ज्ञानेंद्र शर्मादस्तक-विशेषफीचर्डराष्ट्रीयस्तम्भ

बड़ी मेहरबानी, करम

ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश

स्तम्भ: दो महीने के लॉकडाउन ने कई कमाल किए हैं और जिन कुछ लोगों को घर में इतने दिनों बंद रहना पसंद भी नहीं आया था, वे भी खुश हैं कि सड़कें सुहानी लग रही हैं, आसमान धुॅए से मुक्त है, दम नहीं घुट रहा है, अपराध घटे हैं, अनुशासन है और देशवासियों द्वारा अपने बीच शांति से एका कायम करने का अद्भुत संयम दिखाया है।

केन्द्रीय सरकार के मंत्रियों की तरह उत्तर प्रदेश के मंत्रियों ने भले ही कोई करतब न दिखाए हों, अपनी अकर्मण्यता से वे बाहर भले ही नहीं निकल पाए हों, विपक्षी नेता इस महामारी के काल में अपने को सही दिशा में भले ही न दौड़ा पाए हों लेकिन उनकी इस कमी को केन्द्र में प्रधानमंत्री मोदी ने और राज्य में मुख्यमंत्री योगी ने बखूबी ढक मूंदकर लॉकडाउन को एक सर्वमान्य राष्ट्रीय कार्यक्रम का रूप देने में सफलता पाई है।

अपने इन नेताओं को सलाम करना चाहिए वरना समुद्र पार तो मौत का आंकड़ा एक लाख छूने की बेला में अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप गोल्फ खेलते पाए गए हैं। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती क्योंकि अब इस लॉकडाउन के सुपरिणामों का नकदीकरण की एक बड़ी चुनौती सामने खड़ी है।

क्या हम इस हाल में पहुॅच पाएंगे कि इस लॉकडाउन के तमाम फायदों को एक राष्ट्रीय कार्यक्रम में बदल सकें? अब क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि लॉकडाउन के इन फायदों को एक बृहत् कार्यक्रम में बदल कर उसे अमल में लाने के लिए अत्यंत गंभीर, दृढ़ और पूरी तरह एकीककृत प्रयास होने चाहिए। एक नया कार्यक्रम बनना चाहिए और इसे 2021 वर्ष के प्रारम्भ से लागू करना चाहिए। यह मानकर चलना चाहिए कि इस सन् 2020 को तो कोरोना माई अपने चंगुल से मुक्त होने नहीं देंगी। इसलिए इस साल के परे सोचते हुए कार्यक्रम बनना चाहिए।

सर्व प्राथमिकता वाली बात पर सबसे पहले बात होनी चाहिए। लॉकडाउन में सब कुछ इतना सुहावना क्यों लगा था हमें, क्या इसकी वजह यह नहीं थी कि विस्फोट के हाल में पहुॅच रही देश की आबादी सिकुडती नजर आई थी। वह घरों में कैद हो गई थी और सड़कें खाली थी, बाजार खाली थे, मंदिर बंद थे, पर्यटन स्थल बंद थे, स्कूल कालेज बंद थे, रेलें बंद थीं, बसें बंद थीं, मेट्रो बंद थी, हवाई जहाज बंद थे। ऐसा लग रहा था कि देश की आबादी घटकर आधी रह गई है। तो फिर इस बात के गंभीर प्रयास क्यों न हों कि आबादी घटाई जाए और इस सीन को स्थायी भाव दे दिया जाय।

जनसंख्या विस्फोट रोकने का एक मात्र गंभीर प्रयास अब तक इमरजेंसी के दौरान ही में किया गया था। लेकिन इमरजेंसी के दौरान राजनीतिक नेताओं को निरुद्ध किया जाना और नसबंदी के नाम पर सरकारी मशीनरी द्वारा जोर-जबर्दस्ती की सभी सीमाएं लांघ जाने का सीधा परिणाम यह हुआ था कि राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता ने राजनीतिक प्रतिशोध का रूप धर लिया और परिवार नियोजन कार्यक्रम को जबर्दस्त आघात लगा। पंचायतों के चुनावों में जो दुश्मनी अब देखने को मिलती है, वह सत्ता के विकेन्द्रीयकरण के लिए लागू की गई पंचायत राज व्यवस्था के सच को आइना दिखाने के लिए पर्याप्त है और परिवार नियोजित न किया जा पाना उसकी सर्वप्रमुख विफलता है।

क्यों नहीं ऐसा होता कि परिवार नियोजन को अब कानूनी शक्ल दी जाय। संसद, विधानमण्डल, शहरी व ग्रामीण निकायों में दो बच्चों की सीलिंग को बहुत सख्ती से लागू किया जाय। ऐसे कानूनी प्रावधान हों कि खुद की जगह, बेटे को, बेटे की जगह बीबी को और परिवार के दूसरे सदस्यों को चुनाव मैदान में उतारकर परिवार नियोजन से किनारा कर लेने के तौर तरीकों पर तुरंत रोक लगे। दो बच्चों से अधिक के मॉ-बाप और दूसरे रिश्तेदारों को टिकट देने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता समाप्त करने के सम्पूर्ण अधिकार चुनाव आयोग में विहित किए जाएं। इसी तरह निर्दलीय के रूप में लड़ने वालों पर भी रोक लगे।

सरकारी और प्राइवेट नौकरियों तथा स्कूल कालेजों में भी भरती के लिए दो बच्चों की शर्त को अत्यंत कड़ाई से लागू किया जाय और इसके लिए सम्बंधित कानूनों में परिवर्तन किए जाएं और जरूरत हो तो नया कानून बने। राशन कार्ड, बन्दूक लाइसेंस, ड्राइविंग लाइसेंस, एक से अधिक वाहन का क्रय, शराब, पेट्रोल-डीजल, सिगरेट का क्रय, दो बैड रूम से अधिक के घरों की खरीद, टैक्सी, यात्री बस, बड़े कारखानों का स्वामित्व उन लोगों की पहुॅच से बाहर किया जाय जिनके दो से अधिक बच्चे हों।

दो बच्चों वालों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के गंभीर प्रयास हों। इस कार्य में धर्मग्रुरुओं, सामाजिक, जातीय, व्यवसायिक और शैक्षिक नेताओं की सक्रिय मदद लेने के प्रयास हों और सारे राजनीतिक दल इन कामों में एक छतरी के नीचे आएं। हम दो, हमारे दो के नारे जहॉ भी खो गए हों, उन्हें मुख्य मंच पर वापस लाया जाय।

भाजपा के सांसद साक्षी महराज जैसे सांसदों के मुॅह बंद किए जाने चाहिए जो कहते हैं कि हिन्दुओं को चार से अधिक बच्चे पैदा करने चाहिए। अब तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी परिवार नियोजन की पक्षधर है, यह बात साक्षी महराज के गले उतारना चाहिए।

चीन ने एक बार एक बच्चा पैदा किए जाने की नीति की घोषणा कर दी थी और जनसंख्या विस्फोट में कमी करने में सफलता भी पाई थी। यह बात अलग है कि कुछ विषमताओं के चलते, उसने यह नीति बाद में वापस ले ली। एक नहीं तो दो बच्चों की नीति का अनुसरण अब समय की मॉग है।

और अंत में, अब लोग सारे बंद हैं,
नदियॉ स्वच्छन्द हैं, हवाओं में सुगंध है
वनों में आनंद है, जीव सारे मस्त हैं
वातावरण भी स्वस्थ है, पक्षी स्वरों में चहचहा रहे
तितलियॉ इतरा रहीं, अब तुम ही कहो
तुम्हें क्या कहूॅ, बीमारी कहूं कि बहार कहूॅ
पीड़ा कहूॅ कि त्योहार कहूॅ, संतुलन कहूं कि संहार कहूं
कहो! मैं तुम्हें क्या कहूॅ?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त हैं।)

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