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यूपी में असली मुकाबला मायावती की बीएसपी और मोदी-शाह की बीजेपी के बीच होगा।

नई दिल्ली। राजनीति असंभव के संभव करने की कला है, ऐसा माना जाता है…तो क्या इसी कहावत को चरितार्थ करते हुए उत्तर प्रदेश में मुलायम और माया साथ आ सकते हैं। जवाब है कभी नहीं…वजह…मायावती अपनी आकांक्षाओं के लिए मशहूर हैं तो मुलायम सिंह यादव आखिरी मौके पर धोबीपछाड़ देने के लिए…लेकिन दोनों में एक बात कॉमन है और वो है दोनों का वोट बैंक…। तो क्या ये माना जाए कि 2017 चुनाव में दोनों के साथ न आने का फायदा बीजेपी को मिलेगा? कहना जल्दबाजी होगी, फिर भी तीन बातें आने वाले विधानसभा चुनाव के बारे में कही जा सकती है।

पहली-कांग्रेस का यूपी से पूरी तरह सफाया हो जाएगा और वो कहीं भी किसी भी रेस नजर नहीं आने वाली। दूसरी-मुलायम की समाजवादी पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। तीसरी- यूपी में असली मुकाबला मायावती की बीएसपी और मोदी-शाह की बीजेपी के बीच होगा।

राजनीति असंभव के संभव करने की कला है, ऐसा माना जाता है…तो क्या इसी कहावत को चरितार्थ करते हुए उत्तर प्रदेश में मुलायम और माया साथ आ सकते हैं। जवाब है कभी नहीं…वजह हैं मायावती।
 

इन तीनों अटकलों के कारण हैं। अपने दम पर कांग्रेस उत्तर प्रदेश में हाशिए की पार्टी है। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को करीब 11 फीसदी वोटों का नुकसान हुआ था जो राज्य में उसका अब तक का सबसे कम वोट शेयर है। 2007 और 2012 के चुनावों से अलग नहीं है ये आंकड़ा जब इन दोनों चुनावों में कांग्रेस क्रमश: 8 और 11 फीसदी वोट और कोई 20 सीटें मिली थीं। 2014 में कांग्रेस और नीचे गई है। पार्टी में नेतृत्व की भारी कमी है, जिसे अभिनेता राज बब्बर और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री और केरल की पूर्व राज्यपाल शीला दीक्षित के सहारे कांग्रेस काबू में करने की कोशिश भर कर रही है।

कांग्रेस रेस से बाहर

ऐसे में जब कांग्रेस रेस से बाहर है तो क्या माना जाए कि यूपी का एंटी बीजेपी वोटर नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव को छोड़ बहनजी के साथ आएगा? लेकिन एक बात काफी रोचक है। भले ही बीजेपी समर्थक कांग्रेस का सफाया चाहते हों लेकिन कांग्रेस की हार से आमतौर पर एनडीए को नुकसान ही होता है। 2013 के बाद हुए हर चुनाव से ये बात काफी हद तक साबित भी हो चुकी है कि एनडीए को चुनाव जीतने के लिए या तो कांग्रेस मुख्य विरोधी या बहुकोणीय मुकाबले में मुख्य पार्टी के तौर पर चाहिए होती है। दिल्ली चुनाव जहां मुख्य विरोधी कांग्रेस नहीं थी और बिहार चुनाव जहां कांग्रेस महागठबंधन की जूनियर पार्टनर थी, एनडीए को नुकसान उठाना पड़ा। वैसे भी बीजेपी को समझ आ गया है कि अगर यूपी पर विजय पानी है तो हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण ही जरूरी नहीं है बल्कि मुस्लिम वोटों का कशमकश में आना भी जरूरी है। 2014 के चुनाव में इसी फार्मूले ने अभूतपूर्व जीत दिलाई थी इसे।

ध्रुवीकरण नहीं होने पर बीजेपी को नुकसान

जब जब ध्रुवीकरण नहीं हुआ बीजेपी को लगातार विधानसभा चुनावों में नुकसान हुआ। 2013 में महज 15 फीसदी वोट इसके हिस्से आए जो 1991 के 32.51 के आधे से भी कम और 1996 के 2012 के दो तिहाई हैं। 2007 के 16.97 फीसदी के मुकाबले भी ये आंकड़ा नीचे हैं। 2012 में बीजेपी महज 47 सीटें जीत पाई थी जो कि 2007 के 51 से 4 और 2002 के 88 की लगभग आधी हैं। तो 2017 का चुनाव जीतने के लिए बीजेपी को अपने 2014 के 43 फीसदी वोट शेयर को मजबूती से बनाए रखना होगा। हालांकि परंपरागत रूप से यूपी विधानसभा चुनावों में एसपी और बीएसपी करीब 30 फीसदी वोटों पर कब्जा करते रहे हैं। लेकिन कहानी में ट्विस्ट आ सकता है क्योंकि एसपी इस समय जबरदस्त एंटी इंकमबैंस की शिकार है और एसपी – बीएसपी की लाठी बना मुस्लिम वोट बैंक बिहार में टैक्टिकल वोटिंग कर बीजेपी को हराने का स्वाद चख चुका है। तो एडवांटेज मायावती ही सामने आता है।

स्वाति ने दी मायावती को चुनौती

ये तो रही आंकड़ों की बात। लेकिन यूपी में पिछले दिनों हुई कुछ घटनाओं में सियासी मौसम काफी कुछ बदला भी है। स्वाति सिंह नाम की एक क्षत्राणी ने बहनजी की पूरी रणनीति को हिला दिया। दरअसल स्वाति सिंह के सामने आने से पहले तक मायावती ब्राह्मणों या सवर्णों के जरिए सत्ता में वापसी का रास्ता खोज रही थीं। लेकिन बेटी के सम्मान का मुद्दा ऐसा गरमाया कि बहनजी अब लगी हैं मुसलमानों को रिझाने। यानी 2007 की सोशल इंजीनियरिंग का नया पाठ्यक्रम शुरु कर मायावती मुलायम के एम वाई फैक्टर से उलट एम डी यानी मुस्लिम दलित फैक्टर पर काम करने को मजबूर हो गयी हैं।

इसकी मिसालें भी मिलने लगी हैं। हाल ही में लखनऊ में हुई बीएसपी की प्रेस कांफ्रेंस को पार्टी के मुस्लिम चेहरे नसीमुद्दीन सिद्दीकी को सामने किया गया और बीएसपी ने कांग्रेस के तीन और समाजवादी पार्टी के एक मुस्लिम विधायक को तोड़ लिया। यानी पार्टी महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी अब बीएसपी के अकेले बड़े नेता कहे जा सकते हैं। हालांकि बीएसपी में बहनजी को छोड़कर कोई नेता नहीं है। ये बात पार्टी के दूसरे महासचिव और ब्राह्मण चेहरा सतीश मिश्रा कहते रहे हैं लेकिन मायावती की तरफ से कहीं भी किसी मंच पर फिलहाल मिश्रा को मान्यता नहीं मिली है। यहां तक कि जब बीजेपी के दयाशंकर सिंह ने मायावती पर शर्मनाक टिप्पणी की थी, जिसके बाद लखनऊ में बहुजन समाज के लोगों बड़ा प्रदर्शन किया, उस प्रदर्शन की अगुवाई भी नसीमुद्दीन सिद्दीकी ही कर रहे थे, सतीश मिश्रा की भूमिका उसमें खास नहीं रही थी।

मायावती का प्लान

अभी तक ब्राह्मण और पूरे सवर्ण वोटों के लिए मायावती को भारतीय जनता पार्टी को ही ध्यान में रखकर रणनीति बनानी थी, जो 2007 में 89 ब्राह्मणों को टिकट देकर मायावती ने साध लिया था। लेकिन 2012 में 74 ब्राह्मणों और 2014 के लोकसभा चुनाव में 21 ब्राह्मणों को टिकट देने के बाद भी मायावती को अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। इसीलिए 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद ही बीएसपी ने ये तय कर लिया था कि दलित-मुसलमान के गठजोड़ को ही पक्का करना है. इस गठजोड़ को स्वाभाविक तौर पर अभी देश भर में चल रहे गाय-दलित बहस से भी समर्थन मिल रहा है।

इसलिए बदली रणनीति

मायावती के चुनावी रणनीति बदलने के पीछे एक बड़ी वजह ये भी है कि कांग्रेस पूरी तरह से ब्राह्मणों, सवर्णों को साधने में लगी है। शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का प्रत्याशी बनाकर कांग्रेस ने एक लॉलीपॉप तो फेंक ही दिया है। खबर ये भी है कि कांग्रेस दो दशक पहले छात्र राजनीति में आगे रहे सवर्ण नेताओं को ज्यादा से ज्यादा टिकट देने का मन बना रही है। बीएसपी को ये अच्छे से पता है कि ऐसे में ब्राह्मण और सवर्णों की पसंद के विकल्प के तौर पर बीजेपी के बाद कांग्रेस भी सामने है। दूसरा मुसलमान और दलित का गठजोड़ अगर बेहतर हो तो बीएसपी के लिए तारणहार हो सकता है। उत्तर प्रदेश में 21 फीसदी दलित और करीब 18 फीसदी मुस्लिम वोट हैं। लेकिन 14 प्रतिशत ब्राह्मण यूपी की करीब डेढ़ सौ सीटों पर खेल बदल सकते हैं।

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