
फिर भी, यौन हिंसा और यौन अपराधों को लेकर गलतफहमियां फैली हुई हैं। ऐसी घटनाओं के बारे में लोगों के खयालात, हकीकत से मेल नहीं खाते। इसका नतीजा ये होता है कि यौन हिंसा के शिकार लोग शर्मिंदगी और अपराध-बोध के शिकार हो जाते हैं। वो अपने साथ हुई घटनाओं के लिए खुद को ही जिम्मेदार मानने लगते हैं। बलात्कार और यौन हिंसा को लेकर गलतफहमियों की वजह से अदालतें भी तथ्यों की निष्पक्षता से पड़ताल नहीं कर पातीं।
किसी अंधेरी गली से गुजर रही महिला से यौन हिंसा की खबर अक्सर सुर्खियां बनती है। टीवी पर इसे बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है। पर, सच ये है कि बलात्कार और गंभीर यौन हिंसा के ज्यादातर मामले अभी भी घरों के भीतर ही होते हैं। ऐसे जुर्म करने वाले अक्सर पीड़ित की जान-पहचान वाले लोग होते हैं।
इंग्लैंड, वेल्श और ऑस्ट्रेलिया में हर पांचवीं महिला अपनी जिंदगी में कम से कम एक बार यौन हिंसा की शिकार हुई है। अमरीका के नेशनल सेक्सुअल वायोलेंस सर्वे के मुताबिक भी हर पांचवीं अमरीकी महिला बलात्कार की शिकार हुई है, जबकि मर्दों में ये आंकड़ा हर 71 में से एक के पीड़ित होने का है।
ब्रिटेन में एक अलग रिपोर्ट के मुताबिक, यौन हिंसा के केवल 10 प्रतिशत मामलों में ही आरोपी अपरिचित था। सेक्सुअल असॉल्ट के 56 फीसद केस में हमलावर, पीड़ित का साथी था। यौन हिंसा के बाकी यानी 33 प्रतिशत मामलों में आरोपी कोई परिचित या परिवार का ही सदस्य था।
ब्रिटेन के गृह विभाग के आंकड़े के मुताबिक, बलात्कार के दर्ज हुए कुल मामलों में से केवल 46 प्रतिशत दर्ज ही घटना वाले दिन दर्ज कराए गए, जबकि 14 प्रतिशत केस में पीड़ित ने शिकायत करने में छह महीने का वक्त लिया। अगर यौन हिंसा का शिकार कोई बच्ची होती है, तो शिकायत करने में और भी देर होती है। 16 साल से कम उम्र के यौन हिंसा पीड़ितों में से केवल 28 फीसद ऐसे होते हैं, जो घटना वाले दिन ही इसकी रिपोर्ट दर्ज कराते हैं।
जबकि एक तिहाई पीडित लोग सही वक्त का इंतजार करते हैं, और याद रखें कि ये वो मामले हैं, जो दर्ज किए गए हैं। बलात्कार और यौन अपराधों की बहुत सी घटनाएं तो रिपोर्ट ही नहीं की जाती हैं। अमरीका में हुए तजुर्बे बताते हैं कि यौन अपराध के तीन में से दो मामलों में कभी भी शिकायत नहीं की जाती।
लोगों के बलात्कार या यौन हिंसा के दूसरे मामलों की शिकायत न करने, या देर से करने की कई वजहें होती हैं। बहुत से पीड़ित इसलिए शिकायत नहीं करते कि वो नहीं चाहते कि आरोपी जेल जाए। इसकी वजह शायद ये होती है कि वो उससे प्यार करते हैं, या फिर, आरोपी परिवार का सदस्य या जीवनसाथी होता है।
कई बार पीड़ित महिलाएं आरोपी पर आर्थिक रूप से निर्भर होने की वजह से शिकायत नहीं कर पाती हैं। बहुत सी बलात्कार पीड़िताएं इसलिए शिकायत नहीं करतीं कि वो आरोपी की पूरी जिंदगी को बर्बाद नहीं करना चाहतीं। वैसे, यौन अपराध की शिकायत करने में देरी से केस की सच्चाई का कोई ताल्लुक नहीं है।
ये सच है कि बलात्कार और दूसरी तरह की यौन हिंसा की शिकार महिलाएं अगर जुर्म की फौरन शिकायत करती हैं, तो उनकी फोरेंसिक जांच तुरंत हो जाती है। उनके सैंपल जल्द लिए जाते हैं, जिससे वीर्य, लार या डीएनए जैसे सबूत जल्द जुटा लिए जाते हैं। मेडिकल जांच करने वाले, हिंसा की वजह से लगी चोट का भी पता लगा लेते हैं।
लेकिन, यौन अपराध की शिकार महिलाओं की फौरी मेडिकल जांच का ये मतलब नहीं है कि आरोपी को तुरंत पकड़ लिया जाता है और उसे सजा हो जाती है। इसका ये भी मतलब नहीं होता कि केस की तुरंत तफ्तीश होने लगती है। तमाम पुलिस थानों में दर्ज बलात्कार के हजारों मामले इस बात की मिसाल हैं।
अमरीका के बहुत से थानों में तो ‘रेप किट’ यूं ही पड़ी हैं। उनका इस्तेमाल ही नहीं हुआ। जब आपके किसी निजी मित्र या साथी ने बलात्कार किया हो, तो ऐसी मेडिकल जांच से आरोप साबित करना और भी मुश्किल हो जाता है। जानकार कहते हैं कि आज बलात्कार के ज्यादातर मामलों में सवाल ये नहीं होता कि सेक्स किया गया या नहीं, बल्कि सवाल ये होता है कि सेक्स सहमति से किया गया या जबरदस्ती। ब्रिटेन के आंकड़े बताते हैं कि बलात्कार की जिन घटनाओं को उसी दिन रिपोर्ट किया गया, उनमें से 26 प्रतिशत केस में आरोप तय हो गए।
लेकिन शिकायत में एक भी दिन की देरी से आरोप तय होने का आंकड़ा घटकर 14 प्रतिशत ही रह गया, जिन लोगों ने अपराध वाले दिन ही शिकायत कर दी, उनके मामले जल्दी कोर्ट पहुंचते देखे जाते हैं। हालांकि अगर पीड़ित 16 बरस से कम उम्र की है, तो इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता कि शिकायत कब की गई। अमरीका की एक रिपोर्ट के मुताबिक बलात्कार के कुल दर्ज मामलों में से केवल 18 प्रतिशत में ही गिरफ्तारी हुई और सजा तो केवल 2 फीसद मामलों में ही हुई।
बलात्कार और यौन हिंसा की घटनाओ के दौरान हर पीड़ित का बर्ताव अलग होता है। न्यूजीलैंड की वेलिंगटन यूनिवर्सिटी की जेन जॉर्डन ने इस बारे में किताब लिखी है-सीरियल सर्वाइवर्स (Serial Survivors 2008)। उन्होंने 15 यौन हिंसा पीड़ित महिलाओं की मिसाल दे कर बताया है कि हर केस में महिला की यौन अपराध के प्रति प्रतिक्रिया अलग थी, जबकि आरोपी एक ही शख्स था।
किसी ने उससे बात कर के बचने की कोशिश की। कुछ ने उसका मुकाबला किया। वहीं कुछ महिलाओ ने खुद को दिमागी तौर पर हालात से दूर कर लिया। यानी जबरदस्ती बनाए गए यौन संबंध से वो जहनी तौर पर अलग रहीं। अमरीका में बलात्कार के 274 मामलों की रिपोर्ट देखने से पता चला कि केवल 22 फीसद मामलों में महिलाओं ने शोर मचाकर या लड़कर बलात्कार से बचने की कोशिश की।
56 प्रतिशत पीड़ितों ने आरोपी से गुहार लगाकर या विनती कर के बचने की कोशिश की। वहीं, कई तो डर के मारे जम सी गईं। अलग-अलग हालात में अलग-अलग नुस्खे काम आते हैं, जिन महिलाओं ने लड़कर मुकाबला किया, उनमें से ज्यादातर बच जाने में कामयाबी हासिल की। लेकिन, ऐसे हालात में उनके किसी हथियार से चोटिल होने का खतरा बढ़ गया। वहीं, रहम की भीख मांगने, रोने या बात चीत कर के समझाने के मामलों में पीड़िता के चोटिल होने का डर और भी बढ़ गया।
आरोपी अगर बाहर से आया हमलावर होता है, तो महिलाओं के साथ जुल्म होने का डर और भी बढ़ जाता है। यहां ये समझने की भी जरूरत है कि ऐसे हालात में लोग अपने बर्ताव को कंट्रोल नहीं कर सकते। कई लोग तो ऐसे मौके पर सुन्न हो जाते हैं।स्वीडन में 298 महिलाओं पर हुए तजुर्बे से पता चला कि 70 प्रतिशत महिलाएं यौन हिंसा के वक़्त सुन्न हो गई थीं। वहीं 48 फीसद तो होश ही गंवा बैठी थीं। ऐसी महिलाएं अपने साथ हुए हादसे के बाद तनाव की शिकार हो गईं। डिप्रेशन में चली गईं।
बलात्कार या यौन हिंसा के शिकार बहुत से लोग कुछ खास तरह के मंजर को याद करने का दावा करती हैं। उनके जहन में कुछ आवाजें या बू कैद हो जाती है। भले ही ऐसी घटनाएं बीते हुए कई दशक क्यों न हो जाएं। ऐसी तस्वीरें, बू या आवाजें उन पीड़ितों के जहन में हमेशा के लिए दर्ज हो जाती हैं।
मगर, जब इन पीड़ितों से उन तस्वीरों में दिखने वाले शख्स के बारे में पूछा जाता है, तो वो नहीं बता पातीं। वो नहीं बता पातीं कि किस की आवाज उनके दिमाग में गूंज रही है। जो बू उन्हें आती है, वो किसकी है। कई बार पीड़िता अपनी ही बातों को नकार देती है। लंदन के किंग्स कॉलेज की मनोवैज्ञानिक एमी हार्डी कहती हैं कि, ‘हादसे की यादों और अदालती कार्रवाई में बहुत लंबा फासला है। लोग अपने साथ हुए दुखद तजुर्बे को अक्सर कानूनी पहलू से नहीं बता पाते हैं।’
वजह ये है कि बुरी यादें, रोजमर्रा की यादों से अलग होती हैं। आम तौर पर हम जो देखते हैं, सुनते हैं, सूंघते हैं या चखते हैं या छू कर महसूस करते हैं, उन तजुर्बों को जहन दर्ज कर लेता है।
बाद में वही तजुर्बा होने पर उन यादों के हिसाब से हमारा दिमाग़ चीजों को देखता-समझता है। लेकिन, जब भी ऐसे हादसे होते हैं, तो हमारा शरीर तनाव का शिकार हो जाता है। फिर वो उस तजुर्बे की सही तस्वीर कैद नहीं कर पाता, क्योंकि जब भी हम किसी खतरे के शिकार होते हैं, तब हमारा पूरा ध्यान उससे बच निकलने पर लगता है।
तब हम उस तजुर्बे को भविष्य में इस्तेमाल के लिए अपने दिमाग में दर्ज करने के बजाय हालात से बच निकलने पर जोर लगाते हैं। यही वजह है कि मुश्किल में पड़ने पर कई बार हमें लगता है कि हमारा दिमाग सुन्न हो गया है। एमी हार्डी ने बलात्कार और यौन हिंसा की शिकार महिलाओं की दिमागी हालत की पड़ताल की है।
उन्होंने पाया कि जो ऐसी यौन हिंसा की घटनाओं के दौरान खुद को दिमागी तौर पर वहां से अलग कर सकीं, उनकी उस अपराध को लेकर यादें बेहतर थीं। जब पुलिस ने उनसे पूछ-ताछ की, तो वो ज्यादा बेहतर तरीके से अपने साथ हुई घटना को बयां कर सकीं। वहीं, जिसका दिमाग उस वक्त अस्थिर रहा, वो बाद में अपने साथ हुई घटना को सही तरीक़े से नहीं बता पाया। ऐसे मामले कानूनी तौर पर कमजोर पड़ गए।