रोई होंगी ।
ऐसे ही कार्टून हमारी दादी नानियों को तब देखने को मिले थे जब महिलाओं ने साइकिल चलाना, बैडमिन्टन खेलना, दफ्तर जाना या बिना घूंघट के देश की आजादी के आंदोलन की सभाओं में जाना शुरू किया था, फर्क यह आया है तब कार्टून श्वेत श्याम हुआ करते थे और अब रंगीन। तब कागज घटिया था अब कागज है ही नहीं, कंप्यूटर की स्क्रीन है। मतलब तकनीक और रंग बदले हैं लेकिन दिमाग वही है।
इसी के बरअक्स बीबीसी पोर्टल उन महिलाओं की आपबीती छाप रहा है जिनकी जिंदगी में फेसबुक या दूसरे आधुनिक माध्यमों
की वजह से परिवर्तन आए हैं। पटना में रहने वाली कुमुद सिंह बता रही हैं कि वे जो कुछ हैं फेसबुक की वजह से हैं। वे मैथिली भाषा का पहला ई-पेपर “ईसमाद” चलाती हैं। उनका संबंध दरभंगा राजघराने से है, उनका शादी के बाद ही लोगों से मिलना जुलना शुरू हुआ और ओपन स्कूल से दसवीं पास की। उनकी बेटी जब स्कूल जाने लगी तब उन्होंने कंप्यूटर सीखा। उनका कहना है कि अगर फेसबुक नहीं होता तो मैं अच्छी मां होती, गृहिणी होती। फेसबुक ने मुझे आवाज दी है कि अपनी बातें रख सकूं। मैने खूब लड़ाइयां की हैं लोगों से, बहस की है, डांटा है, पलट कर गालियां दी हैं, अब लोग मुझे मेरी फेसबुक पोस्टों की वजह से पहचानते हैं। उनकी पहचान बिहार की राजनीति और सामाजिक मुद्दों पर बेबाक राय रखने वाली महिला के रूप में है जो अपने तर्कों के लिए अपने ऑनलाइन लिंक्स का खूब इस्तेमाल करती हैं।
राजस्थान के कोटा की रहने वाली प्रवेश सोनी की पढ़ाई शादी के बाद छूट गई। जब बच्चे बड़े हो गए तो उन्होंने इंटरनेट सिखाया। फेसबुक पर पुरानी डायरियों की कविताएं पोस्ट करने लगी। लोगों ने हौसला बढ़ाया तो कवयित्री हो गईं, अब उनकी पहली किताब आने वाली है। उनका कहना है बहुत सारे लोग मेरे लिखे की तारीफ सिर्फ महिला होने के कारण करते हैं, लेकिन मुझे पता है कि कौन सचमुच तारीफ कर रहा है कौन बना रहा है। यह अनुभव होते-होते ही होता है।
मॉसकॉम कर चुकी अनुशक्ति सिंह बता रही हैं कि उनकी शादी एक आर्मीमैन से हुई थी, जिसके घर में बहुत रूढ़िवादी माहौल था, शादी के बाद पढ़ाई का कोई उपयोग नहीं था क्योंकि वह कैद होकर रह गई थीं। फेसबुक पर किसी दोस्त के कहने पर उन्होंने अपना पहला आर्टिकल एक अखबार को भेजा जिसके छपने के बाद ससुराल में काफी बवाल हुआ, लेकिन उनका लिखना जारी रहा। अब वे अपने बच्चे के साथ अकेले रहती हैं, लेकिन फ्रीलांस पत्रकारिता करती हैं। उनका कहना है कि फेसबुक पर लोगों की प्रतिक्रियाओं ने मुझे संबल दिया कि मैं लिख सकती हूं और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सकती हूं।
ये सिर्फ तीन उदाहरण यह बताने के लिए हैं कि हमारे समाज में महिलाओं की जिंदगी में यह फेसबुक की खिड़की क्या गुल खिला रही है वरना ईरान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश जैसे रूढ़िवादी धार्मिक जकड़न वाले देशों में महिलाओं की जिंदगी में इंटरनेट ने क्या तूफान बरपा रखा है, किसी से छिपा नहीं है। वहां सिर्फ बहसें ही नहीं चलती हत्याएं भी हो रही हैं।
जो कार्टून दिखा रहा है और जो ये महिलाएं कह रही हैं, यह दो तरह की सोच का अंतर है। एक सोच अपनी जगह सदियों से स्थिर है और दूसरी अपने अस्तित्व की रक्षा, जिंदगी की बेहतरी और सम्मान के लिए लगातार बदल रही है। सच ही है मांए अब पूर्वनिर्धारित भूमिका में नहीं रहीं। मनु कालीन चोला बदल चुकी है। मनु महाराज ने सदियों पहले इन स्त्रियों के लिए नियम लिपिबद्ध किए थे
” पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति।।” अर्थात पुरुष को सदैव ही स्त्री की रक्षा करना चाहिए तथा उन्हें कभी भी स्वतंत्र नहीं छोड़ना चाहिए। बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति और बुढ़ापे में पुत्र रक्षा करता है। स्त्री कभी स्वतंत्रता के योग्य नहीं होती।
स्त्री की रक्षा की जानी चाहिए थी और यह आवश्यक भी था पर क्या इसके साथ यह भी कहना आवश्यक था कि ‘स्त्री कभी स्वतंत्रता के योग्य नहीं होती’ मनु महाराज किसलिए स्त्री को बंधक बना के रखना चाहते थे, यह तो महर्षि ही जानें पर उसके बाद सच में स्त्री बंदिनी बन गयी। वैदिक काल में जो अधिकार उसे प्राप्त थे धीरे-धीरे छिनते गए। उत्तर वैदिक काल में तो बुरा हाल हो गया। धर्म सूत्रों में बाल-विवाह का निर्देश किया गया, जिसके परिणाम स्वरूप महिलाओं की शिक्षा का स्तर गिर गया। इस प्रकार महिला को दोयम दर्ज़े का नागरिक माना जाने लगा। इसके बाद स्त्री-अस्तित्व का निरंतर पतन होने लगा। पुरुष की सहधर्मिणी के हिस्से व्रत-उपवास, संयम,पतिव्रत का पालन और खुद को हर परिस्थिति में सहनशील, मृदुभाषिणी बने रहने के लिए विवश करना आया। चूंकि पुरुष स्वामी था तो जरा सी भूल-चूक पर इन्हें ‘ताड़न का अधिकारी’ भी घोषित कर देता था। सनातन काल से ही दो तरह की विचारधारायें देखने को मिली। एक ओर तो स्त्री को देवी कहा गया और दूसरी तरफ उसे विष से भरी हुई,अभिमानिनी तथा स्वार्थी कहा गया( देवी भागवत पुराण में)।
सदियां बीतीं पर अभी भी इन्ही विचारधाराओं का पालक-पोषक है हमारा यह भारतीय समाज। देवी की उपासना में लीन, पुजारियों-पंडों से भरे मंदिर में भी स्त्री के साथ छेड़खानी की जा सकती है। राह चलते, बस में, ट्रेन में,भरी भीड़ में, निर्जन में उसे अपशब्द कहे जा सकते हैं। जननांगों को लक्ष्य करके गालियां बकी जा सकती हैं। इससे भी मन ना भरा तो सार्वजनिक स्थलों पर भी छुआ-छेड़ा जा सकता है। इसके बाद भी यदि तबियत मचली तो बलात्कार किया जा सकता है। यह सारी छूट ले रखी है पुरुष ने और आने वाली संतानों में भी बेखटके इन कुकृत्यों के बीज आनुवंशिक रूप से आते गए । कई मांओं के प्यारे बेटे, कई बहनों के प्रिय भाई इन कुकृत्यों पर ठहाके लगाते कहते सुने जाते हैं ‘हम मर्द हैं, कुछ भी करें फ़र्क नहीं पड़ता।’ सिर झुका बहनें सुनती हैं कि वे मर्द हैं इसलिए कुछ भी करें फ़र्क नहीं पड़ता। सच ही है वे बलात्कार के बाद गर्भ धारण नहीं करते, कुकृत्यों के बावज़ूद घर-समाज उन्हें माफ़ कर देता है। उनकी स्त्रियां मर जाएं तो वे दूसरी ले आते हैं। वे कई-कई संबंधों को बिना अवैध कहे जी सकते हैं। वे सब कुछ करने के बाद गर्व से कह सकते हैं कि उन्होंने कोई पाप नहीं किया, लेकिन यह सारी सुविधाएं सिर्फ उनके लिए ही हैं यदि उनकी पत्नियां, प्रेमिकाएं, बहनें करें तो वे इन्हें कुलटा घोषित कर देंगे और इन पतिताओं की हत्या कर देने से भी नहीं चूकेंगे। विडम्बना यह भी है कि इन हत्याओं में उन्हें अपने उदार,धर्मपरायण समाज की मौन सहमति भी मिल जाती है। इन दिनों महिलाओं ने अपनी दुनिया को विस्तार देना शुरू किया है।
कई मांओं के प्यारे बेटे, कई बहनों के प्रिय भाई इन कुकृत्यों पर ठहाके लगाते कहते सुने जाते हैं ‘हम मर्द हैं, कुछ भी करें फ़र्क नहीं पड़ता।’ सिर झुका बहनें सुनती हैं कि वे मर्द हैं इसलिए कुछ भी करें फ़र्क नहीं पड़ता। सच ही है वे बलात्कार के बाद गर्भ धारण नहीं करते, कुकृत्यों के बावज़ूद घर-समाज उन्हें माफ़ कर देता है। उनकी स्त्रियां मर जाएं तो वे दूसरी ले आते हैं। वे कई-कई संबंधों को बिना अवैध कहे जी सकते हैं।
अपनी किस्मत को गढ़ना, सपनों को साकार करना और आत्मसत्ता को पहचानना शुरू किया है। सदियों की उपेक्षा-तिरस्कार को झटक ये आत्मसम्मान से जीने की पुरज़ोर कोशिश कर रही हैं। वे सारे क्षेत्र जो पुरुष आधिपत्य में थे उनमें अपनी लगन और मेहनत से दखल दे रही हैं। देह के लिए निर्दिष्ट तमाम वर्जनाएं तोड़ती ये अब गढ़ी-गढ़ाई मान्यताओं पर यक़ीन नहीं करतीं। आंख मूंद कर सामाजिक धारणाओं पर यक़ीन नहीं करतीं वरन् प्रश्न पूछती हैं। सोशल मीडिया ने भी इनके लिए एक व्यापक मंच उपलब्ध कराया है। जहां इनकी सर्जनात्मकता, साहस और उपलब्धियों को दिनोंदिन निखरते हुए देखा जा सकता है। फेसबुक,ट्विटर,वाट्स एप पर इनकी भागीदारी को देखा जा सकता है।
हालांकि इनकी भागीदारी से वह वर्ग खासा कुंठित है जो इन्हें गुलाम और यौन-सुख का साधन मात्र समझता है। इनकी कहानियों, कविताओं और निर्भीक लेखों को सराहते हुए भी यह कह सकता है कि ये मौलिक विचार सदा की मूढ़ इन स्त्रियों के हो ही नहीं सकते या कि आत्ममुग्धता की शिकार ये महिलाएं खुद को हर तरह से प्रचारित कर रही हैं। माना कि इसमें आत्मप्रचार भी शामिल है तो उसमें ऐसा बुरा क्या है।
स्त्री का आत्म भी तो इसी सभ्यता और संस्कृति का दबा रहा आया हिस्सा है। वह दब कर अदृश्य हो जाए या उनके साथ ही चिता पर जलकर राख हो जाए उससे तो बेहतर है किसी भी रूप में सामने आए ताकि समाज में उसके लिए स्पेस बन सके। पहले पत्रिकाएं थी, उनके पुरुष संपादक थे, वहां छपने के लिए उनके मानदंडों की मनमानी बाड़ के नीचे से झुक कर जाना होता था। अब यहां कोई संपादक नहीं है, अपनी बात सीधे समाज (भले ही उसकी दुनिया की सीमा ऑनलाइन होना हो) से कही जा सकती है। वहां अच्छे बुरे हर तरह के लोगों से संवाद करते हुए वे दुनिया का असली स्वरूप और उस दुनिया में अपने लिए रास्ते बनाने का हुनर सीख रही हैं। अगर किसी घरेलू महिला को एक किताब लेनी हो तो उसे बुक स्टोर तक जाने से पहले कई लोगों से इजाजत लेनी होती और हो सकता है कि महीनों बाद किसी की निगहबानी में वहां तक जाने का मौका मिलता, लेकिन अब अपने काम की किताबें घर में ही ऑनलाइन मंगाकर या नेट पर खोजकर पढ़ी जा सकती हैं।
अगर यह स्पेस भारतीय महिलाएं मांगती तो विरोध और प्रताड़ना का क्या परिदृश्य होता इसकी कल्पना करना असंभव नहीं है, लेकिन इंटरनेट ने चुपचाप उनके लिए वे दरवाजे खोल दिए हैं, जिसके लिए उन्होंने इच्छा तो की थी, लेकिन मांग नहीं की। कोई कितना भी महाबली हो इन दरवाजों की कुंडियों पर किसी का बस नहीं चलता। इंटरनेट की कारस्तानी से परिवार ही नहीं सरकारें तक परेशान हैं जिनके सबसे गोपनीय भेद एक अदना सा हैकर खोलकर सार्वजनिक कर देता है। फेसबुक पर फोटो बदलती स्त्रियां, घरेलू बातचीत से लेकर राजनीति, अर्थनीति और आध्यात्म बतियाती स्त्रियां, मानसिक-शारीरिक शोषण पर बेबाक बोलती स्त्रियां,यौन-शुचिता पर विमर्श करती स्त्रियां, सारे ढंके-छिपे मुद्दों पर खुलकर बोलती-बतियाती ये स्त्रियां जहां आधुनिक सोच के हिमायती वर्ग को मुग्ध कर रही हैं। वहीं दकियानूस सिरफिरे तबके को क्षुब्ध किये हुए हैं। स्त्रियों के इस हस्तक्षेप को वे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे और छद्मनाम पहचान का सहारा लिए कभी उनके फेसबुक इनबॉक्स में तो कभी टाइम लाइन पर अश्लीलता और आग उगल रहे हैं, लेकिन इनके हौसलों को चाह कर भी परास्त नहीं कर पा रहे। लोग आश्चर्य से आधी आबादी को निरख रहे हैं कि कैसे विपरीत परिस्थितियों में भी, सारी जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी ये अपने लिए सम्मानजनक तरीके से जीने के लिए संसाधन जुटा ही लेती हैं।