अरसे बाद पंजे के दस्तखत
कांग्रेस के नए पुरोधा प्रशांत किशोर ने कहा था कि जुलाई में पार्टी की तरफ से ऐसा जन सम्पर्क अभियान शुरू किया जाएगा जो 25 साल में नहीं हुआ था। वे अपनी घोषणा पर खरे उतरे हैं। कांग्रेस ने जिस उत्साह से अपनी नई टीम घोषित की और उसकी प्रचार यात्रा प्रारम्भ की, उससे पार्टी में नया जोश पैदा होना स्वाभाविक है। कांग्रेस आलाकमान ने उत्तर प्रदेश की राजनीतिक कुण्डली पर घर जमाए बैठी जाति व्यवस्था का पूरा ख्याल रखते हुए राज्य के लिए अपनी टीम बनाई। पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखने वाले और अपने इर्दगिर्द फिल्मी स्टार की आभा बिखेरने में सक्षम राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बनाया। अभी जबकि भारतीय जनता पार्टी मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं तलाश पा रही है, कांग्रेस ने एक तपी-तपाई ब्राह्मण नेता शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश कर दिया। बाकी समीकरण बिठाने के लिए एक और ब्राह्मण राजेश मिश्रा, अति पिछड़ी गड़रिया जाति के नेता राजाराम पाल, दलित नेता राम प्रसाद चौधरी और मुस्लिम नेता इमरान मसूद को उपाध्यक्ष के तौर पर पेश कर दिया। संजय सिंह को अभियान समिति का मुखिया बनाकर राजपूत मतदाताओं को सकारात्मक संदेश देने की कोशिश की गई है। संजय सिंह को इस दृष्टि से भी लाया गया है कि भाजपा ने यदि राजनाथ सिंह को अपना मुख्यमंत्री का दावेदार बनाया तो राजपूतों को सांत्वना दी जा सकेगी। कांग्रेसियों में गुटबाजी न पनपे इसके लिए भी यह कह दिया है कि विभिन्न स्तरों के पदाधिकारियों की जो पुरानी टीम है, वह यथावत काम करती रहेगी। शुरुआती दौर में इसका भरपूर स्वागत हुआ है। जन सम्पर्क यात्रा के दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश और कानपुर में कांग्रेसी नेताओं के इर्दगिर्द अच्छी खासी भीड़ जुटी। ऐसी कई और यात्राएं प्रदेश के विभिन्न इलाकों से निकालने की कांग्रेस की योजना है। यह प्रशांत किशोर के फार्मूले का हिस्सा है।
लेकिन कांग्रेस के सामने दिक्कतों का एक बहुत भारी भरकम पहाड़ खड़ा है। पिछले 27 साल से वह विपक्ष में है और चुनाव-दर-चुनाव उसकी हालत खराब होती चली गई। 2012 के विधानसभा चुनाव में पूरे प्रदेश में कांग्रेस को 61 लाख वोट भी नहीं मिले और उसके 240 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। उसे 403 में से केवल 29 सीटों पर विजय मिल सकी थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में पूरे प्रदेश में उसे केवल 7.53 प्रतिशत वोट मिले और पूरे देश में कांग्रेस को जो वोट मिले थे, उसमें उत्तर प्रदेश का हिस्सा केवल 5.66 प्रतिशत था जबकि अकेले उ0प्र0 से भाजपा के वोटों में कुल हिस्सा लगभग 20 फीसदी था। यहां भाजपा को जो वोट और सीटें मिलीं, उसके दम पर उसने लोकसभा चुनाव में बहुमत पाया और अपनी सरकार बनाई। कांग्रेस पिछले चुनावों में लगातार चौथे नम्बर पर रहती आई है जो उसकी दुर्दशा का बखान करने के लिए पर्याप्त है।
उत्तर प्रदेश में जो हालात पिछले कुछ चुनावों में बने हैं, उनसे एक बात साफ पता लगती है कि विभिन्न प्रमुख दलों के जो अपने-अपने वोट बैंक हैं, उतने भर से वे चुनाव नहीं जीत सकते। उनके लिए यह जरूरी रहा है कि वे अपने वोट बैंक को तो संभालें ही, दूसरे के वोट बैंक में भी सेंधमारी कर लें। 2007 के चुनाव में मायावती की बसपा जीती क्योंकि उसने समाजवादी पार्टी के वोट बैंक में सेंधमारी कर ली थी। यही स्थिति 2012 के चुनाव में रही जबकि सपा ने बसपा के वोटों में सेंध मार ली। उसने अपने वोट तो बचाके रखे ही थे, बसपा के दलित वोटों में भी घुसपैठ करने में सफलता पा ली है जो उसे अंतत: विजय द्वार तक ले गया। कांग्रेस की तमाम उन टीमों को जो प्रशांत किशोर के नेतृत्व में विभिन्न जिलों में डेरा जमाए रही हैं, यह बात समझ में आ गई है कि तीन शीर्ष दलों के वोटों में जब तक वह घुसपैठ नहीं करेगी, उसे सफलता का मीठा स्वाद चखने को नहीं मिलेगा। कांग्रेस को तीन तरह के वोट चाहिए है: ब्राह्मण, गैर-यादव, गैर-कुर्मी पिछड़े जो कुल पिछडों का 60 प्रतिशत बैठते हैं तथा मुसलमान। सपा के खेमे से यादव वोट तोड़ना मुश्किल है लेकिन मुसलमानों का एक हिस्सा तोड़ा जा सकता है, सो उसने गुलाम नबी आजाद को यहां लगाया है। यह बात बसपा भी समझती है कि उसे सपा के खेमे से मुसलमान वोट झटकने हैं, सो उसने 100 मुसलमानों को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया है। कांग्रेस भी इस फैक्टर पर पूरा ध्यान देने वाली है। इसीलिए उसने जो नई टीम खड़ी की है, उसमें तदनुसार समीकरण फिट करने की कोशिश की है।
कांग्रेस ने 2012 के विधानसभा चुनाव की विस्तृत समीक्षा करके अपनी रणनीति बनाई है। चार श्रेणियों में उसने पूरे यू0पी0 को बांटा है। पहले में वे 29 चुनाव क्षेत्र हैं, जहां पिछली बार वह जीती थी। दूसरे क्रम में वे 22 क्षेत्र हैं जहां कांग्रेस दूसरे नम्बर पर थी और तीसरे नम्बर पर वे 74 सीटें हैं जहां वह तीसरे नम्बर पर रही थी। चौथी श्रेणी में उसने अत्यधिक कमजोर सीटों को रखा है जहां उसकी जमानत जब्त हुई और पार्टी की अच्छी खासी दुर्दशा हुई थी। इसी हिसाब से इस बार तमाम चुनाव क्षेत्रों से टिकट मांगने वालों की सूचियां तैयार की गई हैं। इस सूचियों की पूरी छानबीन की जा रही है और साथ ही उन नामों पर भी ध्यान दिया जा रहा है जिनके नाम तमाम उम्मीदवारों ने अपने सक्रिय कार्यकर्ताओं के रूप में भेजे हैं। प्रत्येक प्रत्याशी से यह कहा गया था कि वह कम से कम 25 ऐसे सक्रिय सदस्यों के नाम भेजें जो टिकट न मांगें लेकिन पूरे समय पार्टी द्वारा बताए गए काम करें। एक-एक नाम पर विचार किया और इनको बुलाकर इंटरव्यू किए गए। जितने तकनीकी कौशल और डिजिटल तौर तरीकों से इस बार यह काम किए गए हैं, वह कांग्रेस के लिए पूरे तौर पर एक अपरिचित शैली है। कांग्रेस नेता बताते हैं कि इस बार जो लक्ष्य है, उसके तहत सशक्त उम्मीदवार तो मैदान में उतारे ही जाएंगे, ऐसी व्यवस्था की जाएगी कि प्रत्येक बूथ पर पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता मौजूद रहें जो पार्टी की ताकत का अहसास कराने में सहायक साबित हों।
यह लगभग तय है कि चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में प्रियंका गांधी को मैदान में उतारा जाएगा। उनके कार्यक्रमों से पहले पार्टी अपने वरिष्ठ नेताओं की पूरी टीम को एक एक क्षेत्र में भेजेगी ताकि जब प्रियंका मैदान में उतरें तो कांग्रेसी उन्हें हाथों हाथ लें और जनता में उसका दमदार असर हो। पार्टी ने यह तय कर लिया है कि वह प्रियंका को अपने ट्रंप कार्ड की तरह इस्तेमाल करेगी। उनके ग्लैमर का वह भरपूर इस्तेमाल करना चाहेगी। आखिर यह कौन नहीं जानता कि प्रियंका का चेहरा मोहरा इंन्दिरा गांधी से मिलता जुलता है और कम से कम उत्तर प्रदेश में वे राहुल से ज्यादा लोकप्रिय हैं। अभी यह कहना मुश्किल है कि यह रणनीति कितनी सफल हो पाती है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस एक ताकत के रूप में उभरकर सामने आएगी।
कांग्रेस के इस गेम प्लान से राजनीतिक समीकरण भी बदल सकते हैं। कांग्रेस यदि उभरी तो इसकी पहली चोट बसपा को लगेगी क्योंकि ब्राह्मण उसके पाले से खिसकेंगे और मुसलमान भी। राज बब्बर को लाने से मुसलमान वैसे भी ज्यादा आकर्षित हो सकते हैं। अगर ब्राह्मण और मुसलमानों का एक हिस्सा कांग्रेस की तरफ गया तो यह पहली चोट बसपा पर करेगा। हाल के चुनावों में बसपा को अच्छे नतीजे नहीं मिले हैं और वह फिर जिस तरह से उसके कई नेता पार्टी नेतृत्व पर संगीन आरोप लगाकर पार्टी से बाहर हुए हैं, उसने बसपा के घाव पर चोट का काम किया है। बसपा अपने दलित वोट को संजो कर रखने में तो पूरी ताकत लगा ही रही है, उसके निशाने पर ब्राह्मण और मुसलमान भी रहे हैं। लेकिन दलित मतदाताओं में चमारों को छोड़कर पासी और दूसरे वर्गों से जुड़े दलित बसपा के साथ एकगांठ नहीं ही हैं।
बसपा से आर0के0 चौधरी भी हटे हैं जो एक पासी नेता हैं। वे अपनी बिरादरी को कितना खींच पाते हैं और खींचकर कहां ले जाते हैं, यह देखने की बात होगी। वैसे उनको कांग्रेस को अपने खेमे में शामिल करने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए। कांग्रेस ने वैसे भी कई इलाके चुनाव के पहले दूसरे दलों से आने वाले लोगों के लिए गुपचुप ढंग से छोड़ रखे हैं। उसके सबसे बड़ी उम्मीद तो यह है कि पिछले कुछ वर्षों में जो भी कांग्रेसी अपनी पार्टी का साथ छोड़कर दूसरे खेमों से जुड़े हैं, वे इस बार कांग्रेस के तामझाम व प्रभावी चुनाव प्रचार को देखकर उसकी तरफ वापस मुड़ सकते हैं। उसकी एक उम्मीद वे तमाम नेता भी होंगे जिन्हें दूसरे दलों से टिकट पाने में सफलता नहीं मिलती है।
कांग्रेस की दूसरी चोट भाजपा और सपा पर बराबरी से हो सकती है। यदि शीला दीक्षित और प्रियंका का जादू चला और ब्राह्मण उसकी दिशा में मुड़ा तो यह भाजपा पर और मुसलमान का एक हिस्सा कांग्रेस तोड़ पाई तो यह सपा पर चोट होगी। आखिरकार कांग्रेस को कहीं से तो वोट जुटाने ही होंगे। सो वह यदि वह बसपा, भाजपा और सपा के कुछ नाजुक वोट बैंक को तोड़ने में कामयाब होती है, तो यह उसे निर्णायक मुकाम तक ले जा सकता है।