दस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भहृदयनारायण दीक्षित
अजर और अमर है भारतीय जनतंत्र
हृदयनारायण दीक्षित : भारतीय जनतंत्र अजर-अमर है। यह भारतीय समाज की मूल प्रकृति है। राष्ट्रजीवन का स्वाभाविक प्रवाह और भारत के लोगों की जीवनशैली। एक श्रेय विचार, एक प्रेय प्रकृति। ‘‘हम भारत के लोगों‘‘ ने अपने संविधान को जनतंत्र के अमर रस से भर दिया है। संविधान की उद्देशिका ‘‘हम भारत के लोग‘‘ शब्दपुंज से शुरू होती है। यहां राजव्यवस्था की शक्ति का स्रोत ‘हम भारत के लोग‘ है। यहां राजनैतिक दलतंत्र भिन्न भिन्न विचारों के अनुसार काम करता है। वैचारिक भिन्नता का ऐसा इन्द्रधनुष दुर्लभ है। संविधान सबके ऊपर है। संविधान में विधायी सदन हैं। कार्यपालिका और न्याय पालिका है। विधायी सदन विधि बनाते है। सदनों के सदस्य सरकार से प्रश्न पूछते हैं। बजट पर सुझाव देते है। बहुमत प्राप्त कार्यपालिका भी स्वच्छंद नहीं है। सदनों के समक्ष उसकी जवाबदेही है। स्वतंत्र न्यायपालिका हमारी संवैधानिक व्यवस्था का खूबसूरत अंग है। संविधान और संवैधानिक संस्थाओं का आदर देश के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। परस्पर सम्मान जनतांत्रिक व्यवस्था का सौन्दर्य है। लेकिन बहुधा ‘लोकतंत्र की हत्या‘ की बातें चलती है। मूलभूत प्रश्न है कि क्या लोकतंत्र की हत्या संभव है? हत्या संभव होती तो भारत में जनतंत्र का नामनिशान न होता। बेशक 1975 में आपत्काल की घोषणा और आपत्काल में सरकार के आचरण ऐसे ही थे। लेकिन रोजमर्रा के राजनैतिक क्रियाकलापों में ‘लोकतंत्र की हत्या‘ का शोर उचित नहीं है। अस्तित्व में तमाम रूप हैं। लाखों जीव, वनस्पति, नदियाँ, पर्वत आदि करोड़ों रूप। हम सबके आलोक में यह लोक है। लोक की अनेकत्व गतिविधि सुसंगत नियमों में चलती है। ऋग्वैदिक पूर्वजों ने प्रकृति के नियमों को ‘ऋत‘ कहा है। प्रकृति की अभिव्यक्ति भी ऋत-नियमों में हैं और इसकी गतिविधि भी। प्रकृति में इस गतिविधि का एक तंत्र है। इसे लोकतंत्र कहते हैं। लोकतंत्र प्रकृति की व्यवस्था है। इसी लोक का एक भाग हम सब ‘जन‘ हैं। लोकतंत्र में सर्वसमावेश है। जनतंत्र में जन की सर्वसमावेशी गतिविधि है। संसद और विधान मण्डल भारतीय जनतंत्र से भरे पूरे जनप्रतिनिधि सदन है। इनमें वाद-विवाद संवाद का परिपूर्ण विचार स्वातंत्र्य है। लेकिन जनप्रतिनिधि सदनों की कार्यवाही बहुधा ठप्प हो रही है। सड़क पर घटित कोई भी घटना लोकतंत्र की हत्या बताई जाती है। ऐसी किसी भी घटना पर संसद व विधानमण्डलों में प्रशांत चित्त वाद-विवाद होना चाहिए। आखिरकार लोकतंत्र की हत्या जैसी घटना पर सदन में विचार करना संभव क्यों नहीं है? सदन को बाधित करना और कार्यवाही ठप्प करना ही लोकतंत्र की हत्या बचाने का उपाय क्यों है? सदन लोकतंत्र के आदरणीय स्थल है। विधायी सदनों से बड़ी दीगर कोई लोकतांत्रिक संस्था नहीं है। इससे श्रेष्ठ बहस की कोई दूसरी जगह नहीं है। सदन के अलावा लोकतंत्र की कथित हत्या पर विचार विमर्श करने की कोई अन्य संस्था भी नहीं है। लेकिन यहां विचार विमर्श न करके हुल्लड़ मचाना लोकतंत्र का संरक्षण क्यों है। कार्यवाही बाधित करना लोकतंत्र की हत्या क्यों नहीं है?
‘लोकतंत्र की हत्या‘ का बहुधा शोर हास्यास्पद लगता है। सदनों को इसी बहाने बाधित करना लोकतंत्र के स्वाभाविक कर्म का सर्वधा नया अर्थ संस्कार देना है। ऐसे मित्र सदन की कार्यवाही में हुड़दंग को भी लोकतांत्रिक कार्रवाई बताते हैं। यह लोकतंत्र का दुखद संस्करण है। इन मित्रों की मानें तो सदन में हुल्लड़ और शोर भी लोकतंत्र का भाग है। यह अर्थ भारतीय लोकतंत्र के खात्मे का शिलान्यास है। इस प्रवृत्ति का बढ़ावा सदनों के न चलाने को भी लोकतंत्र मान लेना है। ऐसी लत का कोई अंत नहीं है। क्या इसे लोकतांत्रिक कार्रवाई मानकर हम सब सदनों की उपयोगिता समाप्त करने जा रहे है? तीन चार दिन का हुल्लड़ और सदनों की कार्यवाही का स्थगन लोकतंत्र का भाग है तो क्या हमेशा के लिए सदनों का स्थगन लोकतंत्र का श्रेष्ठतम भाग नहीं कहा जाएगा। हम गलत दिशा की ओर जा रहे है। आगे लोकतंत्र की मौत का कुंआ है। भारतीय दलतंत्र के सामने अपनी प्राचीन लोकतंत्री प्रकृति बचाए रखने की चुनौती है। संसदीय लोकतंत्र का विकल्प नहीं है लेकिन आमजनों में संसदीय सदनों के प्रति निराशा है। पीछे 15-20 बरस से जनता में सदनों की कार्यवाही देखने व जानने की जिज्ञासा बढ़ी है। जन-गण-मन सदनों में वाद-विवाद संवाद देखने को उत्सुक है। वे सदनों को काम करते देखना चाहते हैं। वे मुद्दा आधारित बहस देखना चाहते हैं। वे प्रतिपक्ष से वैचारिक विकल्प प्रस्तुत करने की अपेक्षा रखते हैं। लोकतंत्र में विचारधारा का विशेष महत्व होता है। लेकिन यहां वैचारिक बहसों की गुजांइश नहीं है। सारे देश के जनप्रतिनिधि सदनों में विशेषतया विधान मण्डलों में काम के घंटे घटे हैं। विधि निर्माण सदनों का मुख्य कार्य है। विधि निर्माण करने के कारण ही सदनों के सदस्य विधायक कहे जाते है लेकिन विधि निर्माण या विधि संशोधन पर चर्चा का पर्याप्त समय नहीं होता। संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच समझकर संसदीय जनतंत्र अपनाया था। उनका स्वप्न था कि सदनों में सार्थक वाद-विवाद होंगे। राष्ट्र की हरेक समस्या का समाधान सदन ही करेंगे। लेकिन वैसा नहीं हो रहा है।
लोकतंत्र सर्वसमावेशी कर्मतप है। निस्संदेह अपने विचार या पक्ष का आग्रह होना चाहिए लेकिन विपरीत विचार के प्रति आदर भाव भी होना चाहिए। प्रत्येक विचार या वाद का प्रतिवाद भी होता है। वाद प्रतिवाद का मिलन संवाद में होता है। संवाद का मूल वाणी की मधुमयता है। शोर और हुल्लड़ स्थगन में शब्द अपना अर्थ खो देते है। अर्थ अनर्थ हो जाते हैं। पूर्वजों ने राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों की समस्याओं के समाधान वाद विवाद से ही हल किए थे। चरक संहिता आयुर्विज्ञान का ग्रंथ है। इस संहिता में स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर भी खुली बहस है। अनेक विचार हैं। सभी विचारों के उल्लेख है। फिर सबको मिलाकर निदान के निष्कर्ष है। प्राचीन साहित्य वाद विवाद संवाद और शास्त्रार्थ सभा गोष्ठियों से भरा पूरा है। कभी-कभी संसद व विधान मण्डलों में खूबसूरत बहस की झलक मिलती है। इसी खूबसूरती को सदन की मूल प्रकृति बनाया जाना चाहिए। जनतंत्र में सबकी भागीदारी है। इस भागीदारी की मर्यादा है। सब अपना पक्ष रखे। सब सुने। वाणी का शीलाचार जनतंत्र का मुख्यतत्व है। मर्यादा और शील से सुगंधित आचरण में ही जनतंत्र लहकता है। जनतंत्र सामाजिक शीलाचार है। एक उदात्त जीवनशैली है। भारत प्राचीनकाल से इसी जीवनशैली में गतिशील है। भारतीय जनतंत्र का मुख्य तत्व है संवाद। परस्पर विमर्श। यहाँ आस्था पर भी तर्क, प्रतितर्क, शास्त्रार्थ और संवाद की परम्परा है। जैसा गहन संवाद वैसा उतना उदात्त जनतंत्र। जनप्रतिनिधि संस्थाओं में प्रश्न प्रहर का अवसर शीर्ष प्राथमिकता है।
प्रश्न प्रहर में बाधा जनतंत्र नहीं है। विषय विशेष को लेकर हुल्लड़ जनतंत्र नहीं है। सदन के सदस्यों द्वारा अपनी बात की पक्षधरता स्वाभाविक है लेकिन प्रश्नकाल की पक्षधरता उससे बड़ी है। प्रश्न ज्ञान और कर्म के प्राण है। प्रश्नहीन जीवन अंधविश्वास है। प्रश्नाकुल जीवन में जिज्ञासा का प्रवाह रहता है और जिज्ञासा ज्ञान की जननी है। भारतीय संसदीय गतिविधि व जनतंत्र में प्रश्नकाल देवोपासना है। शोरगुल मचाकर प्रश्नकाल का अवसर नष्ट करना गलत है। सदन संचालन की परंपरा में हर एक बात या विषय उठाने के अवसर हैं। इनमें किसी भी तरह की बाधा जनतंत्र नहीं है। बाधा और शोर को जनतंत्र का हिस्सा बताना गलत है। यह जनतंत्र के विकास के लिए अनिष्ट मार्ग है। उत्तर प्रदेश विधान सभा में जब कब दुखद प्रसंग आते है। दर्शक दीर्घा में उत्कृष्ट विद्यालयों के छात्र कार्यवाही देखने आते हैं। वे शोरगुल, हंगामा देखते हैं। आहत होते हैं। सदनों के प्रति उनकी गलत धारणा बनती है। सदन की कार्यवाही उनके चित्त को व्यथा देती है। सदन की कार्यवाही का जीवंत प्रसारण होता है। हम सब विचार करें कि इस कार्यवाही को देखकर राज्य के 22 करोड़ जन जनतंत्र का क्या अर्थ लेते है?
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं)