भगवत्ता यानी संपूर्णता
मनुष्य में अनंत संभावनाएं हैं। भारतीय दृष्टिकोण में इकाई से अनंत होने की क्षमता। पौराणिक शैली में नर से नारायण होने की संभावना। ऐसा विचार कोरी कल्पना नहीं है। प्रकृति में अनंत संभावनाएं हैं। प्रकृति की शक्तियां तमाम अविश्वसनीय प्रपंचों में प्रकट होती हैं। हम उन्हें आश्चर्यपूर्वक देखते हैं। हम मनुष्य प्रकृति के अविभाज्य अंश हैं। गणित में अंश हमेशा पूर्ण से छोटा होता है लेकिन आत्मबोध में अंश भी संपूर्ण है। हम मनुष्यों के सामने उलझन दूसरी है। हम अभी पूर्ण मनुष्य भी नहीं हैं। पूर्ण मनुष्य होना अर्थपूर्ण है। हरेक मनुष्य के भीतर मनुष्यता का अपना घनत्व है। इसीलिए सभी मनुष्य एक जैसे नहीं हैं। संपूर्ण मनुष्य होना हमारी नियति है। जीवन में रिक्तता का बोध यही सूचना है कि हम अधूरे हैं। संपूर्ण होना स्वाभाविकता है। संपूर्ण होने की इच्छा स्वाभाविक ही है। इसलिए इस दिशा में आगे बढ़ने के प्रयास आनंद देते हैं। ऐसे प्रयास में प्रकृति की शक्तियां हमारी सहायक होती हैं। तब प्रतिकूल ग्रहनक्षत्र भी हमारे अनुकूल हो जाते हैं और जीवन प्रसाद से भर जाता है। संपूर्ण मनुष्य हो जाना समाज पर भी बड़ा उपकार है। ऐसा मनुष्य समाज को क्षति नहीं पहुंचाता दूसरे भी उससे प्रेरित होते हैं।
पूर्वजो ने धैर्य, क्षमा, इन्द्रिय निग्रह आदि अनेक मानवीय गुण बताए हैं। यहां गुण हमारे आचार व्यवहार को संयम देने वाले मानवीय सदाचार हैं। वे भीतर भीतर पकते हैं और आचार व्यवहार में बाहर प्रकट होते हैं। संपूर्ण मनुष्य स्वाभाविक रूप में धार्मिक होता है लेकिन सभी धार्मिक संपूर्ण मनुष्य नहीं होते। संपूर्णता आंतरिक मधुमयता है। मैं अपने अधूरेपन से सुपरिचित हूं। धैर्य है नहीं। अधैर्य दंश मारता है। क्षमा लोक व्यवहार है। क्षमा का अर्थ है कि हमने दूसरे को गलत माना लेकिन प्रतिकार नहीं किया। ऐसी क्षमा प्रसाद गुण नहीं है। प्रसाद रस परिपूर्ण क्षमा दूसरे के प्रति करूणाभाव में बहती है। वह दूसरे को गलत नहीं मानती। वह दूसरे को दूसरा भी नहीं मानती। आखिरकार वह भी संपूर्णता का ही भाग है। संपूर्णता अस्तित्व का निरपेक्ष गुण है। इसे स्पष्ट करने के लिए ही वृहदारण्यक उपनिषद् के ऋषि ने कहा था कि “संपूर्ण में संपूर्ण घटाओ तो संपूर्ण ही बचता है। अस्तित्व संपूर्ण है। वह गल्ती नहीं करता। अस्तित्व मृत और अमृत का अद्वैत है। ऐसी बातें कहने में आसान हैं लेकिन जीवन का भाग बनाने में कठिन।
हम सब एक प्रवाह का हिस्सा हैं। हमसे पहले हमारे माता पिता। उनके पहले उनके माता पिता और उनके भी पहले उनके माता पिता। बहुत लम्बी श्रंखला है जीवन की। ऋग्वेद मेरा प्रिय ज्ञानकोष है और प्राचीनतम शब्द साक्ष्य। शब्द उसके पहले भी थे। कथन और सूक्त भी उसके पहले थे। लेकिन लाचारी है। हमारे प्रत्यक्ष बोध में ऋग्वेद के पूर्वजों के ही नाम हैं। इसलिए वहीं से शुरू करने में कोई उद्दंडता नहीं। सोचता हूं कि वशिष्ठ, विश्वामित्र, गृत्समद् या कण्व आदि पूर्वजों को उनके पूर्वजों से रक्त, रस, बोध अनुभूति के तत्व मिले होंगे। फिर वैदिक पूर्वजों ने अपना अनुभूति रस मिलाया होगा। दर्शन और अनुभूति के मधुरस का प्रवाह उनके बाद उत्तर वैदिक काल के पूर्वजों के समय का सूर्य हजारों वर्ष तक ताप और बोध देकर उत्तर वैदिक काल में भी बार-बार उगा होगा। वनस्पतियां बार बार खिली, मुरझाई और उगी होंगी। नदियां लगातार नाद करते बही ही होंगी। यही परम्परा सिंधु सभ्यता में नए पंख लगाकर खिली होगी। अविछिन्न, चिरन्तन, सतत् और निरंतर। निरंतरता का नाद अनसुना नहीं हो सकता और न ही इसकी उपेक्षा हो सकती है।
हमारी पीढ़ी से पहले ढेर सारे मनुष्य हो गए। हजारों बुद्ध पुरूष, कवि, साहित्यकार, सर्जक और विशिष्ट गुणों से युक्त शोध बोध वाले महानुभाव। हम सब उसी परंपरा का विस्तार हैं। हम उनसे स्वयं को जोड़कर आनंदित हो सकते हैं। क्या यह सच नहीं कि हमारे भीतर सुषुप्त अवस्था में किसी न किसी रूप में गायत्री मंत्र के द्रष्टा विश्वामित्र या मृत्युंजय मंत्र के ऋषि वशिष्ठ का प्रसाद है। हमारे भीतर अथर्वा और पतंजलि भी होंगे ही। जैमिनि, गौतम, कपिल, कणाद या बादरायण भी होंगे। थोड़े अंश में ही सही दयानंद विवेकानंद भी अवश्य होंगे। हम विश्व मानवता के दृष्टिकोण से भी सोच सकते हैं। हमारे भीतर थेल्स, हिराक्लिटस, अरस्तू, सुकरात, प्लेटो और पैथागोरस की भी तरंग होगी। हमारा अन्तस् बहुत समृद्ध होगा संभवतः। संभावनाएं अनंत हैं। नीरज का एक प्रेमगीत मधुर है “शोखियां में घोला जाए फूलो का शबाब/उसमें मिलाई जोए थोड़ी सी शराब/होगा नशा जो तैयार वो प्यार है।” कवि कल्पना में मस्ती है। लेकिन प्यार के घटक ध्यान देने योग्य हैं। यहां कई तत्व मिलाए गए हैं।
नीरज की कल्पना उधार लेता हूं। फिर मैं आधुनिक मनुष्य का व्यक्तित्व रचता हूं। आइए थोड़ा थोड़ा विश्वामित्र, वशिष्ठ, अथर्वा, याज्ञवल्क्य, गार्गी, पतंजलि, कपिल, कणाद, श्वेताश्वतर आदि मिलाते हैं फिर गंगा जमुना राप्ती आदि नदियों का जलरस। सूर्य का तेजस्, चन्द्र की शीतलता, चंदन गंध और गाढ़ी प्रीति का मधुरस। इस प्रीतिरस मधुरस में आधे से ज्यादा भारत मिलाते हैं। ऋग्वेद के नवें मण्डल के ऋषि सोम में दूध मिलाते हैं। कहते हैं कि फिर नमस्कारपूर्वक दही मिलाते हैं। ऐसे ही हम सभी प्रसाद तत्व मिलाकर नमस्कारपूर्वक भारत मिलाते हैं। सबका अपना स्वाद। कोई चाहे तो सिगमण्ड फ्रायड या मार्क्स मिला सकता है लेकिन आधे से ज्यादा नहीं। आधे में भारत शेष आधे में आपकी रूचि। भारत एक निराला तत्व है। एक मंत्र, एक ऋचा, एक शास्त्रीय छन्द, एक प्रीतिकर कविता एक सुंदर गीत। भारत मिलाते ही हमको भारत मिल जाता है। संपूर्ण मनुष्य की संभावना का चुम्बकीय क्षेत्र। संभावामि युगे-युगे। भारत एक चरम परम संभावना है। मनुष्य जाति के इतिहास में एक दिव्य भूमि।
भारत की संपूर्णता खिलती है शंकराचार्य में, विवेकानंद और अरविंद में। इसके पहले पतंजलि और कपिल या बादरायण में। यूरोप की संपूर्णता नैपोलियन, हिटलर जैसे लड़ाकू व्यक्तित्व में प्रकट होती है। मेरे मन की रिक्ति संपूर्णता की प्यासी है। यह प्यास हजारो किलोमीटर दूरी वाली सैकड़ो हवाई यात्राओं या रेल, वाहन वाली पर्यटन वृत्ति से नहीं बुझती। यह लाखों लोगों से सम्वाद के बावजूद प्यासी ही है। यह सैकड़ों पुस्तकें पढ़ने के बाद भी जस की तस है। श्रीकृष्ण संपूर्ण मनुष्य थे। शत प्रतिशत प्रेमी, शत प्रतिशत पराक्रमी योद्धा। घर परिवार में सरल परिवारी। शत प्रतिशत बासुरी वादक और शत प्रतिशत नर्तक। शत प्रतिशत दार्शनिक। प्रेमी दार्शनिक नहीं होते। जीवन को जीवन के सभी प्रपंचों में जीना आश्चर्यजनक है। लेकिन श्रीकृष्ण जिए। उन्हें भगवान कहा गया। विष्णु का अवतार बताया गया। वे तत्वतः संपूर्ण मनुष्य थे। किसी भी मनुष्य का संपूर्ण हो जाना ही तो भगवत्ता है। भगवत्ता यानी संपूर्णता। संपूर्णता को नमस्कार है। यही भगवत्ता है।