जम्मू—कश्मीर में खाली होते गए घर, भाषणों तक सीमित रहा भाईचारा, बहन बेटियों को लिखे अपशब्द
नई दिल्ली : 19 जनवरी 1990 का वो दिन और इतिहास फिर कटघरे में। आज ही के दिन कश्मीरी पंडितों की काली यादों के तीस साल पूरे हो रहे हैं। सामने इसी दिन कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ने का फरमान सुनाया गया था। जिन घरों में उन लोगों की किलकारियां गूंजी, जिनमें उन्होंने लोरियां सुनी, पुरखों की निशानियां, यार-दोस्तों से जुड़ी यादें सब एक एक झटके में बहुत पीछे छूट गए। पुनर्वास योजना के तहत पिछले तीस सालों में सिर्फ एक परिवार कश्मीर लौटा है तो किसी में अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद वापस लौटने की आस जगी। कश्मीर में आतंकवाद का दौर शुरू होने से पहले वादी में 1242 शहरों, कस्बों और गांवों में करीब तीन लाख कश्मीरी पंडित परिवार रहते थे। फिर 242 जगहों पर सिर्फ 808 परिवार रह गए। आतंकवादियों के फरमान के बाद कश्मीर से बेघर हुए कश्मीरी पंडितों में से सिर्फ 65 हजार कश्मीरी पंडित परिवार जम्मू में पुनर्वास एवं राहत विभाग के पास दर्ज हुए। राज्य की सत्ता चंद लोगों के हाथ में रही और उन्होंने कभी पंडितों की घर वापसी के लिए कोई प्रयास नहीं किए। कश्मीरी पंडितों से भाईचारा केवल भाषणों तक ही रहा और लाखों परिवार तीन दशक तक वही दर्द झेलते रहे। बहन-बेटियों के बारे में अपशब्द लिखे जाते थे मैं 18 साल का था जब कश्मीर छोड़ने का एलान हुआ और हम घर के साथ पुरानी यादों को छोड़कर चल दिए। करते भी क्या..हमारी बहन-बेटियों के बारे में दीवारों पर अपशब्द लिखे जाते थे। घरों पर पत्थर फेंके जाते थे। जान बचाते या घर। सब कुछ याद करके आज भी रूह कांप जाती है। अब जगी उम्मीद अनुच्छेद 370 के कारण एक सेक्यूलर भारत में कश्मीर इस्लामिक राज्य की तरह बन गया था। अब देश का संविधान लागू होने के कारण हमें उम्मीद जगी है कि हमारे भी अच्छे दिन लौट सकते हैं। केंद्र से अपेक्षा है कि हमें अपनी धरती पर बसाने के लिए ठोस निर्णय लेगी और कश्मीरी पंडितों की सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी। प्रधानमंत्री पैकेज के तहत कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के लिए करीब छह हजार नौकरियां देने की घोषणा हुई थी। तत्कालीन राज्य सरकार की ढुलमुल नीति के कारण लगभग 2200 पदों पर ही नियुक्तियां हुई हैं। जिन पदों पर नियुक्तियां हुईं है वो लोग भी अपने परिवारों को कश्मीर नहीं ले जा पाए हैं। या तो उनकी संपत्ति और बगीचों पर कब्जा हो चुका है या फिर उन्हें जला दिया गया है।
पैकेजों के तहत साल 2015 में सिर्फ एक ही कश्मीरी पंडित परिवार बीते 30 सालों के दौरान कश्मीर लौटा है। 1980 के बाद बदल चुका था। रूस अफगानिस्तान पर चढ़ाई कर चुका था और अमेरिका उसे वहां से निकालने की फिराक में था। इसके लिए अफगानिस्तान के लोगों को मुजाहिदीन बनाया जाने लगा। जब पुलिस ने कार्रवाई की तो कुछ मुसलमानों के मारे जाने पर कहा जाने लगा कि कश्मीरी काफिर दुश्मन हैं। कश्मीर में करीब 5 प्रतिशत पंडित थे। हालांकि कई जगह 15-20 प्रतिशत तक भी कहा जाता है। 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने बहनोई फारुख अब्दुल्ला से सत्ता छीन ली और मुख्यमंत्री बन गये। एलान हुआ कि जम्मू के न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया में एक पुराने मंदिर को गिराकर मस्जिद बनवाई जाएगी तो लोगों ने प्रदर्शन किया। जवाब में कट्टरपंथियों ने नारा दे दिया कि इस्लाम खतरे में है। इसके बाद कश्मीरी पंडितों पर धावा बोल दिया गया। 4 जनवरी 1990 को उर्दू अखबार आफताब में हिजबुल मुजाहिदीन ने छपवाया कि सारे पंडित कश्मीर छोड़ दें। चौराहों और मस्जिदों में लाउडस्पीकर लगाकर कहा जाने लगा कि पंडित यहां से चले जाएं। अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाएं। इसके बाद हत्याएं और दुष्कर्म की घटनाएं सामने आने लगीं। कश्मीरी पंडित चाहते हैं कि उनके लिए कश्मीर में एक अलग होमलैंड बने जिसे केंद्र शासित राज्य का दर्जा मिले। राज्य के सभी सियासी दल इसका विरोध करते हैं। कांग्रेस और भाजपा भी प्रत्यक्ष रूप से इसकी समर्थक नजर नहीं आती। अगर यह संभव न हो तो राज्य में उनको एकसाथ बसाया जाए ताकि वह अपनी संस्कृति और धार्मिक मान्यताओं को जीवित रख सकें।