दस्तक-विशेषराष्ट्रीय

सफल होने के लिए ‘माफ करो और भूल जाओ’

– प्रदीप कुमार सिंह ‘पाल’, लेखक, युग शिल्पी एवं समाजसेवी, लखनऊ
photo P.Kजीवन में सफल होने के लिए ‘माफ करो और भूल जाओ’ की नीति अपनाना चाहिए। हम सभी का बीता हुआ समय या भूतकाल (अतीत) हमारे साथ है, लेकिन उसे वर्तमान में बार-बार लाने से हमारा वर्तमान प्रभावित होता है। कुछ लोगों को अपना बीता हुआ समय अपने वर्तमान से ज्यादा अच्छा लगता है और वे बार-बार अपने अतीत को याद करते हैं। लेकिन बार-बार अपने अतीत में लौटने की प्रवृत्ति न तो स्वयं के लिए और न ही दूसरों के लिए शुभ है। महान चिंतक एक्हार्ट टल्ल कहते हैं कि ‘हमारा चिंतन अतीत से निर्धारित होता है, इसलिए बार-बार हम अपने अतीत को याद करते रहते हैं। इन यादों में हम इतने घुले-मिले होते हैं कि हमें यह पता ही नहीं चल पाता कि कब हम अचानक ही अपनी अतीत की यादों में चले जाते हैं और ऐसा करने से हम अतीत से अपना पीछा नहीं छुड़ा पाते। परेशानी तो तब होती है, जब हम अतीत को अपने वर्तमान से जोड़ लेते हैं, इसके साथ कई तरह की भ्रांतियाँ मन में पाल लेते हैं और फिर हम वही बनते हैं, जो हमारा अतीत हमें बनाना चाहता है।’
एक बहुत प्रसिद्ध कहावत है- ‘भूतकाल बीत गया और भविष्य से हम अनजान हैं, इसलिए वर्तमान हमारे हाथ में है।’ वर्तमान हमारी अनमोल संपत्ति है। असल में वर्तमान हमारा है और हम उसके मालिक हैं। अगर हमें यह पता हो कि वर्तमान हमें मिला हुआ सुनहला मौका है तो हम अपना भविष्य सुरक्षित और संपन्न बना सकते हैं। वर्तमान में जीने से सफलता और अपने उज्जवल भविष्य की संभावना सुनिश्चित होती है। जीवन में जिन परिस्थितियों में परिवर्तन करना हमारे हाथों मंे नहीं है, उन्हें समय के हवाले कर देने में ही समझदारी है; क्योंकि समय ही एक ऐसी दवा है, जो ऐसी परिस्थितियों को ठीक कर सकती है। अतः हर पल क्या हो रहा है, इसके प्रति सतर्क रहना जरूरी है। जो सही है, उसकी सराहना करनी चाहिए और अपने जीवन में सकारात्मकता धारण करना चाहिए। यदि मनुष्य अपने मन में सुख-शांति चाहता है तो उसे ‘माफ करो और भूल जाओ’ की नीति अपनाना चाहिए, अन्यथा अतीत की यादें हमेशा सताएँगी। जीवन में क्षमाशीलता ही एकमात्र ऐसी प्रवृत्ति है, जो वर्तमान और अतीत की चिंताओं से हमें मुक्त कर सकती है। जब कभी भी हम वर्तमान में अपने आप को दुःखी या असफल महसूस करते हैं तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि अतीत से शिक्षा लेने का समय आ गया है और ऐसी स्थिति में हमें अतीत में की हुई गलतियों से शिक्षा लेकर अतीत की तुलना में अपने वर्तमान को सुखमय बनाने में प्रयत्नशील हो जाना चाहिए। कहते हैं कि जो बीत गया, सो बीत गया, अब उसे क्या सोचना। अतीत की घटनाओं को बार-बार सोचना, गड़े मुरदे उखाड़ने के समान ही है।
मनुष्य को यह स्मरण रखना चाहिए कि अतीत के विषय में सिर्फ सोचते रहने से अतीत बदल थोड़े ही जाता है, बल्कि यदि अतीत की घटनाओं से शिक्षा ली जाए और अपने वर्तमान में अतीत की गलतियों को न दोहराकर पहले से कुछ अच्छा किया जाए तो जीवन में अधिक आनंद आएगा और व्यक्ति अधिक विकास, उन्नति, प्रगति कर सकेगा। मनुष्य अपने जीवन में कुछ नया कार्य तभी कर सकता है, जब वह अपने अतीत से मुक्त होकर अपने वर्तमान में पूरी तरह से एकाग्र होता है; क्योंकि ऐसा होने पर वह अतीत की जंजीरों, बंधनों से आजाद होता है और कुछ कर पाने में सक्षम होता है। महान लेखक बीथोवेन का कहना था कि उन्होंने अपनी सारी रचनाएँ तब रचीं, जब उनका दिमाग शून्य की स्थिति में था अर्थात अतीत की यादों व उसके बंधनों से पूरी तरह आजाद था।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एरिक फ्रॉम के अनुसार- ‘हम कभी भी अपने दिमाग से लगातार स्वतंत्र होकर नहीं रह सकते, लेकिन इतना हो सकता है कि हर दिन हम ऐसा मौका निकालें, भले ही थोड़े समय के लिए। दरअसल, ऐसा होने पर ही हम वास्तव में खुश और चिंतारहित हो पाते हैं और यह हमारे मस्तिष्क को तरोताजा करता है।’
मनोवैज्ञानिकों ने मन की चार प्रवृत्तियाँ बताई हैं। वे कहते हैं कि व्यक्ति चार तरह के मन को साथ में लिए हुए जीता है- (1) वर्तमान मन, (2) अनुपस्थित मन, (3) दोहरा मन और (4) एकाग्र मन। वर्तमान मन का अर्थ है कि अभी क्या चल रहा है, उसे देखने वाला मन। अनुपस्थित मन का अर्थ है- मन का कार्यस्थल पर न होकर कहीं और होना। दोहरे मन में व्यक्ति के दो मन बन जाते हैं। एक ओर, उसका मन कह रहा होता है कि किसी काम को करना चाहिए तो दूसरा मन कह रहा होता है कि अभी रूकना चाहिए। परंतु एकाग्र मन इन सारे व्यवधानों से विचलित न होता हुआ अपने लक्ष्य एवं उद्देश्य के प्रति सदा सजग एवं एकाग्र रहता है। जो व्यक्ति जीवन में वर्तमान और एकाग्र मन के साथ आगे बढ़ते हैं, वे सफलता पाते हैं और अनुपस्थित व दोहरे मन वाले व्यक्ति भटकते रहते हैं। महान दार्शनिक मार्ले का कहना था कि ‘दुनिया के हर काम में सफलता प्राप्त करने के लिए एकाग्रचित होना आवश्यक है। हमारी एकाग्रता ऐसी होनी चाहिए कि हम अपने काम में पूरी तरह से लीन हो जाएँ। पढ़ते समय पुस्तक बन जाएँ खाते समय भोजन और लिखते समय शब्द बन जाएँ, दोहरा और अनुस्थित मन, व्यक्ति को अपने लक्ष्य और कार्य से भटका देता है।’
जोस सिल्बा अपनी पुस्तक ‘यू दि हीलर’ में लिखते हैं- ‘मन मस्तिष्क को चलाता है और मस्तिष्क शरीर को। इस तरह शरीर मन के आदेश का पालन करता है।’ मन के स्थिर होने को, चित्त के शांत होने को एवं व्यक्तित्व के समग्र होने को योग कहते हैं। आचार्य शंकर भी मन की स्थिरता को ही सच्चा जीवन का उद्देश्य बताते हैं और यह कहते हैं कि ऐसा हो पाना बिना वर्तमान के क्षण में मन को स्थिर किए बगैर संभव नहीं है। मनुष्य के एकाग्र हो जाने को, उसके अंतर्मन में समरसता, संतुलन एवं समत्व आ जाने को ही जीवन का सर्वोच्च उत्कर्षता बताते हैं। ऐसा हो पाना बिना मन के एकाग्र हुए, बिना मन के वर्तमान क्षण को उपलब्ध हुए संभव ही नहीं है। कहा गया है कि जो ठहर गया वह बुद्ध हो गया। यदि मनुष्य अपने एकाग्र व वर्तमान का उपयोग कर सके तो अनेक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों व सफलताओं को प्राप्त कर अपने जीवन को बदल सकता है; जबकि दोहरे एवं अनुपस्थित मन के कारण जीवन की स्थिति में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं होता और जीवन का स्तर ऊँचा उठने के बजाय, गिरता चला जाता है। इसलिए अपने मन को अतीत से जोड़ने के बजाय उससे कुछ सीखना अधिक उचित है। तभी हम अपने वर्तमान को सुधार सकेंगे और अपने भविष्य को सँवार सकेंगे।

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