जुटे दुनिया भर के “हिन्दी सेवी”
दुखियारी हिन्दी की तीमारदारी
पाल में सरकारी ठाट-बाट और पूरी शानोशौकत के साथ आयोजित दसवां विश्व हिन्दी सम्मेलन संपन्न हो गया। इसमें 39 देशों से आए प्रतिनिधियों ने शिरकत की। वैसे तो आयोजन हिन्दी को विश्व पटल पर अव्वल बनाने के उद्देश्य को लेकर था। देश-विदेश के करीब साढ़े पाँच हजार हिन्दी प्रेमियों ने तीन दिन तक चले इस भव्य समागम में दीन-हीनों की भाषा के तौर पर पहचानी जाने वाली हिन्दी पर खूब बौद्धिक जुगाली की। करोड़ों रुपए फूंक कर मजमा जुटाया गया था, लिहाजा दर्जनों अनुशंसाओं और संकल्पों की रस्म अदायगी भी हुई। वही घिसी-पिटी सिफारिशें, जो पिछले नौ सम्मेलनों में विचार-विमर्श के बाद तैयार की गई थीं, एक बार फ़िर दोहराई गईं। शब्दों के हेरफ़ेर, मगर बातों का लब्बो-लुआब वही। दुनिया भर से जुटे प्रतिनिधियों ने हिन्दी के विकास में हमराह बनने का ‘समूह गान’ किया।
हिन्दी के नाम पर झीलों की नगरी भोपाल में पाँच सितारा तमाशा हुआ और खूब जमकर हुआ। वैसे तो देश में सितम्बर माह को राजभाषा हिन्दी के नाम पर ’खर्च’ करने की परम्परा चली आ रही है, मगर राजधानी के लाल परेड ग्राउण्ड पर हुए इस भव्य आयोजन पर सियासी रंग कुछ इस कदर चढ़ा कि मूल मकसद कहीं गुम हो कर रह गया। यूँ लगा मानों “जगत मामा” के दामन पर लगे व्यापमं के दाग धोने के लिए मौका लपक लिया गया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का सिर्फ एक ही मकसद रहता है राष्ट्रीय नेताओं को साधो और अपनी कुर्सी सलामत रखो। एक तरह से उन्होंने विश्व हिन्दी सम्मेलन के बहाने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विश्वास हासिल करने का हरसंभव प्रयास किया।
तमाम कोशिशों के बावजूद सम्मेलन हिन्दी पर आकुल-व्याकुल विमर्श से ज्यादा अपनी-अपनी ताकतों के प्रदर्शन का तमाशा लगा। अत्याधुनिक साज-सज्जा वाले पंडाल में सजी महफ़िल में सब अपनी ताकत की नुमाइश सजाए बैठे थे। अपने-अपने लक्ष्यों के साथ नरेन्द्र मोदी भी थे और अनिल माधव दवे भी। व्यापमं के बवंडर में फंसी कुर्सी को किसी तरह बचाने में कामयाब रहे शिवराज सिंह इस अवसर का सियासी लाभ बखूबी लेते दिखाई दिए। एक ओर विश्व हिन्दी सम्मेलन के बहाने प्रधानमंत्री मोदी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए पूरे शहर को मोदीमय कर दिया, वहीं छोटे-बड़े समाचारपत्रों और अन्य प्रचार माध्यमों के जरिए मोदी की खुशामद में बिछ-बिछ गए।
हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशनों से लेकर शहर तक चप्पे-चप्पे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीरों वाले विशाल पोस्टर हफ्ते भर पहले से लगा दिए गए। खम्भों पर भी मोदीजी के पोस्टर चस्पा थे। इनकी तादाद सैकड़ों में रही होगी। अधिकांश पोस्टर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की ओर से थे- शहर में मोदीजी के स्वागत वाले। अनेक में शिवराज की छवि भी अंकित कराई गई। आयोजन की धुरी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज एक भी पोस्टर में मौजूद नहीं थीं। सवाल उठे- उनका स्वागत क्यों नहीं?
शहर में मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री की बेशुमार तस्वीरों के साथ अपनी फ़ोटो चस्पा करने का तोड़ कुछ यूँ निकाला- इस किस्म के पोस्टर “हिन्दी प्रेमी संगठन, मध्य प्रदेश” के नाम से लगाए गए। मजे की बात यह रही कि शहर में तमाम लेखकों और जमीनी पत्रकारों ने इस संगठन का नाम विज्ञापन छपने के बाद ही सुना। यानी वास्तव में इसका कोई अता-पता नहीं! खम्भों पर तुलसी, कबीर, प्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी जैसी अनेकानेक विभूतियों के पोस्टर जरूर लगे, लेकिन एक भी विभूति का पोस्टर नरेंद्र मोदी के कद का नहीं था। हिन्दी सम्मेलन के नाम पर हिन्दी की विभूतियों का इससे बड़ा अपमान क्या होगा? राज्य सरकार द्वारा हिन्दी सम्मेलन का मोदीकरण शर्मनाक प्रहसन बन कर रह गया। उस पोस्टर-बैनर पर दर्ज भाषाई त्रुटियों ने मजा किरकिरा कर दिया। फ़िल्मों से प्रेरणा लेने वाले आधुनिककाल के ज्ञानीजनों को शायद आमिर खान और अमीर खुसरो के बीच का फ़र्क भी नहीं मालूम, तभी तो पोस्टर पर आमिर खुसरो लिख डाला। ये भी ध्यान दें कि इन पोस्टरों का खर्च भी मय ब्याज के जनता से ही वसूला जाएगा। ये सारे आयोजन अपने अपनों को पैसा बाँटने के जालसाज़ी के माध्यम हैं।
वैसे तो विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजक विदेश मंत्रालय का था और राज्य सरकार की थी, लेकिन इसे भाजपा ने हाईजैक कर लिया। विशुद्ध सरकारी आयोजन पर पूरी तरह भाजपा का कब्जा रहा। सम्मेलन की कामयाबी का सेहरा भी भाजपा के सिर बाँधा गया। आगाज से लेकर अंजाम तक इंतजामात की कमान भाजपा नेताओं के हाथों में रही, सरकारी अफ़सर और मुलाजिम ’कम्पनी बहादुरों’ के हुक्म की सिर्फ तामील करते रहे। कई वरिष्ठ साहित्यकार एक-दूसरे से पूछते देखे गए- “यह विश्व हिन्दी सम्मेलन हो रहा है या भाजपा का कोई अधिवेशन?”
सत्ता और संगठन का जिम्मा राज्यसभा सदस्य अनिल माधव दवे को सौंपा गया था। शायद इसीलिए उनकी टीम ने आयोजन को पूरी तरह अपने नियंत्रण में लेना जरूरी समझा। यहाँ तक कि कुछ व्यवस्थाओं में तो अफ़सरों को पूरी तरह किनारे कर दिया गया। भाजपा नेताओं की कार्यशैली और उनके तौर तरीकों को अच्छी तरह समझने वाले कई अफसरों ने सिर झुका कर “हुक्म बजा लाने” में ही अपनी बेहतरी समझी। सम्मेलन में शिरकत कर लौटे स्थानीय साहित्यकारों और हिन्दी प्रेमियों का कहना था कि बाहर से आने वालों में से कुछ भगवा मानसिकता के साथ आए थे, तो कुछ उल्टे पैर चलने वाली वाम विचारधारा को ओढ़े हुए थे। न खुला मन था, न खुला विचार। सबका बंधा मन था और बना मन था। हिन्दी सम्मेलन का सबसे बड़ा और धमाकेदार पाखंड था, सारा सरकारी कामकाज हिन्दी में करने का संकल्प। मध्य प्रदेश मूल रूप से हिन्दीभाषी राज्य है। हिन्दी को ओढ़ने-बिछाने वाले प्रदेश में इस तरह का प्रण हास्यास्पद और बेतुका नहीं तो क्या है? कोई बता सकता है कि मध्य प्रदेश सरकार के कौन से काम अंग्रेजी में होते हैं? हिंग्लिश के इस दौर में भी सारा कामकाज बाबा आदम के जमाने की हिन्दी में होता है। फिर भला, ये संकल्प क्यों? उस पर तुर्रा यह कि मंच से नेताओं ने कह दिया कि साहित्यकारों का हिन्दी से क्या लेना-देना? हमने तो सिर्फ हिन्दी-सेवियों को बुलाया है। गोया कि हिन्दी भाषा ना हुई बीमार-लाचार दुखियारी बूढ़ी माँ हो गई। किसी भी भाषा का परम उत्कर्ष उसके साहित्य में ही होता है। साहित्य से विरत होकर कौन सी भाषा महान बनी है? लगभग तीस साल बाद भारत में हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन से बहुत आशाएँ थीं। विदेशों में होने वाले विश्व हिन्दी सम्मेलनों से इतनी उम्मीद कभी नहीं रही, क्योंकि सबको पता रहता है कि वे तो सैर-सपाटा सम्मेलन ही होते हैं। मगर इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ। पद्मश्री से अलंकृत प्रदेश के कई साहित्यकारों को इस भव्य आयोजन से दूर रखा गया। सच पूछिए तो सम्मेलन में शिरकत करने वाले हिन्दी के पैरोकारों से लम्बी सूची उन लोगों की रही, जो न्योते मेहमानों के चयन पर सवाल उठा रहे थे। देशी तो छोड़ें, न्योते गए विदेशी मेहमानों के कुनबे को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। तेरह सौ मेहमानों की सूची माँगने की तैयारी चल रही है। कहा तो यह भी जा रहा है कि कई देशी रिश्तेदारों और परिचितों को सम्मेलन में विदेशी बना कर पेश किया गया। क्या हकीकत की पड़ताल नहीं होनी चाहिए?
प्रधानमंत्री के स्वागत में भावविभोर शिवराज सिंह चौहान ने गुजरात, मध्य प्रदेश और हिन्दी के बीच कुछ ऐसा नाता जोड़ा कि वाकई मजा ला दिया; वे बोले- “अस्सी वर्ष पहले एक महात्मा गाँधी हिन्दी के लिए गुजरात से मध्य प्रदेश आए थे, दूसरे नरेंद्र मोदी हिन्दी के लिए यहाँ आए हैं, वे भी गुजरात से हैं … गुजरात से मध्य प्रदेश का गहरा संबंध है! शिवराज ने विशेषणों की भी बहार पैदा कर दी। उधर मोदी भी कहाँ चूके। चाय बेचने वाले की धूल-धूसरित होती छबि को एक बार फ़िर हिन्दी के जरिए लोगों के दिलोदिमाग पर धो-पोंछ कर ताजा कर दिया। लोगों को बताया कि किस तरह उन्होंने दूध का धंधा करने वाले उत्तर प्रदेश के व्यवसायियों से शुद्ध हिन्दी बोलना सीखा।
बेशक आयोजन तो बहुत भव्य था और इसमें बीजेपी को महारत भी हासिल है। लेकिन विभिन्न सत्रों में आईं दो सौ से ज्यादा अनुशंसाओं और तमाम विमर्शों के निष्कर्षों पर आगे कैसे बढ़ा जाएगा, उन पर कैसे अमल होगा, इसका कहीं कोई जिक्र नहीं किया गया। इस सब पर कितना खर्च होगा और बजट का इंतजाम कैसे होगा, इसकी कोई बात ही नहीं हुई। तीन दिन के आयोजन में बस ऐसा लगा कि यह किसी सियासी दल की प्रचार सभा हो या फ़िर कोई हाईटेक मेला। जहाँ लोगों की दिलचस्पी केवल सेल्फ़ी लेने में थी। गौर करना होगा कि आयोजन नीति प्रेरित था या राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि।
सरकार वास्तव में हिन्दी को रोजगार की भाषा बनाना चाहती है, इसे विश्व स्तर पर ले जाने को उत्सुक है, तो सबसे पहले इसे पूरे देश में प्रचारित और प्रसारित करने की जरूरत है। दूसरे देशों से पहले देश के दक्षिणी प्रांतों में हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ाना बड़ी चुनौती होगी। सरकार कहती है कि सब काम हिन्दी में होंगे, मगर कैसे? दरअसल अंग्रेजी के तमाम शब्द हमारे कार्य व्यवहार में कुछ इस तरह रच-बस चुके हैं कि उनके लिए हिन्दी के शब्द खोजना दुरुह कार्य है। साहित्यकारों और पत्रकारों का जैसा अपमान इस मौके पर किया गया, वो भी चौंकाने वाला रहा। किसी सत्र में पत्रकार प्रवेश नहीं कर सकते थे, फोटो लेने की मनाही थी, सत्रों की रिकॉर्डिंग पर रोक थी। वास्तव में वक्ताओं के नाम पर उपकृत किए गए करीबियों की कमजोरी को छुपाने के लिए ऐसा किया गया। लेखक तो सम्मेलन से बाहर थे ही, अगर यह सम्मेलन भाषा पर केंद्रित था तो इसमें भाषाविद् क्यों नहीं आमंत्रित किए गए?
कुल मिलाकर नेताओं और नौकरशाहों की दखल वाला यह आयोजन भव्य, मगर बेहद सतही और अदूरदर्शी समागम रहा। ल्ल
सरकार वास्तव में हिन्दी को रोजगार की भाषा बनाना चाहती है, इसे विश्व स्तर पर ले जाने को उत्सुक है, तो सबसे पहले इसे पूरे देश में प्रचारित और प्रसारित करने की जरूरत है। दूसरे देशों से पहले देश के दक्षिणी प्रांतों में हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ाना बड़ी चुनौती होगी। सरकार कहती है कि सब काम हिन्दी में होंगे, मगर कैसे?