कुछ कदम आगे कुछ कदम पीछे
जवाहरलाल नेहरू से लेकर अब तक के समय को देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि भारतीय विदेश नीति भारत के प्रधानमंत्रियों के व्यक्तित्वों के अनुसार ही कमजोर, मजबूत अथवा आक्रामक या शिथिल, आदर्शवादी या फिर व्यवहारिक रही। अभी तक मोदी के व्यक्तित्व को जिस तरह से पेश किया गया है या मोदी ने स्वयं ही अपने आपको पेश किया उससे दो बातें समझ में आ रही हैं। पहली यह कि वे अपने आपको एक प्रभावशाली आक्रामक व्यक्तित्व के रूप में पेश करते हैं और स्वीकार भी कराना चाहते हैं। दूसरी यह कि वे परंपरागत विदेश नीति के ट्रैक को संवाद कला के साथ-साथ कुछ प्रचारात्मक तरीकों एवं सांस्कृतिक-आध्यात्मिक आधार पर बदलने की कोशिश कर रहे हैं।
आजाद भारत की विदेश नीति का एक मूलभूत तथ्य यह रहा कि उसमें यथार्थवाद पर आदर्शवाद प्राय: हावी रहा जिसके चलते वह ‘रियल पॉलिटिक्स’ से दूर रही। परिणाम यह हुआ कि भारत न तो दुनिया के प्रमुख देशों के साथ प्रतियोगिता में आगे निकल पाया और न ही वह एक ऐसी ताकत बन पाया जिससे कि वह अपने परंपरागत दुश्मनों में भय पैदा कर सके। चूंकि नरेन्द्र मोदी की छवि एक कट्टर राष्ट्रवादी एवं सख्त प्रशासक की थी इसलिए उनके प्रधानमंत्री बनने के साथ ही यह उम्मीद की गयी थी कि भारत में अब ‘रियल पॉलिटिक्स’ एवं ‘प्रो-एक्टिव’ आधारित विदेश नीति अथवा ‘इंडिया सेंट्रिक’ विदेश नीति की शुरुआत होगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं ही ‘फास्ट ट्रैक’ की विदेश नीति का संदेश दिया जिसमें ‘नेबर्स फस्र्ट’ और ‘एक्ट ईस्ट’ जैसी विशेषताएं शामिल थीं। उन्हें विदेशी धरती पर भारतीयों को एकजुट करने के संबंध में रॉकस्टार कहकर संबोधित किया गया, भले ही इसके अर्थ न समझे गये हों। तीन वर्षों में नरेन्द्र मोदी ने अपने पहले के प्रधानमंत्रियों के मुकाबले विदेश यात्राओं में काफी इजाफा किया जिससे नीतिगत शिथिलता सक्रियता में बदलती तो दिखी लेकिन अब भारत पुन: उसी स्थिति में पहुंचता हुआ दिख रहा है जहां वह तीन साल पहले खड़ा था, बल्कि कुछ मामलों में तो और पीछे खिसका दिखायी दे रहा है। फिर प्रधानमंत्री मोदी के तीन वर्षों के कार्यकाल में भारतीय विदेश नीति को किस नजरिए से देखा जाए, यह उस समय सबसे बड़ा प्रश्न बन जाता है जब सरकार स्वयं अपनी उपलब्धियों के लिए जश्न मना रही हो?
आज जब हम एक ग्लोबल डिजिटल व्यवस्था का हिस्सा बन चुके हैं, तब हमें यह मानकर चलना चाहिए कि हमारी नीतियां सिर्फ आंतरिक कारकों से प्रभावित नहीं होंगी बल्कि उसमें बाह्य कारकों की भूमिका निर्णायक होगी। यह अलग बात है कि भारत में राजनीतिक क्षमता का अधिकांश हिस्सा घरेलू राजनीति के लोकप्रिय लेकिन छद्म पक्षों को प्रमाणित और स्थापित करने में खप जाता है। यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी अच्छी तरह से जानते हैं और उसका प्रयोग भी बेहद सजग होकर करते हैं। हमारे देश के सम्भ्रांत वर्ग से लेकर मीडिया तक, घरेलू राजनीति से जुड़े विषयों को ही प्रश्रय व प्रोत्साहन देते हैं। अब तो एक आसन्न खतरा और भी है क्योंकि मीडिया अब सरकार के कार्यों की ईमानदारी से समीक्षा नहीं करती है या यूं कहें कि वह अपना धर्म भूल चुकी है। सरकार के प्रयासों की स्वस्थ समीक्षा जरूरी होती है ताकि सरकार के श्रेष्ठ इनीशिएटिव्स लोगों के समक्ष लाए जा सकें और गलतियों पर सरकार को उपयुक्त सुझाव दिया जा सके। आज जब भारत की सुरक्षा, विकास, ज्ञान, संस्कृति, समाज और यहां तक कि सामाजिक-पारिवारिक रिश्ते भी वैश्विक परिवर्तनों व नवविकासों से प्रभावित हो रहे हों, तब देश से बाहर निर्मित हो रहे कारक कहीं अधिक निर्णायक एवं महत्वपूर्ण हो जाते हैं। ऐसे में वैदेशिक संबंधों से जुड़े विषय प्राय: प्रथम वरीयता के विषयों के रूप में दिखने चाहिए। हालांकि ऐसा होता नहीं है। जवाहरलाल नेहरू से लेकर अब तक के समय को देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि भारतीय विदेश नीति भारत के प्रधानमंत्रियों के व्यक्तित्वों के अनुसार ही कमजोर, मजबूत अथवा आक्रामक या शिथिल, आदर्शवादी या फिर व्यवहारिक रही। अभी तक मोदी के व्यक्तित्व को जिस तरह से पेश किया गया है या मोदी ने स्वयं ही अपने आपको पेश किया उससे दो बातें समझ में आ रही हैं। पहली यह कि वे अपने आपको एक प्रभावशाली आक्रामक व्यक्तित्व के रूप में पेश करते हैं और स्वीकार भी कराना चाहते हैं। दूसरी यह कि वे परंपरागत विदेश नीति के ट्रैक को अपनी संवाद कला के साथ-साथ कुछ प्रचारात्मक तरीकों एवं सांस्कृतिक-आध्यात्मिक आधार पर बदलने की कोशिश कर रहे हैं। यही वजह है कि प्रथम दृष्टया तो यह लगता है कि भारत की विदेश नीति अपना ट्रैक बदल रही है लेकिन तथ्यात्मक एवं परिमाणात्मक स्केल पर क्या ऐसे साबित नहीं हो पा रहा है।
गत तीन वर्षों में सरकार द्वारा वैदेशिक संबंधों को जिन छोरों तक पहुंचाया गया और जिस ट्रैक पर परिचालित या जिन आयामों पर आश्रित किया गया, उनमें कुछ या बहुत कुछ नया था अथवा नहीं इसके लिए कुछ बिंदुओं पर ध्यान देना जरूरी होगा।
1- प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति ‘नेबर्स फस्र्ट’ से आरम्भ हुयी थी लेकिन आज पाकिस्तान जहां तीन वर्ष पहले खड़ा था, उससे कहीं अधिक पीछे खिसक गया है जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सारे दायरे तोड़कर लाहौर की यात्रा की और अपने पाकिस्तानी समकक्ष के घर तक गये। यही नहीं पाकिस्तान ने इस बीच न ही दोस्ताना निभाया और न वह भारत से दबकर चला बल्कि आतंकियों के जरिए उसने सीधे भारतीय सेना को चुनौती देना शुरू कर दिया, जिसमें वह बहुत हद तक सफल भी रहा। भारतीय सेना द्वारा की गयी सर्जिकल स्ट्राइक अथवा नौशेरा सेक्टर में की गयी सैन्य कार्रवाई को बेहतर उपलब्धि के रूप में देखा जा सकता है परंतु यह कोई नयी बात नहीं है भारत की सेना इस तरह के डीप ऑपरेशन पहले भी करती रही है। हां इस बार इसे पब्लिक डोमेन में लाया गया और इसका राजनीतिकरण किया गया है, जिसके अपने किस्म के कुछ जोखिम भी हैं।
बांग्लादेश के साथ लैंड बाउंड्री एग्रीमेंट और न्यूक्लियर एग्रीमेंट के साथ कुछ नजदीकियां और बढ़ी हैं। यही नहीं भारत बांग्लादेश को लॉजिस्टिक सपोर्ट देकर बेहतर रिश्ते बनाए रखना चाहता है लेकिन तीस्ता पर समझौता न हो पाने के कारण शेख हसीना वाजेद सरकार की बांग्लादेश में आलोचना भी हो रही है। यह स्थिति बांग्लादेश को चीन की ओर झुकाव बनाने के लिए विवश कर रहा है। चटगांव बंदरगाह के विकास में चीन की भागीदारी और भारत के विरोध के बावजूद चीन के ‘वन बेल्ट वन रोड’ समिट में बांग्लादेश का शामिल होना यह साबित करता है कि भारत बांग्लादेश के रिश्तों के बांध इतने मजबूत नहीं कर पाया है, जितने कि होने चाहिए। श्रीलंका पिछले कुछ दिनों में चीन से दोस्ती के मामले में कुछ पीछे हटा था, इसलिए नहीं कि इसकी वजह भारतीय नेतृत्व है बल्कि इसलिए क्योंकि श्रीलंका का नया नेतृत्व चीनी दुष्प्रभावों को पहचान गया था लेकिन अब उसने पुन: चीन को इन्फ्रा प्रोजेक्ट्स में निवेश की अनुमति दे दी है।
नेपाल भारत के काफी करीब आकर काफी दूर चला गया है बल्कि पहली बार वहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी नेपाल यात्रा के दौरान कहा था कि ‘भारत और नेपाल के बीच गहरे और नजदीकी रिश्ते हैं। नेपाल परेशान रहेगा तो भारत चैन की नींद नहीं सो सकता। हमारे बीच ज्यादा दूरी नहीं है, फिर भी यहां आने में 17 साल लग गये़.़.़.़.़.़।’ उस समय ऐसा लगा था कि प्रधानमंत्री के ये शब्द नेपाल को भावनात्मक रूप से स्पंदित करेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बल्कि नेपाल में आए भूकम्प के समय मदद करने में भारत ने ऐसी तत्परता दिखायी मानो नेपाल भारत का एक इंटीग्रल पार्ट हो लेकिन मधेसी आंदोलन के समय नेपाल की सोशल मीडिया पर ‘गो बैक इंडिया’ और ‘बैक ऑफ इंडिया’ का उछलना यह दिखाता है कि काठमांडू की संवेदनाशीलता नई दिल्ली के प्रति उतनी नहीं है जितनी की नई दिल्ली की है। कुल मिलाकर नेपाल बीजिंग की ओर मुंह किए हुए दिख रहा है। मालदीव इस दौर में भारत से कुछ दूर गया है और अफगानिस्तान को भारत अभी पाकिस्तान की दबाव परिधि से निकालकर बाहर नहीं ला पाया है।
2- चीन इस समय अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक और र्आिथक व्यवस्था को अपने हितों के अनुरूप व्यवस्थित करने की प्रबल इच्छा से सम्पन्न दिख रहा है। इसे विशेषकर दो संदर्भों में देखा जा सकता है। प्रथम अफ्रीकी एवं लैटिन अमेरिकी देशों को दिए जाने वाले भारी कर्जों, एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) की स्थापना के रूप में और द्वितीय ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव’। पाकिस्तान के साथ चीन के रिश्ते भारत को नियंत्रित रखने के उद्देश्य से परे जा चुके हैं। चीन स्ट्रिंग ऑफ पल्र्स के जरिए भारत को घेरने में बहुत हद तक कामयाब हो चुका है। उल्लेखनीय है कि चीन ने स्ट्रिंग ऑफ पल्र्स के कुछ मोतियों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है विशेषकर ग्वादर (पाकिस्तान), हम्बनटोटा (श्रीलंका) जबकि कुछ के मामले में आगे की ओर बढ़ रहा है विशेषकर मारओ (मालदीव), चटगांव (बांग्लादेश), सित्तवै (म्यांमार), क्रॉ नहर (थाईलैण्ड), रेएम एवं सिंहनौक्विलै (कम्बोडिया)। एनएसजी में प्रवेश सम्बंधी विषय पर चीन का तर्क है कि भारत इस समूह में प्रवेश पाने की योग्यता नहीं रखता क्योंकि उसने एनपीटी (परमाणु अप्रसार संधि) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। यही नहीं सीमा पार आतंकवाद पर भी चीन पाकिस्तान का बचाव करता है। अभी हाल की घटनाओं को लें तो मार्च 2016 में भारत ने जैश-ए-मुहम्मद की आतंकी गतिविधियों और पठानकोट हमले में अजहर मसूद की भूमिका से जुड़े पक्के सबूत दिए और कहा कि वर्ष 2001 से जैश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की प्रतिबंधित सूची में शामिल है क्योंकि वह आतंकी संगठन है और उसके अल-कायदा से लिंक हैं लेकिन तकनीकी कारणों से जैश के मुखिया अजहर मसूद पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सका। इस तर्क पर सुरक्षा परिषद की कमेटी के 15 में से 14 सदस्य सहमत हुए लेकिन चीन ने यह तर्क देते हुए कि ‘हम एक वस्तुनिष्ठ और सही तरीके से तथ्यों और कार्यवाही के महत्वपूर्ण नियमों पर आधारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद समिति के तहत मुद्दे सूचीबद्घ करने पर ध्यान देते हैं जिसकी स्थापना प्रस्ताव 1267 के तहत की गयी थी’ अजहर मसूद मामले पर वीटो कर उसे प्रतिबंधित सूची में जाने से बचा लिया। कुल मिलाकर नरेन्द्र मोदी आरम्भ में शी जिनपिंग के साथ बेहतर रिश्तों का रोडमैप प्रस्तुत कर रहे थे लेकिन अब जब चीन ‘सीपेक’ को पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर होकर ले जाने के मसले सफल हो रहा है तो यह मान लेना चाहिए कि चीन भारत की संप्रभुता को सीधी चुनौती दे रहा है।
3- प्रधानमंत्री मोदी ने शुरुआत से ही अमेरिका के प्रति विशेष दिलचस्पी दिखायी और यह संदेश देने की कोशिश की कि अमेरिका अब भारत का स्ट्रैटेजिक पार्टनर बनना चाहता है। यही नहीं कई मामलों में प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका के सामने समर्पण की मुद्रा में भी दिखे विशेषकर ‘सिविल लॉयबिलिटी न्यूक्लियर एक्ट’ में क्षतिपूर्ति की राशि तथा अमेरिका के साथ हुए लॉजिस्टिक करार के मामले में। लेकिन अब अमेरिका पुन: पाकिस्तान की ओर खिसकता दिख रहा है। ट्रंप की वक्तव्यों की ओर ध्यान दें तो पता चलता है कि ट्रंप एच-1बी वीजा के जरिए भारतीय युवाओं के रोजगार पर हमला करेंगे। पाकिस्तान के प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो द्वारा जारी रीडआउट से पता चलता है कि ट्रंप पाकिस्तान के प्रति अपनी मनोदशा बदल चुके हैं और आने वाले समय में वे पाकिस्तान को चीन के खिलाफ खड़ा करने के लिए आर्थिक व रक्षात्मक मदद दे सकते हैं। हालांकि ट्रंप की विदेश नीति में अनिश्चितता के कारण भारत किसी स्थायी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकता है।
4- यूरोप अपने आर्थिक दबावों से गुजर रहा है और ब्रिटेन, फ्रांस व जर्मनी भारत के रक्षा बाजार की ओर बेहद उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे हैं। ऐसे में भारत को कोई स्ट्रैटेजिक सहयोग नहीं कर पाएंगे हां भारत के रक्षा बाजार के जरिए अपने मिलिट्री इंडस्ट्री को जीवंतता प्रदान करने का प्रयास अवश्य करेंगे। रही बात रूस की तो, भले ही भारत अभी तक उससे लगभग 60 प्रतिशत रक्षा उपकरण या उनसे जुड़ी सामग्री/तकनीक खरीदता हो लेकिन रूस अब भारत के साथ उस तरह से नहीं खड़ा है, जैसा कि हुआ करता था। बल्कि जिस तरह से वह पाकिस्तान को फाइटर्स बेचने के संकेत दे चुका है, उससे यही लगता है कि रूस अब भारत का परम्परागत मित्र नहीं रह गया।
फिर किस निष्कर्ष पर पहुंचा जाए? भारतीय विदेश नीति के सामने आतंकवाद एक और गंभीर चुनौती है क्योंकि वैश्विक आतंकवाद नये अवतार में है और पहले की अपेक्षा ताकतवर भी। इस्लामिक स्टेट अलकायदा से अधिक ताकतवर और तकनीक युक्त आतंकवादी संगठन है। उसके एक प्रवक्ता के अनुसार वह डर्टी बम भी हासिल कर चुका है जिसके जरिए लंदन और वाशिंगटन को धमकी भी दे रहा है। भारत भी उसके निशाने पर है। पाकिस्तान में आइसिस अपनी पैठ बना चुका है और अब इस बात की संभावना अधिक है कि आइसिस के लड़ाके पाकिस्तान होते हुए भारत में घुसने की कोशिश करें। आइसिस के खिलाफ भारत सीधे नहीं लड़ सकता इसलिए उसे अमेरिकी मुहिम का हिस्सा बनना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में भारत अमेरिकी गुट का एक हिस्सा होगा जो भारतीय विदेश नीति प्रतिमानों के खिलाफ है। हालांकि भारत के लिए अभी-भी पाकिस्तानी आतंकवाद ही सबसे बड़ा खतरा है, जिस पर वैश्विक दबाव बनाकर ही भारत काबू कर सकता है। लेकिन यह तभी संभव है जब भारत पाकिस्तान के विरुद्घ दुनिया के देशों को लामबंद करने में सफल हो जाए। लेकिन क्या भारत अभी तक ऐसा कर पाया है ? भारत ने पाकिस्तान को विश्व मंच पर अलग-थलग करने की बहुत कोशिश की लेकिन क्या ऐसा कर पाया? बिल्कुल नहीं बल्कि सऊदी अरब द्वारा स्थापित इस्लामी मिलिट्री एलायंस का प्रमुख पाकिस्तान के रिटायर्ड जनरल राहिल शरीफ को बनाया गया है। यानि अब वह आतंकवाद के खिलाफ लड़ेगा जो स्वयं आतंकवाद का सर्जक है।
फिलहाल भारत सरकार को निम्नलिखित क्षेत्रों में निर्णायक कदम उठाने होंगे -1़ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी दर्जा प्राप्त करने के लिए जी-4 को सक्रिय करना। 2़ अमेरिका से बराबरी के आधार पर रिश्ते कायम कर 21वीं सदी में भारत का स्थान सुनिश्चित करना। 3़ पाकिस्तानी हरकतों पर अंकुश लगाने के लिए विश्व जनमत तैयार करना। 4़ चीन-पाकिस्तान जुगलबंदी को कमजोर करना। 5़ रूस-यूरोप टकराव से स्वयं को बचाते हुए परम्परागत मित्र रूस से दूरी बनाने से बचना। 6़ हिन्द महासागर और प्रशांत महासागर में चीन और अमेरिका द्वारा पैदा की जा रही हलचल के परिणामों से भारत को बचाए रखना। 7़ दक्षिण एशिया के अपने पड़ोसियों को अपने बिग ब्रदर होने का एहसास अपने दायित्वों के जरिए दिलाना होगा ताकि इस क्षेत्र में चीन की महत्वाकांक्षाओं के पलने के लिए मिलने वाली जगह को उधर जाने से रोकना। 8़ यह तय करना होगा कि मध्य एशिया में उभरते हुए नये खतरों से वह किस तरफ निपटेगा और 9़ साइबर युद्घ के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। कुल मिलाकर पिछले तीन वर्षों में विदेश नीति में सक्रियता दिख रही है लेकिन अभी स्थायी उपलब्धि कहना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।