रायपुर। पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध में हमारे शूरवीरों ने दुश्मनों को पांव पीछे खींचने के लिए विवश कर दिया था। इस युद्ध में छत्तीसगढ़ के भी वीर सपूतों ने वीरता का परिचय देते हुए हर मोर्चे पर दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए थे। इस युद्ध में 527 जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे और 13०० से अधिक घायल हुए थे। युद्ध में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर रायपुर मस्तूरी और कोरबा क्षेत्र के कई जांबाज सिपाहियों ने दुश्मनों का डटकर मुकाबला कर अपने साहस का परिचय दिया था। उनकीवीरता के लिए केंद्र और राज्य सरकार ने विशेष सम्मान से पुरस्कृत किया था। कारगिल युद्ध में शामिल 3० हजार सिपाहियों में कुछ क्लर्क भी थे जिन्होंने समय आने पर बंदूक उठाई। इनमें से एक बिलासपुर शहर के दिनेश शुक्ला हैं जो वर्तमान में जिला सैनिक कल्याण कार्यालय में पदस्थ हैं। वह कारगिल में कोर ऑफ सिग्नल में थे। उन्होंने युद्ध की दास्तान सुनाई। दिनेश शुक्ला ने बताया कि युद्ध के दौरान दिन-रात दहशत में गुजरते थे। पता नहीं रहता था कि दुश्मन कब और कहां से हमला कर दे। घुसपैठी आधुनिक हथियारों से लैस थे। सभी सिपाही अलग-अलग टुकड़ी में तैनात रहते थे। रात-दिन हर मोर्चे पर दुश्मनों का मुकाबला करने को तैयार रहते थे। एक समय में तो सिपाहियों को बंकर में रहना पड़ा। शहीदों और घायलों के बारे में सोंचकर उनका दिल आज भी दहल उठता है। शुक्ला 1884 में सेना में भर्ती हुए और 2००० में सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने बताया कि उनकी टुकड़ी में छत्तीसगढ़ के तीन जवान थे। रायुपर के जवान इस युद्ध में दुश्मनों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। 26 जुलाई 1999 का दिन भारत देश के लिए ऐसा गौरव लेकर आया जब देश के जवानों ने पूरे देश में विजय का बिगुल बजाया था। इस दिन भारतीय सेना ने कारगिल युद्ध के दौरान चलाए गए ‘ऑपरेशन विजय’ को अंजाम देकर भारत भूमि को घुसपैठियों से मुक्त कराया था। इसी याद में हर वर्ष 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस मनाया जाता है। यह दिन है उन शहीदों को याद कर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पण करने का जो हंसते-हंसते मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। कारगिल युद्ध के जांबाज योद्धा कोरबा निवासी तोपची प्रेमचंद पांडेय बताते हैं कि कारगिल के जिस जगह पर युद्ध चल रहा था वह दुनिया के दूसरे नंबर के सबसे ऊंचाई और दुनिया का दूसरा सबसे ठंडा जगह था जहां रात में तो तापमान-3० से 7 डिग्री हो जाता था। उन्होंने बताया कि उनकी टुकड़ी में वह छत्तीसगढ़ से एकमात्र सिपाही थे और हर मोर्चे पर दुश्मनों का डटकर मुकाबला किया था।
उन्होंने कहा कि दो महीने तक चले इस युद्ध में भारतीय सिपाहियों ने कारगिल में जीत का बिगुल बजाकर ही वापस लौटे। वह कहते हैं कि वहां का मंजर और शहीदों को यादकर आज भी आंखें भर आती हैं। पांडेय ने कहा कि उनकी टुकड़ी के एक पेट्रोलिंग पार्टी को घुसपैठियों ने टुकड़े-टुकड़े कर दिए इससे सभी सिपाहियों का खून खौल उठा और सभी इंकलाब के नारे लगाते हुए दुश्मनों पर टूट पड़े। वे युद्ध के बाद भी लगभग डेढ़ साल तक कारगिल क्षेत्र में ही तैनात थे। वह 1996 में सेना में शामिल हुए थे और पहली पोस्टिंग कश्मीर में थी। उस वक्त वहां आतंक चरम पर था। गौरतलब है कि मई और जुलाई 1999 के बीच के भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर के कारगिल जिले के द्रास पर युद्ध हुआ था। पाकिस्तान की सेना और कश्मीरी उग्रवादियों ने भारत और पाकिस्तान के बीच नियंत्रण रेखा पार करके भारत की जमीन पर कब्जा करने की कोशिश की। भारतीय थल और वायु सेना ने पाक के कब्जे वाली जगह पर हमला किया। युद्ध में शामिल जवानों का साहस हिमालय से भी ऊंचा था। दुनिया का दूसरा सबसे ठंडा स्थान होने के बाद भी सिपाहियों का विश्वास जरा भी नहीं डिगा और वे पूरे जोश और जज्बे के साथ अपने देश की आन-बान को बचाने के लिए पांच हजार घुसपैठियों को खदेड़ दिए। वर्ष 1988 से 1991 और 2००4 से 2००7 में जम्मू एवं कश्मर के बारामुला गुड़ी तंगधार और कुपवाड़ा सेक्टर में तैनात रहे कोरिया जिले के भरतपुर निवासी रिटायर्ड मेजर शिवेंद्र पांडेय बताते हैं के कारगिल युद्ध के बाद भी वहां आज तक दहशत का माहौल है। कारगिल के पूरे इलाके में जवान आज भीह हरपल पूरी तैयारी के साथ तैनात रहते हैं क्योंकि दुश्मन से कहां से हमला कर दे कुछ कहा नहीं जा सकता। पांडेय ने बताया कि कारगिल युद्ध के पहले और बाद उनकी इसे इलाके में तैनाती थी। आज भी वहां आतंकी हमले होते रहते हैं। उन्होंने कहा कि जवान यहां कठिन परिस्थितियों में रहकर देश की सेवा करते हैं।