नहीं था भगवा तूफान का अंदाजा
बृजेश शुक्ला
लखनऊ के भाजपा मुख्यालय में पार्टी के पदाधिकारी ने कुछ पत्रकारों को कक्ष के किनारे रखे एक फाइल की ओर इशारा किया और कहा कि यह सर्वे रिपोर्ट आयी है। चुनाव के बाद भी मैंने पूरी जानकारी इकट्ठा की है। यदि 300 सीटें पा जाएं तो आश्चर्य मत कीजियेगा। कुछ पत्रकारों को हंसी आ गई। यह कुछ ज्यादा ही हो गया। जब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने दो चरणों के मतदान के बाद यह दावा किया था कि 90 सीटें मिलेंगी, तब भी उनकी बात हवा में उड़ाई गई थी, लेकिन मिली 113 सीटें। समाजवादी पार्टी के एक नेता का फोन आया और पूछा कि क्या है चुनावी हालचाल। बिना लाग-लपेट के कह दिया कि लग रहा है कि भाजपा को भारी कामयाबी मिलेगी। वह थोड़ा चौंके क्या? वास्तव में क्या हम चुनाव हार रहे हैं। वह बोले कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जी के सामने कोई सपा गठबंधन को 300 के बजाय 299 सीटें मिलने की बात कह दे तो उसे कमरे से बाहर कर दिया जायेगा। मतदान के बाद बहुजन समाज पार्टी सरकार बनाने की तैयारी कर रही थी। ऐसा लग रहा था कि मानो वह सत्ता में आ गई हो। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश इतना भगवामय हो जायेगा, शायद भाजपा को यह कल्पना भी नहीं थी।
चुनावी सर्वे के लिए जब मैं दौरा कर रहा था, तब भी कुछ वरिष्ठ पत्रकारों से यह बताया था कि उत्तर प्रदेश में एक तूफान आने जा रहा है। इस तूफान में गैर भाजपा दलों के बड़े-बड़े दिग्गज धराशायी हो जायेंगे, लेकिन मीडिया के भी बड़े वर्ग को यह लहर भी उसी तरह नहीं दिख रही थी, जैसे 2014 में मोदी लहर नहीं दिखी थी। 403 में 325 सीटें पाकर एक ऐसे इतिहास की रचना हुई है, जिसे लोग चमत्कार जैसा मान रहे हैं। इस भगवा लहर के बाद भगवा वस्त्रधारी योगी आदित्य नाथ मुख्यमंत्री बन चुके हैं, लेकिन इस बात का आकलन जरूरी है कि यह प्रचंड लहर कहां से पैदा हुई, क्यों पैदा हुई और कैसे पैदा हुई। राहुल और अखिलेश की जोड़ी प्रदेश की जनता को क्यों नहीं पसंद आई। मायावती के मंसूबे कैसे ध्वस्त हुए। नोटबंदी ने क्या असर दिखाया।
पीलीभीत में एक चाय की दुकान पर बैठे सोबरन सिंह ने यह कह कर चौंका दिया था कि इस बार सपा के हाजी रियाज नहीं जीतेंगे। क्यों नहीं जीतेंगे? सोबरन के साथ बैठे लोग बोल पड़े कि चाहे मायावती हों या अखिलेश, उनकी सरकारों में सिर्फ उनके सजातीय लोगों की चलती है। अति पिछड़े मौर्या जाति के सोबरन यह बताना नहीं भूले कि यह सरकार एक जाति की है, या उससे कहीं ज्यादा मुसलमानों की है। आखिर यह संदेश कहां से चला गया? तिंदवारी के पास यमुना तट पर बैठे पप्पू निषाद ने पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि सब पिछड़े मोदी के साथ हैं, न कोई बहन जी के साथ है न कोई अखिलेश के साथ। ऐसा क्यों? पप्पू निषाद बताने लगे कि सबसे मोह भंग हो चुका है। बहन जी के साथ जाने का सवाल नहीं उठता, क्योंकि वह कहती है कि सिर्फ मुसलमान वोट दे दें, बसपा जीत जायेगी। फिर हम उन्हें क्यों वोट दें। अखिलेश ने हम लोगों के लिए कुछ किया नहीं, वो भी सिर्फ धर्म और जाति में फंसे रहे।
विपक्षी दलों को लगता था कि नोटबंदी चुनाव में बहुत बड़ा मुद्दा होगा और नोट बदलने के लिए लाइन में लगे लोग भाजपा के खिलाफ मतदान करेंगे। अतर्रा के पास बैठे कुछ ग्रामीणों से जब यही सवाल किया कि नोटबंदी में बहुत कष्ट हुआ और आप लोगों को नुकसान भी हुआ होगा, तो एक वृद्ध ने नया अर्थशास्त्र समझाया, वह चौंकाने वाला था। वृद्ध ने उल्टा पूछ लिया कि कष्ट तो आपको हुआ होगा। मेरे पास रुपये ही कहां है, जो कष्ट होता। मोदी ने जो किया ठीक किया, कालाधन समाप्त करने के लिए यह किया गया। लेकिन ज्यादातर पैसा तो बैंको में जमा हो गए फिर कहां मिला काला धन? उस वृद्ध ने बड़े ध्यान से मेरी ओर देखा और कहा जमीन में गड़ा हुआ सोना मिट्टी होता है और बोरों में भरा हुआ रुपया कागज। मोदी ने बोरो में भरे रुपये को नोट में बदल दिया। नोटबंदी बहुत बड़ा मुद्दा बना। लेकिन वह बीजेपी के पक्ष में चला गया। गोण्डा के बालपुर में एक सब्जी विक्रेता सजीवन यादव सवाल करते हैं कि रातोंरात लोग करोड़पति बन गये। दर्जनों गाड़ियों के मालिक हो गये। सरकारों ने पूछा तक नहीं कि यह रुपया कहां से ला रहे हो। बेचारे गरीब का चिंता कोहू का नहीं है। आप ही बताइये 70 साल में किस सरकार ने पूछा कि रुपया कहां से आया, मोदी ने पूछा तो रुपया आया कहां से, हिसाब दो।
गरीबों का यह तर्क क्या जायज नहीं है कि आखिर यह सवाल लोगों से क्यों नहीं पूछा गया कि यह अकूत धन कहां से आ रहा है। मोदी गरीबों के मसीहा बन चुके हैं, जिनके खिलाफ लोग सुनना नहीं चाहते। यह संदेश चला गया है कि मोदी सरकार की नीतियां गरीबों के पक्ष में हैं।
वास्तव में 2014 में उत्तर प्रदेश में जो मोदी लहर थी, वह कहीं से कमजोर नहीं पड़ी। यह आश्चर्य पैदा करता है कि ढाई साल में यह लहर कमजोर क्यों नहीं पड़ी, उलटे इसे मजबूती मिल गई। विपक्ष को यह समझना होगा कि जब तक वे मूल कारणों पर नहीं जायेंगे, तब तक अपनी स्थिति मजबूत नहीं कर सकते। यह कह देना बहुत आसान है कि साम्प्रदायिक आधार पर धु्रवीकरण हो गया, जबकि जमीन पर ऐसा कम दिखा। प्रधानमंत्री के श्मशान और कब्रिस्तान के बयान का असर जरूर था, लेकिन यह असर इतना तीखा नहीं था कि भाजपा के पक्ष में एक तूफान खड़ा कर दे। वास्तव में तमाम ऐसे कारक थे, जिसके कारण उत्तर प्रदेश में केसरिया लहर पैदा हुई। यह लहर इतनी प्रचंड थी कि उसने सपा को 47, बसपा को 19 और कांग्रेस को 07 सीटों में समेट दिया। कांग्रेस से बड़ा दल तो अपना दल गया, जिसने भाजपा से गठबंधन कर चुनाव लड़ा था। इस प्रचंड बहुमत के बल पर भाजपा का 14 साल का बनवास खत्म हुआ। लेकिन भाजपा के सामने और भी बड़ी चुनौतियां है। 2019 का लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहा है। यदि यह लहर बरकरार रहती है, तो विपक्ष को केन्द्र की सत्ता में आने का स्वप्न नहीं पालना चाहिए। हताश विपक्ष महागठबंधन की बात करने लगा है। यह महागठबंधन कैसा होगा इसके बारे में कोई कुछ नहीं कहता।
कांग्रेस के नेता मणिशंकर अय्यर जैसे नेताओं को लगता है कि यदि कांग्रेस, सपा और बसपा को भी जोड़ दिया जाये तो भाजपा को हराया जा सकता है। भाजपा भी समझती है कि निराश विपक्ष उसे हराने के लिए किसी हद तक जा सकता है। योगी आदित्यनाथ पर इसीलिए मोदी ने भरोसा किया हैं। उत्तर प्रदेश में महागठबंधन का रास्ता आसान नहीं है। बसपा और सपा का मेल बहुत कठिन है। यदि यह मिल भी जायें तब भी इनके मतदाता आपस में कितना मिलेंगे यह कहना कठिन है। फिलहाल एक चुनाव समाप्त होते ही दूसरे की तैयारियां शुरू हो गई है। लोकसभा चुनाव की गोटियां बिछाई जाने लगी हैं। ’