सरकारी स्कूलों में दाखिले पर हाई कोर्ट के आदेश का क्या होगा?
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीष श्री सुधीर अग्रवाल की पीठ ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए पिछले वर्ष 18 अगस्त को सरकारी कर्मियों के बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी/परिषदीय स्कूलों में पढ़ाए जाने का आदेश मुख्य सचिव को दिया था। उन्होंने अपने फैसले में कहा था कि ‘इससे समाज के साधारण व्यक्तियों के बच्चों को तथाकथित उच्च और सम्पन्न वर्ग के बच्चों के साथ घुलने-मिलने का अवसर मिलेगा और उन्हें न केवल एक अलग वातावरण मिलेगा बल्कि उनमें आत्मविश्वास जागेगा और उन्हें अवसर मिलेंगे। इससे समाज को तृणमूल स्तर से बदलने के लिए क्रान्तिकारी बदलाव लाने हेतु प्रोत्साहन मिलेगा।’
वैसे भी लम्बे अरसे से इस मुद्दे पर बहस होती रही है कि आखिर सरकारी मुलाजिम अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही क्यों नहीं पढ़ाते? तमाम सरकारी कर्मचारी, जो हर सरकारी सुविधा पर अपना दावा ठोकते हैं, वे सरकारी स्कूलों की तरफ मुखातिब क्यों नहीं होते? इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन तमाम कर्मचारियों की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। उसके इस फैसले ने कि सरकारी खजाने से पैसा लेने वाले लोग सरकारी या परिषदीय स्कूलों में ही अनिवार्य रूप से अपने बच्चों को पढ़ाएं, इन वर्गों को बेचैन कर दिया है। हाईकोर्ट का आदेश यह है कि प्रदेश के मुख्य सचिव इसकी कार्ययोजना तैयार कर छह महीने में उसे अदालत के सामने पेश करेंगे और इसे अगले शिक्षा सत्र से लागू कर दिया जाएगा। इस फैसले से बड़े-बड़े हुकमरान परेशान हो उठे थे क्योंकि उन्हें तो यह पता भी नहीं है कि ये सरकारी स्कूल नाम का ठिकाना उनके शहर में है कहां?
हमने इसी कॉलम में उस समय लिखा था- आम लोग इस बात पर चर्चा करते रहे हैं और माननीय न्यायमूर्ति ने उसे सारगर्भित स्वर दिया है कि चूंकि उन्हें कभी अपने बच्चों को इन स्कूलों में पढ़ने भेजना नहीं पड़ता है इसलिए आला अफसरों को, मंत्रियों को, जन प्रतिनिधियों को इस बात का ज्ञान ही नहीं है कि प्राथमिक विद्यालयों की कितनी दुर्दशा है। एक रिपोर्ट कहती है कि 26 हजार से ज्यादा ऐसे स्कूल एक कमरे में चलते हैं। यह आंकड़ा कुल स्कूलों का 11 प्रतिशत बैठता है। दस फीसदी 2 कमरों में और इतने ही तीन कमरों में चलते हैं। मतलब यह है कि लगभग एक तिहाई पाठशालाओं के नसीब में तीन से अधिक कमरे नहीं हैं। ध्यान देने की बात यह है कि ऐसे लगभग एक लाख 13 हजार 350 प्राइमरी स्कूलों में 2 करोड़ 60 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं। न जाने कितने स्कूल ऐसे हैं, जिनमें बच्चों को बैठने के लिए कुर्सी-मेज नहीं है। वे टाट-पट्टी पर बैठकर पढ़ते हैं। न जाने कितने स्कूलों में बच्चों के लिए स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है, लड़कियों के लिए अलग से शौचालय नहीं हैं। पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं हैं। शिक्षकों के ढाई लाख से ज्यादा पद खाली पड़े हैं।
न्यायालय ने उस समय कहा था कि पूरी शिक्षा व्यवस्था तीन हिस्सों में बंट गई है: इलीट क्लास, मिडिल क्लास और परिषदीय प्राथमिक स्कूल। 90 प्रतिशत बच्चे परिषदीय स्कूलों में पढ़ने जाते हैं जबकि इलीट क्लास में अधिकारी वर्ग, उच्च वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग के लोगों के बच्चे पढ़ने जाते हैं। कोर्ट ने टिप्पणी की है कि सरकारी अधिकारी वर्ग की गलत नीतियों के चलते प्राइमरी शिक्षा का बुरा हाल हो गया है। इसके लिए बहुत उपाय किए गए हैं। अब एक तरीका यही है कि इनके बच्चे इन्हीं प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने जाएं तभी इनकी हालत सुधरेगी।
यह उम्मीद की जानी चाहिए थी कि उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार हाईकोर्ट के फैसले को हाथोंहाथ लेगी और उसे लागू करने के लिए तुरंत तैयारी शुरू कर देगी लेकिन हुआ इससे उल्टा। पहले तो तत्कालीन शिक्षा मंत्री रामगोविंद चौधरी ने इस फैसले का स्वागत करते हुए इसे लागू करने के लिए हुंकार भरी थी लेकिन बाद में सरकार ने घोषणा कि वह हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएगी। अभी यह पता नहीं है कि सरकार सु्रप्रीम कोर्ट गई या नहीं और यदि गई है तो उसकी अपील का स्टेटस क्या है। यह भी अज्ञात है कि हाई स्कूल के आदेश के मुताबिक मुख्य सचिव ने इसकी कार्ययोजना बनाकर अदालत के सामने पेश की या नहीं। वैसे भी इस आदेश के लागू होने का समय आ गया है। आदेश यह था कि अगले सत्र से नई व्यवस्था लागू कर दी जाएगी लेकिन फिलहाल आदेश लागू होने के कोई आसार कहीं नजर नहीं आ रहे हैं।
इस संभावना की एक वजह यह है कि अभी कुछ समय पहले ही मुख्यमंत्री उस आलीशान तरीके से बनने वाले संस्कृत स्कूल की आधारशिला रखने गए थे जो सरकारी मदद से गोमतीनगर लखनऊ में बनने जा रहा है। हमने लिखा था कि प्रदेश के आला अफसरों को सरकारी या परिषदीय स्कूल तो दूर राजधानी के हाई-फाई इलीट स्कूल भी पसंद नहीं आते। सो उन्होंने अपना अलग इंतजाम कर लिया है। ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली में बैठे उनकी बिरादरी के आला अफसरों ने कर रखा है। दिल्ली के संस्कृत स्कूल की तरह लखनऊ में भी एक संस्कृत स्कूल बनाया जा रहा है। खास बात यह भी कि इसमें फिलहाल नौकरशाहों के बच्चों को ही दाखिला मिलेगा और उसका संचालन मुख्य सचिव की अध्यक्षता में बनी एक समिति के हाथों में होगा जिसमें ज्यादातर बड़े अधिकारी या उनकी पत्नियां होंगी। संयोग की बात यह है कि इन्हीं मुख्य सचिव को मा0 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासक निर्णय के क्रियान्वयन का दायित्व सौंपा है। हाईकोर्ट ने उनसे कहा है कि वे एक कार्ययोजना तैयार कर अगले छह महीने में यह सुनिश्चित करें कि सरकारी कर्मचारी अनिवार्य रूप से सरकारी/परिशदीय स्कूलों में ही पढें़। अब मुख्य सचिव सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को परिशदीय स्कूलों में भेजने की योजना लागू करेंगे या कि संस्कृति स्कूल चलाएंगे? सरकार के पास दो ही विकल्प हैं या तो वह कोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट का स्टे हासिल करे या फिर हाईकोर्ट को बताए कि उसके आदेश को वह किस तरह से लागू करेगी?=